कन्याकुमारी से भारत जोड़ो यात्रा दिल्ली पहुंच गई। अब दिल्ली से कश्मीर की तैयारी में है। आजाद भारत में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर की भारत यात्रा के बाद यह राष्ट्रीय स्तर के किसी नेता की सबसे बड़ी यात्रा है। भारत जोड़ो यात्रा में सांस्कृतिक झांकियां बेजोड़ हैं। इस यात्रा ने कांगे्रस पार्टी के कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार किया और गैर भाजपा दलों में पसरी मायूसी छांटने में यात्रा सहायक रही। राहुल गांधी ऊर्जा से भरपूर बिना थके हुए जनता के बीच सहज भी लगे। मुख्यधारा का मीडिया शुरुआत में राहुल गांधी के जूते में अटक गया, फिर दाढ़ी पर और अब दिल्ली की ठंड में उनके टी-शर्ट पर लटका है। आज जब राजनीति में छुटभैया नेता भी कई-कई मोबाइल से लैस जूझते रहते हों और जनता से मिलने मिलाने में समय की कमी का रोना रोते हों, गाड़ी से नीचे पैर रखने को राजी ना हों, तब किसी राष्ट्रीय नेता का बिना रुके यू महीनों सड़क पर पैदल चलना, जनता से रूबरू होना अपने आप में सराहनीय है। खासकर तब, जब उस शख्स ने बचपन में अपनी प्रधानमंत्री दादी इंदिरा और अपने पिता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को आतंकी हमले में खोया हो।
उस दृष्टि से यह व्यक्ति की डर और अविश्वास को हिम्मत और प्रेम से जीतने की भी यात्रा है। यह यात्रा एक नए राहुल गांधी को जन्म दे सकती है। सहमति और असहमति के बावजूद सार्वजनिक जीवन के हर तरफ के सामाजिक व्यक्तियों को ऐसे प्रयास का स्वागत करना चाहिए। इससे देश की परंपराएं और देश समृद्ध होते हैं। फिर ऐसी यात्राएं रोज-रोज होती भी नहीं। विरोधियों और विशेष तौर पर भाजपा ने शुरू से यात्रा का मखौल बनाने का प्रयास किया और मुख्यधारा के मीडिया ने यात्रा को काफी हद तक नजरअंदाज भी किया। सड़क पर जहां जहां तहां जिन आम नागरिकों ने खुद इस यात्रा को देखा है, वे इसे आसानी से भूल नहीं पाएंगे। जब बात तप की हो तो बुद्धि दक्षता नहीं, त्याग देखा और पूजा जाता है, बशर्ते तपस्वी अपनी अर्जित पूंजी को भविष्य में संजो पाए।
गांधी जी ने कहा था, ‘जब भी शंका हो संशय हो, जनता के बीच जाओ।’ ऐसी यात्राएं, राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ताओं और जनतंत्र को जनता से जोड़कर, समस्याओं के जमीनी निराकरण की क्षमता विकसित करती हैं। समाज और राजनीति में नेतृत्व कार्यकर्ता व आवाम के बीच चौड़ी हो रही खाई को भी ऐसी यात्राएं पाटने का काम करती हैं और दलों में भी बेहतर जमीनी नेतृत्व विकसित करती हैं। भारत जोड़ो यात्रा से कई प्रकार के लोग जुड़े हैं। सबसे पहले वे जो दिल से कांग्रेसी हैं और अपनी पार्टी का गौरव और सत्ता चाहते हैं।
दूसरे वे संगठन या व्यक्ति जो रणनीतिक या सैद्धांतिक तौर पर भाजपा के विरोधी हैं। तीसरे वे लोग जो प्रयोग धर्मी हैं, पर पिछले 5-10 सालों में इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि देश में शासन की दृष्टि से कांग्रेस भाजपा से कहीं बेहतर है। तीसरी श्रेणी के लोगों में आमजन से लेकर प्रयोगधर्मी सामाजिक या सिविल सोसायटी के वो कार्यकर्ता भी हैं, जो कभी कांग्रेस विरोधी भी रहे हैं और कहीं भाजपा समर्थक भी। कुछ में पश्चताप भाव भी है।
चौथा वर्ग राहुल गांधी के मार्फत सत्ता शीर्ष में पहुंच बनाने का ख्वाब पाले हैं। वैसे राहुल गांधी प्रधानमंत्री तो यूपीए काल में भी बन ही सकते थे। भारत जोड़ो यात्रा को गैर दलीय झंडे के तले तय करना अच्छा निर्णय था। इससे यह मंच व्यापक रहता और रोजमर्रा की राजनीति से अलग देश-विदेश में यह यात्रा एक अलग लकीर खींच पाती। खामी यह रही कि कई जगह कांग्रेसी परहेज नहीं रख पाए और यात्रा भाजपा ही नहीं, क्षेत्रीय दलों से भी उलझी और तू तू, मैं मैं की शिकार हुई। इसने यात्रा के उद्देश्य और पहुंच को सीमित कर दिया। भाजपा यही चाहती थी और वह इस तोड़फोड़ में आंशिक सफलता हासिल भी कर पाई।
इस भारत जोड़ो यात्रा के शिल्पकार दिग्विजय सिंह अपनी 6 महीने की नर्मदा परिक्रमा की पदयात्रा को दलीय राजनीति से अलग रखने और उसे पूर्णरूप से व्यक्तिगत या आध्यात्मिक स्वरूप देने में सफल रहे थे। चंदशेखर की भारत यात्रा को दक्षिण में एक सांस्कृतिक यात्रा माना गया था, यह यात्रा राहुल गांधी को इस लंबे संशय-दुविधा से भी बाहर निकाल सकती है कि वह अपनी भूमिका दलीय चुनावी राजनीति से शासन में परम्परागत जिम्मेदारी भर की देखते हैं या उससे कुछ अलग।
यात्रा के राजनीतिक पक्ष पर गौर करें तो व्यक्तिगत तौर पर इस यात्रा ने राहुल गांधी को पार्टी के भीतर और बाहर व विपक्षियों के नजरिए में खानदानी विरासत से अलग एक प्रभावशाली वजनदार नेता के रूप में स्थापित किया है। यह 100-150 दिन उनके पिछले 15-20 साल पर भारी है। यह यात्रा पार्टी व जनता में नया राहुल गांधी गढ़ सकती है, पर उनका व उनके साथियों का दिमाग भी खराब कर सकती है।
मोदी जी 2014 में देश के एक बड़े वर्ग का ख्वाब थे और देश की समस्याओं का समाधान भी माने गए। उन्हें बड़ा भारी समर्थन और सरकार मिली जो 2023 आते-आते, कांग्रेस मुक्त भारत छोड़िए, जहां-जहां प्रभावी विपक्ष है, वहां-वहां भाजपा हारने को तैयार है। अजेय तो बिल्कुल नहीं।
लगातार बढ़ती बेरोजगारी और मंहगाई के दौर में भाजपा अब अपने सुशासन के दम पर नहीं, सत्ता संसाधन दलबल से लैस होकर, ज्यादातर चुनाव कमजोर लचर विपक्ष के कारण ही जीत पा रही है। 2024 के आम चुनाव के मद्देनजर इस यात्रा से पैदा हुई ऊर्जा से कांग्रेस को पहले अपने कुनबे को जोड़ने की जरूरत है फिर अन्य दलों, विशेषकर पूर्व कांग्रेसी नेताओं के दलों से बेहतर संवाद और संबंध बनाने की।
पार्टी के भीतर झगड़ालू दरबारियों के बजाय कुशल प्रबंधकों को जिम्मेदारी देनी होगी। वफादार दरबारी नेता भी शरद पवार, चंद्रशेखर राव, ममता बनर्जी, जगन मोहन रेड्डी सरीखे जनाधार वाले पूर्व कांग्रेसी नेताओं का विकल्प नहीं हो सकते। 2014 में मोदी सरकार आने के बाद गांधी परिवार के देश छोड़ देने या जेल जाने जैसे अतिवादी आरोपों, अफवाहों और बड़बोले नारों से देश अब बहुत आगे निकल चुका है।
यह यात्रा इन आरोपों और अफवाहों का माकूल जवाब भी है। हालांकि बिना संगठन दुरुस्त किए सिर्फ इस यात्रा के दम पर 2024 साधने की उम्मीद अति आशावाद ही है। इस यात्रा ने साबित किया कि राहुल गांधी भले ब्रहमज्ञानी न भी हों पर पप्पू भी नहीं हैं, जैसा सालों से एक खर्चीले अभियान द्वारा उन्हें साबित करने की कोशिश हुई है। तेजी, चालाकी से दूर पप्पू स्कूली इम्तिहान में भले फेल होता है, पर वही सीधा-साधा पप्पू कई बार मौहल्ले वालों के दिल के बेदह करीब होता है।