Friday, July 5, 2024
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राजनीति में राहुल गांधी की धमक

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Samvad 1


subhas chandra kushwaभारतीय राजनीति में कांग्रेस और नेहरू खानदान की प्रासंगिकता के साथ-साथ, उनकी कमियां और बहुत सारी कमजोरियां रही हैं। नेहरू ने डिस्कवरी आॅफ इंडिया के भारत की जो आधारभूत संरचना खड़ी की, जिसके साथ उन्होंने भारत की विकास की यात्रा प्रारम्भ की, भले ही वह प्रगतिशीलता के खांचे में नहीं समा सका था, फिर भी वह पुरातनपंथी नहीं कहा जा सकता। वैचारिकी में वह वामपंथ से दूर होते हुए भी, दक्षिणपंथी हिंसा और नफरत को आत्मसात नहीं किए हुए था। वह अधिनायकवादी होते हुए भी निर्लज्ज जनविरोधी नहीं था। वह कॉपोर्रेट परस्त होते हुए भी, किसान-मजदूरों की बबार्दी पर जश्न मनाने वाला नहीं था। खाद-बीज, कृषि उपकरणों के कारखानों की नींव उसी ने रखी मगर उसी के काल में उदारवादी अर्थव्यवस्था की कोख से उनके उजड़ने की कहानी भी लिख दी गई।

आज तो, बिना आधारभूत संरचना का निर्माण किए, आयातित संस्कृति से, नेहरू के बुनियाद को दफ्न करने का काम किया जा रहा है। गुटनिरपेक्षता की वैश्विक राजनीति की बात तो छोड़िए, समर्पण कर विदेशी नेता का चुनाव प्रचार किया जा रहा है।

यह सही है कि कांग्रेस के जमाने में विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं का दौर शुरू हुआ पर उनकी मौत के आंकड़े जब्त नहीं किए गए, वे सामने आते रहे। तब इतनी संवेदनहीनता नहीं थी कि मौत पर मातम न मनाया जाए? अब तो सब तरफ पर्देदारी है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि इस कृषि प्रधान देश में किसानों के रास्ते में कीलें गाड़ी गई हों।

किसानों की जमीनों या कृषि उपज के उचित मूल्य का प्रश्न हो या नरेगा जैसी मजदूर पक्षधर नीतियों की, आलोचना का अवसर मिला, विरोध प्रदर्शन हुए तो कुछ सुनवाई भी हुई। यद्यपि तब भी सब कुछ पाक-साफ था, ऐसा नहीं कहा जा सकता। बाबरी मस्जिद का ताला खोलना, इमरजेंसी का दमन और सिख विरोधी दंगों का कलंक कांग्रेस के माथे रहा मगर गुजरात जैसे दंगे के दाग से वह बची रही।

युवा नेता राहुल गांधी का दिल छोटा सही, उन्होंने सिख विरोधी दंगों के लिए माफी मांग ली। राजीव गांधी के जमाने में गरीब विरोधी नई शिक्षा नीति और मनमोहन सिंह के जमाने में कॉरपोरेटपरस्त अर्थव्यवस्था की बुनियाद रखी गई मगर जेएनयू, आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों को बर्बाद नहीं किया गया?

माब लिंचिंग और धर्मांधता का जश्न नहीं मनाया गया? दुष्किर्मियों और हत्यारों के गले में मालाएं नहीं डाली गर्इं? बेशक उसकी नीतियां, एकदम वैज्ञानिक सरोकारों पर नहीं टिकी थीं, मगर वैज्ञानिक संस्थानों की स्वायत्तता का संकट न था। राफेल में नींबू और हरी-मिर्च लटकाने का जमाना न था।

बहुजनों का वह उभार, अभिजातवर्गीय, ब्राह्मणवादी कांग्रेसी राजनीतिज्ञों को भाया नहीं। उससे मुक्ति की तलाश में वे भटकते रहे। चक्रव्यूह बनाते रहे। कांग्रेस के अंदर वह नीति, वह तेवर, वह ताप, वह नफरत, वह हिंसा नहीं थी, जो बहुजन राजनीति को परास्त कर सके।

तभी हिंदू कट्टरपंथियों ने भाजपा का नया संस्करण तैयार किया, जहां ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ और ‘जै श्रीराम’ के नारे सुनाई देने लगे थे जो अंतत: अल्पसंख्यक और दलित विरोधी हिंसा और नफरत का पोषण करने लगे। यह नफरत बहुजनों के प्रति थी मगर धार मुसलमानों के प्रति मोड़ी गई जिससे बहुजनों की एक बड़ी आबादी, उनके नारों और धार्मिक फांसों में फंसकर, काल्पनिक वर्गशत्रुओं के पीछे टूट पडे़।

और वही हुआ। बाबरी विध्वंस से लेकर गुजरात दंगों में बहुजनों की भागीदारी इसका उदाहरण है। भाजपा, कांग्रेसी वर्णवादियों का सुरक्षित ठिकाना बन गई। सम्मोहित करने के लिए भ्रष्टाचार और उससे मुक्ति का लॉलीपॉप उछाला गया। अन्ना आंदोलन प्रायोजित हुआ।

जो समाज अभी बहुजन वैचारिकी को पूरी तरह आत्मसात न कर सका था, वह न तो बहुजन नेताओं पर दबाव बना सका और न कांग्रेस में वह ताकत बची थी जो, अपना नया नैरेटिव गढ़ कर उन्हें आकर्षित कर सके। लिहाजा हिन्दुत्व के सम्मोहन का जादू, कांग्रेस के सफाए का कारण बना।

एक दूसरी सच्चाई हमारे सामने है। भारत जोड़ो यात्रा में जिस तरह राहुल गांधी आम जन के करीब जा रहे थे। किसी बच्चे को कंधे पर बैठाते, मल्लाहों की बस्ती में विचरते, समुद्र में छलांग लगाते या बारिश में भीगते, जनसमुदाय को संबोधित करते हुए खुद भीगते, यह फोटो शूट करने का तमाशा नहीं था।

वर्ष 2023 की कई घटनाएं मुझे गहरे तौर पर प्रभावित कर रही हैं। वह अपनी राजनैतिक आभा, नए-नए वस्त्रों को बदलकर, नहीं गढ़ रहे हैं। वह इतिहास का अध्ययन कर बदल रहे हैं। वह अपनी आभा आम जन के अनुरूप गढ़ रहे हैं।

दक्षिण अफ्रीका से लौटे गांधी, जिस तरह 1915 में पैंट, शर्ट, कोट और टाई को टांग देते हैं, घुटने तक की धोती में आ जाते हैं, राहुल गांधी भी अपनी यात्रा में कुछ-कुछ आमजन की तस्वीरों में बदलते दिख रहे हैं। अप्रैल 2023 में वह एकाएक दिल्ली के चांदनी चौक और बंगाली मार्केट में जाकर गोलगप्पे और चाट का आनंद लेते हैं।

कर्नाटक में आम शहरी से हाथ मिलाते, आइसक्रीम खाने चले जाते हैं तो दिल्ली के मुखर्जी नगर में प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी में लगे युवक-युवतियों के बीच सड़क पर बैठ जाते हैं। उनके अनुभव सुनते हैं। राहुल गांधी के ये तौर-तरीके उन्हें सहज बना रहे हैं।

मई महीने में वह चंडीगढ़ की यात्रा में ट्रक की सवारी करने लगे थे। एक डिलीवरी ब्वॉय के बाइक के पीछे बैठ कर सड़क पर घूमते देखे गए। जब जून में वह अमेरिका में थे, न्यूयार्क जाते समय एक ट्रक पर बैठ गए और चालक के अनुभव सुनते रहे। अभी हाल ही में राहुल गांधी दिल्ली विश्वविद्यालय के लड़कों के हॉस्टल में जा पहुंचे।

वहां उन्होंने लड़कों के साथ हॉस्टल का खाना खाया और उनसे घंटों बतियाते रहे। 27 जून को रात 9.30 बजे, करोलबाग स्थित एक मोटर गैराज में जा पहुंचे और बाइक में पेचकस से स्क्रू कसने का अनुभव लेने लगे। हर कहीं राहुल ने खुद को आम जन से जोड़ा है और उनके जीवन को करीब से देखने का प्रयास किया है। राहुल की गढ़ी गई पप्पू की छवि तार-तार हो चुकी है।

जिस सहजता और बेतकल्लुफी से वह अमेरिका में पत्रकारों और एनआरआई के बीच अपनी बात रख रहे थे, उतनी सहजता से बातचीत करते फिलहाल किसी अन्य भारतीय राजनेता को नहीं देखा गया है। वैसे जिस जड़ और ठस कांग्रेस को राहुल संवारने का काम कर रहे हैं, वहां मुश्किलें बहुत हैं।

यही कारण है कि कई बार देर से राजनीतिक निर्णय लेने की विवशता, भाजपा के मुकाबले, कांग्रेस को पीछे धकेलती दिखाई देती रही है। राहुल चूंकि अपने चेहरे की चमक का ख्याल नहीं रखते हैं, तो इसलिए वह चाहें तो जोखिम उठा कर कांग्रेस को खड़ा कर सकते हैं।

विपक्ष को एकजुट करने में भी उनकी बड़ी भूमिका होनी चाहिए। शायद वह इसलिए खुद को प्रधानमंत्री की कुर्सी का दावेदार नहीं मानते। वह लड़ने का माद्दा रखते हैं। सांसदी चली गई है। सुरक्षा का ताना-बाना कम हो गया है। वह आम जनता पर भरोसा रख रहे हैं और भारतीय राजनीति में उनकी धमक सुनाई देने लगी है।


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