कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मंगलवार को कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के जज बिजनेस स्कूल में ‘21वीं सदी में सुनना सीखना’ विषय पर अपनी विवादस्पद तकरीर पेश की। अपने संबोधन में राहुल गाँधी ने भारत की आंतरिक राजनीति के गहन अंतरद्वंदों का विकट परचम लहरा दिया। पेगासस जासूसी कांड से लेकर भारतीय जनतंत्र पर मंडरा रहे विध्वंसात्मक खतरे के तथ्य कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के पटल पर पेश कर दिए। राहुल ने आधुनिक इतिहास पर विहंगम दृष्टि डालते हुए द्वितीय विश्वयुद्ध और सन 1991 में सोवियत संघ के पराभव के तत्पश्चात उभरे विश्व पटल पर अमेरिका और चीन की द्वंदात्मक तुलना भी कर डाली। विदेशी धरती पर भारतीय राजनीति के विकट अंतरविरोधों और कटुताओं का उल्लेख का करना कितना उचित है और कितना अनुचित है, इस पर गहन विचार विमर्श की अत्यंत आवश्यकता है।
क्या भारतीय राजनेताओं का वैचारिक स्तर इतना अधोपतित हो गया है कि वह अपने ही पुरुखों द्वारा अंजाम दिए शानदार राजनीतिक और कूटनीतिक आचरण के इतिहास को विस्मृत कर बैठे हैं। सन 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी की पराजय के पश्चात जब इंदिरा गांधी इंग्लैड गर्इं तो एक प्रेस कॉनफ्रेंस में उनसे मोरारजी देसाई हुकूमत द्वारा उनके विरुद्ध जारी कानूनी कार्यवाही के विषय में एक प्रश्न किया गया, जिसके प्रतिउत्तर में इंदिरा गांधी ने फरमाया था कि वह यहां पर भारत की आंतरिक राजनीति पर कोई बयान देने नहीं आई हूं। इंदिरा गांधी की राजनीतिक और कूटनीतिक विरासत पर अपना दावा पेश करने वाले कांग्रेस का पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी इस ऐतिहासिक ज्ञान ध्यान से क्या पूर्णत: वंचित हैं?
राहुल गांधी ने ही नहीं वरन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी विदेशों की धरती पर भारतीय राजनीति के ऐतिहासिक अंतरविरोधों का उल्लेख करते हुए प्राय: ऐसी ही कूटनीतिक गलतियां अंजाम देते रहे हैं। सन 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने विपक्ष के लीडर अटल बिहारी वाजपेई को कश्मीर विवाद के विषय में संयुक्तराष्ट्र के पटल पर भारत का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए राष्ट्र का कूटनीतिक प्रतिनिधि बनाकर भेजा था। आज के भारतीय राजनेता विदेश की धरती पर भारतीय राजनीति की इस ऐतिहासिक शक्तिशाली कूटनीतिक परंपरा को एकदम विस्मृत कर बैठे हैं। भारतीय राजनीति के प्रबल अंतरविरोधों का विदेशों में जाकर बखान करना और फिर अपनी जग हंसाई कराना तो आजकल भारतीय राजनेताओं का शगल बन चुका है।
विस्तारवादी चाल और चरित्र के राष्ट्र चीन को शांति और सद्भानापूर्ण राष्ट्र करार देकर आखिरकार राहुल गांधी दुनिया को एकदम झूठा और बेबुनियाद पैगाम क्यों देना चाहते हैं? चीन वस्तुत: भारत से बड़ी अर्थव्यस्था है, अत: चीन से भारत युद्ध नहीं कर सकता हैं। ऐसा कमजोर कूटनीतिक बयान देकर विदेशमंत्री जयशंकर आखिरकार क्या साबित करना चाहते हैं? भारत यकीनन शांति प्रिय राष्ट्र है, किंतु विस्तारवादी चीन के किसी आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब के लिए एकदम तैयार है। चीन की झूठी तारीफ करके और उसके मुकाबले में अमेरिका की निंदा करके राहुल गांधी कैसी अनोखी कूटनीतिक कुशलता का परिचय पेश कर रहे हैं। यह अमेरिका ही था, जोकि सन 1962 में चीन के भीषण आक्रमण के वक्त सबसे पहले भारत के पक्ष में आकर खड़ा हुआ था और न केवल खड़ा हुआ था, बल्कि उसने भारत को प्रबल सैन्य सहायता भी प्रदान की थी।
चीन की प्रबल प्रशंसा करके और अमेरिका की कूटनीतिक मुखालिफत अंजाम देकर राहुल गांधी भारत की कौन सी कूटनीतिक सेवा अंजाम दे रहे हैं? राहुल गांधी का यह उसी कोटि का जबरदस्त कूटनीतिक ब्लंडर है, जैसा अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के डोनॉल्ड ट्रंप का अंधसमर्थन करके नरेंद्र मोदी ने अंजाम दे दिया था और अकारण ही अमेरिकन डैमोक्रेटिक पार्टी को अपना दुश्मन बना लिया। नरेंद्र मोदी की इस कूटनीतिक खता का खामियाजा भारत आज तक झेल रहा है।
विदेशों की धरती पर भारत के वैभवशाली और शानदार जनतंत्र को बदनाम करके आखिरकार किसी भारतीय राजनेता को क्या हासिल हो जाएगा? भारतीय जनतंत्र की समस्त खामियों को दुरुस्त करने की संपूर्ण कवायद तो देश के अंदर ही अंजाम दी जानी चाहिए। राहुल गांधी विदेशी धरती पर भारतीय जनतंत्र के अधोपतित हो जाने के तल्ख तथ्य पेश कर रहे थे। राहुल गांधी भारत के बुनियादी संवैधानिक ढांचे को तहत नहस करने का संगीन इल्जाम नरेंद्र मोदी हुकूमत पर आयद कर रहे हैं। यकीनन राहुल के इस इल्जाम में बहुत तल्ख हकीकत निहित है। यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि भारतीय जनतंत्र के अधोपतन के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी स्वयं उनकी अपनी पार्टी नेशनल कांग्रेस रही है।
स्मरण करें कि नेशनल कांग्रेस ने ही सन1975 के जून 25 को भारतीय जनतंत्र पर सबसे प्रबल आघात अंजाम दिया था। कांग्रेस पार्टी में विगत अनेक दशक से कितना कुछ आंतरिक जनतंत्र विद्यमान रहा है, समस्त देश और दुनिया भली भांति जानती है। राहुल गांधी सबसे पहले अपनी पार्टी में ज्वलंत आंतरिक जनतंत्र की पुनर्स्थापना अंजाम दें, फिर उसके पश्चात भारतीय जनतंत्र को नष्ट किए जाने की दुहाई पेश करें।
विश्व पटल पर प्रत्येक राष्ट्र की शासन प्रणाली में कुछ ना कुछ त्रुटियां और खामियां विद्यमान रही हैं। भारत के जनतंत्र की खामियों को भारतवासियों और उसके राजनेताओं को खुद ही निपटाना होगा। भारतीय जनतंत्र पर कॉरपोरेट घरानों की अकूत दौलत का और नृशंस अपराधियों का शिकंजा शनै: शनै: कसता जा रहा है, इस शिकंजे से कारगर तौर पर निपटने के लिए जो प्रबल इच्छा शक्ति चाहिए उसका आभाव हमारी राजनेताओं में प्रकट हो रहा है। हुकूमत की जांच ऐजेंसियों को निष्पक्ष जांच पड़ताल के लिए जैसी खुदमुख्तारी की दरकार सदैव से रही है। जांच एजेंसियों को समुचित स्वतंत्रता को न तो कांग्रेस हुकूमत प्रदान कर सकी और ना ही वर्तमान हुकूमत ऐसी कोई सार्थक पहल कर सकी है।
किसी भी कामयाब जनतंत्र का प्रथम लक्षण है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव द्वारा शक्तिशाली विधायिका स्थापित हो, क्योंकि विधायिका ही हुकूमत का सृजन करती है।
सफल जनतंत्र की विधायिका नृशंस अपराधियों और धनकुबेरों के प्रभाव से पूर्णत: मुक्त होना चाहिए। भारत जनतंत्र के दुर्भाग्यपूर्ण हालत हैं कि 220 से अधिक नृशंस अपराधी वर्तमान संसद में विराजमान है और चुनाव पर धनकुबेरों की अकूत दौलत का वर्चस्व बाकयदा स्थापित हो चुका है। दूसरा लक्षण है शक्तिशाली और स्वतंत्र और निष्पक्ष व्यवस्था, जिस मुल्क में चार करोड़ मुकदमे न्यायालयों लंबित पड़े हो तो फिर न्याय की क्या अधोगति होगी। तीसरा लक्षण है स्वतंत्र मीडिया जिसके विषय में कुछ भी कहना ठीक नहीं, क्योंकि उस पर भी शनै: शनै: धनकुबेरों का आधिपत्य स्थापित हो रहा है। भारतीय जनतंत्र के इस अधोपतन के लिए भारत की संपूर्ण राजनीतिक संस्कृति जिम्मेदार है और किसी एक राजनेता अथवा किसी एक राजनीतिक दल पर इस अधोपतन का इल्जाम थोपना एक दम अनुचित है।