बाढ़ के समय लोगों के कष्ट , सत्य और तथ्य को हवाई सर्वेक्षण से महसूस नहीं किया जा सकता है। पानी में तैरते और तड़पते लोगों को देखने से उनकी आंतरिक और मानसिक पीड़ा का एहसास नहीं होगा। नदी का जल उफान के समय जल वाहिकाओं को तोड़ता हुआ मानव बस्तियों और आस-पास की जमीन पर पहुंच जाता है और बाढ़ की स्थिति पैदा कर देता है। भारत में बाढ़ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राकृतिक प्रकोप बन चुका है। भारत में घटित होने वाली सभी प्राकृतिक आपदाओं में सबसे अधिक घटनाएं बाढ़ की ही हैं। बाढ़ का कहर सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि यूरोपीय देशों में भी देखने को मिल रहा है। इस बार बाढ़ का कारण तीव्र वर्षा का होना है और इसका सीधा संबंध जलवायु परिवर्तन से जोड़ कर देखा जा रहा है। इस स्थिति में भविष्य का मंजर और भी भयावह होने की आशंका दिख रही है। केंद्र सरकार की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले 64 वर्षों में बाढ़ से एक लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी हैं। यानी हर साल औसतन 1,654 लोगों के अलावा 92,763 पशुओं की मौत होती रही है। विभिन्न राज्यों में आने वाली बाढ़ से सालाना औसतन 1.680 करोड़ की फसलें नष्ट हो जाती हैं और 12.40 लाख मकान क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।
केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते 64 वर्षों के दौरान 2.02 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ और 1.09 लाख करोड़ की फसलों का। इसके अलावा बाढ़ से 25.6 लाख हेक्टेयर खेत भी नष्ट हो गए। इस दौरान बाढ़ से 205.8 करोड़ लोग प्रभावित हुए।
विश्व बैंक ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया भर में बाढ़-संबंधित मौतों के कुल मामलों में से 20 फीसदी भारत में होते हैं। इसमें चेतावनी दी गई है कि आने वाले सालों में भारत के कोलकाता और मुंबई के अलावा पड़ोसी देशों के ढाका और कराची महानगरों में लगभग पांच करोड़ लोगों को बाढ़ की गंभीर विभीषिका झेलनी पड़ सकती है। यही नहीं इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में तापमान बढ़ रहा है और यह अगले कुछ दशकों तक लगातार बढ़ता रहेगा। जलवायु परिवर्तन का देश में बाढ़ की स्थिति पर व्यापक असर होगा। इसकी वजह से बार-बार बाढ़ आएगी और पीने के पानी की मांग बढ़ेगी। विश्व बैंक के ही अनुसार वर्ष 2050 तक छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य बन जाएंगे। इससे पहले इसी साल फरवरी में इंडिया स्पेंड ने एक साइंस जर्नल में छपे अध्ययन में कहा था कि वर्ष 2040 तक देश के ढाई करोड़ लोगों के सामने बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा। इन रिपोर्ट के आधार पर भारत में बाढ़ के भविष्य को समझा जा सकता है।
वास्तव में भारत में अब बाढ़ महज प्राकृतिक आपदा नहीं रह गई है, यह मानवीय आपदा की ओर अग्रसर है। बाढ़ की समस्या का सबसे बड़ा कारण मात्र अतिवृष्टि ही नहीं बल्कि मानव की तुच्छ अतिक्रमण कुदृष्टि भी है। ऐसा नहीं है कि ऐसी बारिश भारत में पहली बार हो रही है। बाढ़ की उत्पत्ति और इसके क्षेत्रीय फैलाव में मानव गतिविधियां महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। मानवीय क्रियाकलापों, अंधाधुंध वन कटाव, अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियां, प्राकृतिक अपवाह तंत्रों का अवरुद्ध होना तथा नदी तल और बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में मानव बसाव की वजह से बाढ़ की तीव्रता, परिमाण और विध्वंसता बढ़ जाती है। तटबंधों, नहरों और रेलवे से संबंधित निर्माण के कारण नदियों के जल-प्रवाह क्षमता में कमी आती है, फलस्वरूप बाढ़ की समस्या और भी गंभीर हो जाती है। कुछ सालों पहले उत्तराखंड में आई भयंकर बाढ़ को मानव निर्मित कारकों का परिणाम माना जाता है। पेड़ पहाड़ों पर मिट्टी के कटाव को रोकने और बारिश के पानी के लिए प्राकृतिक अवरोध पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए पहाड़ी ढलानों पर वनों की कटाई के कारण नदियों के जलस्तर में वृद्धि होती है, जो समतल मैदानों में आ कर बाढ़ का रूप ले लेती है।
केंद्रीय जल आयोग लंबे समय से ये कहता आया है कि राज्यों को अपने अपने यहां बाढ़ ग्रस्त इलाकों को अलग अलग जोन में बांटना चाहिए। इससे बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकेगा। इसके साथ साथ नदियों को भी अपने रास्ते पर बहने दिया जा सकेगा। केंद्र सरकार ने बाढ़ नियंत्रण के लिए वर्ष 1975 में एक मॉडल बिल फॉर फ्लड प्लेन जोनिंग को राज्यों से साझा किया था। जिससे कि राज्यों में बाढ़ प्रभावित इलाकों को अलग-अलग क्षेत्रों में बांटने को लेकर परिचर्चा को आगे बढ़ाया जा सके। अब तक केवल तीन राज्यों-मणिपुर (1978), राजस्थान (1980) और उत्तराखंड (2012) ने ही बाढ़ प्रभावित इलाकों को जोन में बांटने का कानून तैयार किया है। जबकि अन्य राज्य और खास तौर से नियमित रूप से बाढ़ की त्रासदी झेलने वाला बिहार, लगातार इसका विरोध करते रहा है। इसके पीछे वजह है-बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में आबाद लोगों को डूब क्षेत्र से हटाना और दूसरी जगह पुनर्स्थापना। क्योंकि, इन लोगों को बसाने के लिए वैकल्पिक जमीन का राज्यों के पास अभाव है।
इसके अलावा एक नीति के दौर पर फ्लड प्लेन जोनिंग के जरिए दो प्रमुख लक्ष्य हासिल करने की कोशिश होती है। पहली तो ये कि बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों से अतिक्रमण हटाया जाए और दूसरा ये कि इन बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में जमीन के इस्तेमाल को नियमित किया जाए। यानी बाढ़ प्रभावित इलाके को जोन में बांटने के पीछे का तर्क बिल्कुल स्पष्ट है। बाढ़ के चलते होने वाला नुकसान लगातार बढ़ रहा है। इसकी बड़ी वजह ये है कि डूब क्षेत्र में आने वाले इलाकों में पिछले कुछ वर्षों के दौरान आर्थिक गतिविधियां बहुत बढ़ गई हैं और, इंसानी बस्तियां भी बस रही हैं। इससे नदियों के डूब क्षेत्र में आने वाले लोगों के बाढ़ के शिकार होने की आशंका साल दर साल बढ़ती ही जा रही
बचाव हेतु बाढ़ की भविष्यवाणी करना बहुत ही कठिन होता है, क्योंकि कुछ ही घंटों में बहुत अधिक बारिश होने से अचानक से बाढ़ आ जाती है। लोग इसके लिए तैयार नहीं होते हैं इसलिए लोगों को अपनी सुरक्षा स्वयं भी करनी चाहिए। हम इसके लिए सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं बैठ सकते हैं। जिन क्षेत्रों में हर साल बाढ़ आती है, वहां के निवासियों को एक सुरक्षा किट बना लेनी चाहिए, जिसमें अपनी सभी मूल्यवान वस्तुएं रख सकें। जिनके पास छत का मकान है, वो छत पर जीवन यापन कर लेते हैं लेकिन वर्षों से गरीबी की चक्की में पिस रहे लोग जिनके सर अब भी छत नसीब नहीं है, उन्हें खून के आंसू रोने पड़ जाते है। इनके लिए बाढ़ आने पर सुरक्षित स्थानों पर चले जाने की व्यवस्था भी सरकार को त्वरित मुहैया कराना होगा। समय रहते सुरक्षित स्थान पर नही गए तो मंजर भयवाह हो जाता है।