दुनिया के सभी देशों से ज्यादा बाबा अगर किसी देश में पाए जाते हैं, तो वो हिंदुस्तान है, और इसका नजारा कुंभ में साफ तौर पर देखा जा सकता है। इन बाबाओं की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। बाबाओं में नशे का ट्रेंड बहुत ज्यादा है। आज जितने बाबा या कहें कि संत-साधु बने देश के हर समाज और तकरीबन ज्यादातर नशा करते दिखाई देते हैं। और ये बाबा हर धर्म में बने घूम रहे हैं, लेकिन हिंदू धर्म में इनकी आवभगत और इज्जत काफी होती है। समाज में काम के बोझ और जिम्मेदारियों से बचने के लिए न जाने इन बाबाओं में से कितने ही होंगे, जो इसी के चक्कर में बाबा बन गए। हाल ही में इसके कई बड़े उदाहरण कुंभ के मेले में देखने को मिल रहे हैं, जिनमें एक है इंजीनियर से बाबा बनने वाले आईआईटी पास बाबा। दरअसल, इस होनहार युवा को इसके मां-बाप ने न जाने कितनी ही मुसीबत झेलकर आईआईटी जैसा महंगा कोर्स इस उम्मीद में कराया था, जिससे ये उनके बुढ़ापे में उनका सहारा बन सके। लेकिन नशे की लत में पड़कर आईआईटी मुंबई से एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले अभय सिंह ने कनाडा में नौकरी करते हुए 36 लाख रुपए का पैकेज छोड़ दिया। और उसके मां-बाप न सिर्फ परेशान हैं, बल्कि उनका रो-रोकर बुरा हाल है।
अभय सिंह उर्फ आईआईटी बाबा को नशा मुक्ति केंद्र या मानसिक रोगों के अस्पताल में होना चाहिए, लेकिन वह बाबा बनकर घर-परिवार की जिम्मेदारियां और अच्छी खासी नौकरी छोड़कर घूम रहा है और जिन पत्रकारों को देश की समस्याएं उठाते हुए उन खबरों को देश को दिखाना चाहिए था, जो लोगों के खिलाफ काम कर रही हैं, वो इस नए-नए बाबा का साक्षात्कार करते घूम रहे हैं। और मां-बाप का दुख नहीं दिखा रहे हैं। अब ये आईआईटी बाबा लोक कल्याण पर ज्ञान दे रहा है, जिसने खुद अपने मां-बाप का कल्याण नहीं किया।
आजकल मां-बाप भी अपने बच्चों का सबसे अच्छा भविष्य यानि बढ़िया कमाई वाला रोजगार डाक्टरी या इंजीनियरिंग में ही देखते हैं, जिसके लिए वो खुद दुखी रहकर, कर्ज लेकर या घर-जमीन बेचकर अपने बच्चों, खास तौर पर लड़कों को महंगी पढ़ाई करवाते हैं और इन बच्चों पर भी मां-बाप का लगातार दबाव भी बना रहता है कि उन्हें वही बनना है, जो वो चाहते हैं। इंजीनियरिंग और डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए मां-बाप बच्चों को अपने से दूर रखते हैं और ये बच्चे कुछ बिगड़ैल बच्चों के चलते, कुछ अकेलेपन के चलते, कुछ पढ़ाई की टेंशन के चलते उन लोगों के चंगुल में फंस जाते हैं, जो नशे की तस्करी करके पढ़ने वाले बच्चों का जीवन बर्बाद करते हैं। हिंदुस्तान में हर साल लाखों बच्चे इन तस्करों के नशीले जाल में फंसकर अपनी जिंदगी तबाह कर रहे हैं।
मां-बाप इतिहास, कला और दूसरे ऐसे विषयों में अपने बच्चों का तब ही कराते हैं, जब उन्हें ज्ञान नहीं होता या फिर उनके पास पैसा नहीं होता। और जो बच्चे इन विषयों में पढ़ाई करते हैं, तो वो सिर्फ डिग्री लेने भर के लिए। इस मामले में कई विचारकों और जानकारों का कहना है कि डाक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक बनाने से ही देश विश्व की शक्तियों में शुमार हो सकता है। लेकिन मेरा मानना है कि अगर ऐसा होता, तो दक्षिण एशियाई देश सबसे अधिक डाक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक आदि बनाने के बाद भी आज तक बदहाल नहीं रहते। यूरोप और अमेरिका बहुत पहले समझ गए थे कि हमें अपने देशों में उच्च स्तर के खोज संस्थान खोलने चाहिए, न कि डाक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक आदि बनाने पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए। क्योंकि अगर खोज संस्थान और पैसा होगा, तो बड़े से बड़े डाक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक तो नौकरी पर रख लिए जाएंगे, लेकिन अगर सिर्फ बच्चों को इस तरह की उच्च शिक्षा दे दी जाएगी, और नौकरी का कोई इंतजाम नहीं होगा, तो फिर वो भी विदेशों में नौकरी के लिए भागेंगे, जैसे आईआईटी बाबा उर्फ अभय सिंह कनाडा में नौकरी करता था। अगर देखें, तो पता चलेगा कि यूरोपियन देशों में उच्च तकनीकी वाले विषयों में शिक्षित बच्चे कम ही मिलेंगे, और हमारे यहां से सस्ते डाक्टर, इंजीनियर तो दक्षिण एशिया से आसानी से मिल जाते हैं, जो देश हमारे देश में नौकरी करने पर गर्व करते हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक जितेंद्र सहरावत कहते हैं कि अधिकतर भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को तकनीकी शिक्षा (मेडिकल और इंजीनियरिंग) लेने के लिए दबाव डालते हैं। यही वजह है कि ज्यादातर बच्चे इन शिक्षाओं के उच्च श्रेणी के संस्थानों में प्रवेश के लिए महंगी कोचिंग लेते हैं। इन कोचिंग संस्थानों में भी वही दबाव कि बच्चों अच्छी रैंक लानी है। बच्चों पर चारों तरफ (माता-पिता, समाज, कोचिंग संस्थान और सहपाठियों) के दबाव को पहचान कर नशे के कारोबारी यानि तस्कर सत्ताओं के संरक्षण में इन बच्चों के बीच में विभिन्न तरह की नशे की सामग्री अपने लोगों से परोसकर न सिर्फ भारी मुनाफा कमाते हैं, बल्कि बच्चों की लाइफ बर्बाद कर देते हैं। आईआईटी बाबा को भी इन्हीं नशों में कोई नशा दिमाग में गहराई से चढ़ गया है। धार्मिक संस्थान चलाने वाले ऐसे उच्च शिक्षित, लेकिन मानसिक रूप जर्जर हो चुके बच्चों को अपने अपने तरीके की बनाई धार्मिक अफीम से इनकी मानसिक जर्जरता को दूर करने के साथ देश बड़े धन्ना सेठों, राजनेताओं और उच्च प्रशासनिक अधिकारियों को आपके शरणागत करने का अहंकार जागृत कराते हैं। अक्सर दिखता है कि यूरोपियन और अमेरिकन लोग हिंदुस्तान और बाकी पिछड़े देशों का मजाक बनाते हुए कहते हैं कि इन देशों को अभी तक मालूम ही नहीं है कि यहां की उच्च शिक्षित युवा शक्ति हमारे देशों के उच्च रिसर्च संस्थानों में ऊर्जा लगाकर हमें दुनिया का शक्तिशाली देश और मालिक बनाने की मुख्य भूमिका रहे हैं। इनके देश की सत्ताएं और मां-बाप इन्हें डाक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक आदि बनाकर हमारे यहां नौकरी करने के अहंकार चूर हैं। ये अहंकारी अपने बच्चों को यूरोप और अमेरिका आदि शक्तिशाली देशों के नौकर बनाकर भी अपने देश में खुद को अमीर महसूस करते हैं। अपने देश की गरीबी दूर करने में विफल हैं, फिर भी अहंकार के नशे में इतने चूर हैं कि अपने देशों की बदहाल स्थिति पर ये अहंकारी कभी विचार ही नहीं करते।
हिंदुस्तान के मां-बाप को चाहिए कि वो अपने बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ उन्हें संस्कार जरूर दें। और जितना संभव हो सके, अपने आसपास ही रखें, क्योंकि विदेशों में जाने वाले यहां तक कि अपने शहरों से दूर रहने वाले बच्चे परिवार से न सिर्फ दूर हो जाते हैं, बल्कि उनका मोह भी परिवार से कम हो जाता है, जिसके चलते वो परिवार की जिम्मेदारियों से दूरी बनाने लगते हैं। बाहर वो किससे मिलते हैं और क्या करते हैं, ये उनके परिवार वालों यहां तक कि मां-बाप को भी नहीं पता होता है। तो सवाल ये है कि क्या माता-पिता को अपनी कुंठाओं की पूर्ति के लिए अपने बच्चों को इस तरह से मानसिक रूप से जर्जर करके धर्म, अर्थ और तंत्र के चंगुल में फंसते रहने का सिलसिला चलते रहना ठीक है? क्या इस तरह के मानसिक जर्जर युवाओं की भीड़ बढ़ाने से धर्म और राष्ट्र विश्व की शक्ति बन जाएगा?