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लोकतंत्र का आशय है कि लोगों की सरकार हो। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई बार बहुमत की चुनाव प्रणाली में हर निर्वाचित जनप्रतिनिधि को लोगों का सच्चा जनादेश प्राप्त नहीं होता है। अगर लोगों को अपना जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, तो उन्हें जनप्रतिनिधियों के कर्तव्य पालन में विफल रहने पर हटाने का भी अधिकार मिलना चाहिए। जनप्रतिनिधित्व कानून-1951 केवल कुछ अपराधों के मामले में जनप्रतिनिधियों को हटाने की मंजूरी देता है और उनकी सामान्य अक्षमता और मतदाताओं की नाराजगी को उन्हें हटाने का कारण नहीं मानता, इसलिए राइट टू रिकॉल को अब पूरे देश में लागू करना बहुत जरूरी हो जाता है। राइट टू रिकॉल जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार की प्रक्रिया का प्रतिरूप है। यह ऐसी प्रक्रिया है, जिसके जरिए मतदाता चुने हुए प्रतिनिधियों को उनका कार्यकाल पूरा होने से पहले प्रत्यक्ष मतदान के जरिए हटा सकते हैं।
ऐतिहासिक संदर्भ में बात करें तो भारत में राजाओं को हटाने के प्रजा को अधिकार होने के उदाहरण देखने को मिलते हैं। वहीं प्राचीन काल में एथेनियन लोकतंत्र में यह कानून चलन में था। बाद में कई देशों ने इसे अपने संविधान में शामिल किया। इतिहास में इस कानून की उत्पत्ति स्विट्जरलैंड से हुई। हालांकि यह अमेरिकी राज्यों में चलन में आया। वहां कई प्रांतों में इसके सशक्त उदाहरण देखने को मिलते हैं। कनाडा की ब्रिटिश कोलंबिया विधानसभा ने 1995 से रिकॉल चुनाव को मान्यता दी है।
अगर भारत की बात करें तो रिकॉल की अवधारणा देश में पहली बार 1924 में तब सामने आई थी, जब हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े सचिंद्र नाथ सान्याल ने पार्टी के घोषणा पत्र में कहा था कि इस गणराज्य में मतदाताओं के पास अपने जनसेवकों के ऊपर राइट टू रिकॉल का अधिकार सुरक्षित होगा। लोकतंत्र मजाक न बने, इसलिए मतदाता को यह अधिकार दिया जाएगा। इस मुद्दे पर संविधान सभा में बहस भी हुई थी, लेकिन कहा जाता है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस प्रस्तावित संशोधन को स्वीकार नहीं किया था।
मानवाधिकारवादी एमएन रॉय ने 1944 में विकेंद्रीकृत और शासन के विकसित स्वरूप को प्रस्तावित किया था, जो जनप्रतिनिधियों को चुनने और उन्हें वापस बुलाने की अनुमति देता है। जुलाई, 1947 में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने संविधान सभा में जनता को जन सेवकों को हटाने के अधिकार रिकॉल को प्रभावी बनाने पर बल दिया था।
1974 में सीके चंद्रप्पन द्वारा जन सेवकों को वापस बुलाने वाला प्रस्ताव लोकसभा के पटल पर रखा था, जिसका समर्थन अटल बिहारी वाजपेयी ने भी किया था। 1974 में ही जयप्रकाश नारायण ने भी राइट टू रिकॉल के बारे में जोरदार पैरवी की। अन्ना हजारे भी इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाते रहे हैं।
2008 में लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी राइट टू रिकॉल का समर्थन किया था। 2008 में छत्तीसगढ़ नगरपालिका अधिनियम-1961 के तहत लोगों ने तीन निर्वाचित स्थानीय निकाय के प्रमुखों का निर्वाचन रद्द कर दिया। मध्य प्रदेश, बिहार, गुजरात, राजस्थान और हरियाणा में भी राइट टू रिकॉल स्थानीय निकाय स्तर पर अस्तित्व में है। हालांकि बाद में राजस्थान में इसे निरस्त कर दिया गया था। 2016 में सांसद वरुण गांधी ने भी ऐसी शुरूआत करने की कोशिश की थी।
अगर इस कानून से होने वाली दिक्कतों की बात करें तो रिकॉल चुनाव के साथ समस्या यह है कि यदि जनता ने एक-एक कर प्रत्येक निर्वाचित उम्मीदवार को खारिज करना शुरू कर दिया तो हमें बार-बार चुनाव कराना होगा। भारत में चुनाव एक खचीर्ली प्रक्रिया है, जहां सरकार का पैसा तो खर्च होता ही है, साथ ही उम्मीदवारों द्वारा भी तय सीमा से अधिक खर्च किया जाता है। यदि बार-बार चुनाव हुए तो आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक समस्याएं भी खड़ी हो सकती हैं।
अत: इसे लागू करने से पहले यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि राइट टू रिकॉल जनप्रतिनिधियों के उत्पीड़न का स्रोत न बन जाए। इसके लिए रिकॉल प्रक्रिया में कई सुरक्षा उपायों को शामिल किया जाना चाहिए। रिकॉल की प्रक्रिया का आरंभ याचिका के माध्यम से शुरू किया जाए। उसके बाद इस याचिका की पहली समीक्षा संबंधित सदन के अध्यक्ष द्वारा की जाए और फिर अंत में इलेक्ट्रॉनिक मतदान से अंतिम परिणाम निर्धारित किया जाए। एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव देश के नागरिकों का अधिकार है।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए मताधिकार के साथ ही वापस बुलाने का अधिकार भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यह आवश्यक है कि जिस तरह से जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनाव के माध्यम से तय करती है, ठीक वैसे ही एक चुनाव उन्हें वापस बुलाने के लिए भी किया जाए। आखिर लोकतंत्र में मालिकाना हक तो जनता का ही है। असल में राइट टू रिकॉल को सबसे पहले संसद और विधानसभाओं में लागू किया जाना चाहिए। उसके बाद पंचायती राज व्यवस्था में इसे अमल में लाया जाना चाहिए।
अभी देश के कुछ राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था में राइट टू रिकॉल की व्यवस्था है, जिसके कोई खास परिणाम सामने नहीं आए हैं। अगर लोकतंत्र के नजरिए से भी देखें तो यह एक बहुत अच्छा कदम है, क्योंकि जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि यदि सही से काम ना करें तो जनता अपने प्रतिनिधि बदलने का अधिकार रखती है और जनता को यह अधिकार मिलना ही चाहिए। काम नहीं तो कुर्सी नहीं की व्यवस्था को लागू करना अब बहुत जरूरी हो चला है। राजनीतिक स्वच्छता के लिए हमें यह पहल करनी ही होगी।
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