आम आदमी की वितदायी संस्थाओं तक सहज पहुंच और संस्थागत और गैरसंस्थागत वित्तदायी संस्थाओं द्वारा आसानी से ऋण सुविधा उपलब्ध कराने का परिणाम है कि आज देश में गांवों में रहन सहन में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहा है। शहरों में उपलब्ध सभी सुविधाएं अब गांवों में भी सहजता से उपलब्ध हो जाती है तो ग्रामीणों की भी रहन सहन के मामलें में सोच में बदलाव आया है। आज कोई भी व्यक्ति साधन और सुविधाओं की और देखता है और उन सुविधाओं को पाने के लिए कर्ज भी लेना पड़े तो व्यक्ति दो बार सोचता नहीं है। यही समय और सोच का बदलाव है। सांख्यिकी मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट तो इस बात की और अधिक पुष्टि होती है। भारत सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय की व्यापक वार्षिक माड्यूलर रिपोर्ट के अनुसार शहरों की तुलना में अब गांवों में ऋण लेने वाले अधिक होते जा रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार गांवों में प्रति एक लाख पर 18714 लोगों ने किसी ना किसी तरह का कर्ज लिया है वहीं शहरी क्षेत्र का यह आंकड़ा ग्रामीण क्षेत्र की तुलना में कुछ कम 17442 है। सबसे अच्छी बात यह है कि अब संस्थागत ऋणों की उपलब्धता सहज हो गई है पर गैर संस्थागत ऋण प्रदाताओं ने भी तेजी से पांव पसारे हैं। हालांकि चिंतनीय यह है कि इन गैर संस्थागत ऋण प्रदाताओं में कहीं ना कहीं पुराने साहूकारों की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। दूसरी चिंता का कारण संस्थागत ऋण में भी इस तरह के ऋणों की ब्याजदर कहीं अधिक है और उससे भी ज्यादा गंभीर यह है कि संस्थागत हो या गैर संस्थागत ऋण प्रदाता ऋणी की एक किश्त भी समय पर जमा नहीं होती है तो फिर दण्डनीय ब्याज, वसूली के नाम पर संपर्क और पत्राचार आदि का खर्चा और इसी तरह के अन्य छुपे चार्जेंज ऋणी की कमर तोड़ने में काफी है।
सहज ऋण उपलब्धता के साइड इफेक्ट भी है जिन पर ध्यान दिया आवश्यक हो जाता है। सबसे पहला तो यह कि कुछ इस तरह के ऋण होते हैं जिन्हें होड़ा होड़ी में ले लिया जाता है और उसका सीधा असर कर्ज के मकड़जाल में फंसने की तरह हो जाता है। सांख्यिकी मंत्रालय के आंकड़े तो यह भी बताते है कि ग्रामीण क्षेत्र में ऋण लेने में महिलाएं भी कहीं पीछे नहीं है और महिला ऋणियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। दरअसल चाहे ग्रामीण क्षेत्र हो या शहरी क्षेत्र अधिकतर ऋण घरेलू जरुरतों को पूरा करने, बच्चों की पढ़ाई लिखाई, खान-पान और शानो शोकत से रहने के लिए पहनावे आदि के लिए लिया जाता है।
गांव और शहरों में एक अंतर यह है कि शहरों में स्वास्थ्य सेवाएं सरकारी स्तर पर भी आसानी से उपलब्ध है वहीं गांवों में स्वास्थ्य और शिक्षा पर अधिक खर्च करना पड़ता है। यही कारण है कि शिक्षा और स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने के लिए भी ग्रामीणों को ऋण लेना पड़ता है। यह सब कृषि कार्यों के लिए लिए जाने वाले ऋण से अलग हटकर है। वैसे भी अधिकांश स्थानों पर संस्थागत कृषि ऋण लगभग जीरो ब्याजदर पर या नाममात्र के ब्याज पर उपलब्ध होता है पर नकारात्मक प़क्ष यह है कि बिना ब्याज के ऋण को समय पर नहीं चुका कर कर्ज माफी के राजनीतिक जुमले के चलते जीरो ब्याज सुविधा से भी बंचित हो जाते हैं। खैर यह विषय से भटकाव होगा।
शहरों की तरह गांव भी आधुनिकतम सुख सुविधाओं से संपन्न हो इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। विकास की गंगा भी सभी तरफ समान रुप से बहनी चाहिए। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता। बल्कि यह सबका सपना है। ग्रामीण क्षेत्र में भी बढ़ते कर्ज के पीछे जो चिंतनीय बात है वह यह है कि कहीं ग्रामीण कर्ज के मकड़जाल में फंसकर कुछ पाने की जगह खो अधिक दे, इसकी संभावनाएं दिखाई देती है। इसका बड़ा कारण यह है कि संस्थागत ऋण यानी कि बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण हो या फिर गैर संस्थागत ऋण परेशानी इनकी वसूली व्यवस्था को लेकर होती है। जितने ऋण देते समय सहृदय होते हैं ऋण की किश्त की वसूली के समय उतने ही बेदर्द होने में कोई कमी नहीं रहती। शहरों में आए दिन रिकवरी एजेंटों के व्यवहार से दो चार होते देखने में आ जाते है। गांवों में तो वसूली करने वालों के टार्चर के हालात बदतर ही होंगे। ऐसे में समय रहते इस विषय में सोचना ही होगा। सरकार और इस क्षेत्र में कार्य कर रहे गैरसरकारी संगठनों के सामने बड़ी जिम्मेदारी अवेयरनेस प्रोग्राम चलाने की आ जाती है।
दरअसल जब ऋण प्रदाता संस्था से ऋण लिया जाता है तो उस समय जो डाक्यूमेंट होता है वह इतना बड़ा और जटिल होता है कि उसे पूरा देखा ही नहीं जाता है और ऋण दिलाने वाला व्यक्ति टिक लगाये स्थानों पर हस्ताक्षर करने पर जोर देता है। पढ़ा लिखा और समझदार व्यक्ति भी पूरे डाक्यूमेंट से गो थ्रू नहीं होता और परिणाम यह होता है कि बाद में दस्तावेज के प्रावधानों के कारण दो चार होना पड़ता है। हस्ताक्षर करने से हाथ बंध जाते हैं। सवाल यह कि अभियान चलाकर यह बताया जाना जरुरी है कि ऋण की एक भी किश्त चूक गए तो कितना नुकसान भुगतना पड़ जाएगा और यदि दुर्भाग्यवश दो तीन किश्त नहीं चुका पाये तो हालात बदतर हो जाएंगे और जिस तरह से किसी जमाने में साहूकार के चंगुल में फंस जाते थे वो ही हालात होने में देर नहीं लगती।
ऋण लेते समय प्राथमिकता भी साफ होनी चाहिए। केवल देखा देखी ऋण लेने की होड़ भी नुकसानदायक हो जाती है। गांवों में खेती की जमीन बेच कर अनावश्यक व दिखावे में राशि खर्च करने के दुष्परिणाम सामने हैं। ऐसे में बैंकों और एनजीओज को सामाजिक दायित्व समझते हुए अवेयरनेस प्रोग्राम चला कर लोगों को जागृत करना ही होगा नहीं तो कर्ज का यह मर्ज गंभीर रुप लेने में देरी नहीं लगायेगा।