विकलांगों की एक संस्था में सैकड़ों विकलांग बच्चे रहते थे। जिनमें कुछ अंधे और बहरे भी थे। संस्था की व्यवस्थापिका एक दिन विकलांग बच्चों को शहर के कुछ खास-खास स्थल दिखाने ले गई। उसने स्थल दिखाए, उसके बाद जहां सर्कस चल रहा था, वहां ले गई। सब बैठ गए। सबने सर्कस देखा।
सर्कस के खत्म होने के बाद महिला व्यवस्थापिका ने बच्चों से पूछा, ‘कहो, कैसे लगा।’ एक अंधा लड़का बोला, ‘मुझे तो बहुत अच्छा लगा, पर मेरा यह जो बहरा साथी बैठा है, यह बेचारा ऐसे ही रह गया।’ उसने पूछा, ‘ऐसे कैसे रह गया?’
अंधा बच्चा बोला, ‘बिल्कुल ऐसे ही रह गया। मुझे इस बात का दु:ख है कि यह कुछ लाभ नहीं ले सका।’ व्यवस्थापिका झुंझलाकर बोली, ‘अरे! तुम कहना क्या चाहते हो? कुछ बताते ही नहीं, बस कहे जा रहे हो कि ऐसे ही रह गया।’ अंधे बच्चे ने विस्तार से बताया, ‘बहिन जी! यह कुछ भी नहीं सुन सका, न सिंह की गर्जना को सुन सका, न हाथी की चिंघाड़ों को सुन सका, न मधुर गीतों को सुन सका।
इसके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा, इसका मुझे बड़ा दुख है।’ यह है सहानुभूति का भाव। स्वयं उसे पता नहीं है कि क्या हो रहा है। उसने यह नहीं सोचा कि मैं नहीं देख सका, पर उसके मन में यह पीड़ा उभरी कि मेरा साथी बहरा है, वह कुछ भी नहीं सुन सका। ऐसा सहानुभूति का भाव, एक संवेदना का भाव जाग जाए तो फिर व्यक्ति किसी के प्रति अन्याय नहीं कर सकता, किसी का शोषण नहीं कर सकता।
जिस व्यक्ति में संवेदना जाग गई, चिंतन की अनुभूति जाग गई, उसका चिंतन दूसरे तरह का बन जाता है। चाहे उसे करूणा कहें, अनुकंपा कहें या मैत्री भाव, जहां वह जाग जाती है, वहां विषमता नहीं टिकती। ऐसी सहानुभूति इंसानों के बीच होनी ही चाहिए।
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