Wednesday, May 14, 2025
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सामयिक: शिक्षा में धर्म की घुसपैठ

सुभाष गाताडे
सुभाष गाताडे
आप भले मेरी किताबें और यूरोप के सबसे उन्नत मस्तिष्कों की किताबें जला देंगे, लेकिन उन विचारों का क्या जो उन किताबों में समाए थे और जो करोड़ों रास्तों से आगे बढ़ चुका है और बढ़ता ही रहेगा।’
-हेलेन केलर, एन ओपन लेटर टू जर्मन स्टूडेंटस
‘फैहरेनहीट 451’! यही उस फिल्म का नाम है जो साठ के दशक के मध्य में (1966) में रिलीज हुई थी।
चर्चित फ्रेंच निर्देशक टुफो ज्तनिंनज द्वारा निर्देशित इस एकमात्र इंग्लिश फिल्म की तरफ उस वक्त लोगों का अधिक ध्यान नहीं गया था। प्रख्यात अमेरिकी लेखक रे ब्रेडबरी के इसी नाम के प्रकाशित एक उपन्यास (1951) पर आधारित यह फिल्म उस भविष्य की कल्पना करती है, जब किताबें गैरकानूनी घोषित की जाएंगी और दमकल विभाग वाले उन तमाम किताबों को जला देंगे, जो उनके हाथ में लगती है। ‘फैहरेनहीट 451’ दरअसल उस तापमान का आंकड़ा है, जब किताबें जलती हैं।
दूसरे विश्वयु़द्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका में जो कम्युनिस्ट विरोध की उन्मादी मुहिम सरकार की शह पर चल पड़ी थी, जब बड़े-बड़े लेखक, कलाकारों, सांस्कृतिक कर्मियों को जबरदस्त प्रताड़ना से गुजरना पड़ा, एक ऐसा दौर जब ‘लोगों को अपनी साया से भी डर लगने लगा था’, उस प्रष्ठभूमि में यह उपन्यास लिखा गया था, जिसने शोहरत की बुलंदियों को छुआ है। अब तक उसकी पचास लाख प्रतियां बिक चुकी हैं।
वक्त निश्चित ही बदल गया है। अब आज की तारीख में हम तीस के दशक में नात्सी काल में चले ‘पुस्तक जलाओ अभियानों’ जैसे असभ्य दिखने वाले काम नहीं कर सकते हैं या अमेरिका की तरह ऐसा माहौल भी नहीं बना सकते कि किताबों की अलमारियों से सीधे किताबों को हटाया जाए, यह अलग बात है कि हुकूमती जमातों ने नई-नई तरकीबें ढंूढते रहते हैं कि लोग किताबें पढ़े ही नहीं। ब्रिटेन के शिक्षा महकमे द्वारा हाल ही में जारी एक आदेश को इसी संदर्भ में देखना चाहिए। उसने इंग्लैंड के स्कूलों के लिए यह निर्देश जारी किया है कि वह ऐसे समूहों और संगठनों के संसाधनों का इस्तेमाल करना बंद कर दें, जिन्होंने पूंजीवाद की समाप्ति की इच्छा जाहिर की है। उम्मीद की जा सकती है कि हुकूमत में बैठे जानकारों, आलिमों ने इस आदेश के जारी किए जाने से पहले इस मसले पर जरूर गौर किया होगा और इसकी अहमियत तथा पाठयक्रमों पर उसके संभावित असर को जाना होगा। लेकिन इसके बावजूद हम कुछ संभावनाओं की बात कर सकते हैं। इस निर्देश से एक तरह से ब्रिटेन के अपने इतिहास को पाठयक्रम में रखना गैरकानूनी हो जाएगा-जैसे समाजवाद की एक जमाने की ताकतवर शक्तियां, लेबर पार्टी तथा ट्रेड यूनियन संघर्ष आदि-क्योंकि अपने लंबे इतिहास में उन्होंने हमेशा ही पूंजीवाद से परे जाने, पूंजीवाद को समाप्त करने आदि की बात पर जोर दिया है।
हमारी प्रस्तुत चर्चा के लिए यह प्रासंगिक होगा कि शिक्षा के दायरे में किस किस्म के बदलाव किए गए हैं। मिसाल के तौर पर, प्रेस में यह खबरें भी छपी है कि किस तरह पाकिस्तान की नई शिक्षा नीति ‘धर्म आधारित समाज’ तैयार करना चाहती है। पाकिस्तान के शिक्षा जगत में आ रहे इन बदलावों के बारे में लिखते हुए प्रोफेसर परवेज हुदभॉय, जो लाहौर तथा इस्लामाबाद में भौतिकी के जाने माने अध्यापक हैं और प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं, अपने नियमित कॉलम में बताते हैं कि इस कदम के कुछ महत्वपूर्ण पहलू हैं: उसका मकसद है कि मदरसा और अन्य स्कूलों को एक ही पलडे पर रखा जाए, वह मुमकिन बनाती है कि इत्तेहाद तंजिमाज-इ-मदारिस (मदरसा संगठनकर्ताओं का गठबंधन) से जुड़े नुमाइंदे यह तय करें कि पाकिस्तान के बच्चे क्या पढ़ें, यहां तक मौजूदा पाठयपुस्तकों की जांच का जिम्मा भी उन्हें दिया गया है, नर्सरी से आगे की हर कक्षा के लिए धार्मिक सामग्री अनिवार्य होगी, क्लास 1 से 5 का पाठयक्रम में इतनी धार्मिक सामग्री होगी जितनी सामग्री का स्तर भी बहुत उंचा होगा, धार्मिक पठन सामग्री नर्सरी की कक्षाओं से ही अनिवार्य होगी, कक्षा 1 से 5 तक के पाठयक्रम में मदरसों के पाठयक्रमों की तुलना में अधिक धार्मिक सामग्री दिखती है। इसका निहितार्थ ही होता है भेदभाव से भरा, क्योंकि गैरमुसलमानों के लिए इस्लाम की पवित्र किताब कुरान के अध्ययन की मनाही है।
हम कल्पना ही कर सकते हैं कि मदरसा और अन्य स्कूलों को एक ही स्तर पर रखने तथा धार्मिक विद्वानों को सभी स्कूलों की पाठयपुस्तकें तय करने का अधिकार देने के कितने खतरनाक नतीजे आ सकते हैं।
नि:स्सन्देह, यह विचार कि आधुनिक शिक्षा को मदरसों के समकक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है, यह विचार ही अपने आप में समस्यापूर्ण है, क्योंकि आधुनिक शिक्षा जहां आलोचनात्मक चिंतन पर आधारित है, मदरसे की शिक्षा में ऐसा कोई आधार नहीं होता है। उसका मकसद यही होता है कि धार्मिक परिपाटियों का पालन करने वाले आज्ञाकारी विद्यार्थी का निर्माण किया जाए और मौत के बाद बेहतर जीवन की बात की जाए। साफ बात है कि यहां आलोचनात्मक चिंतन पर पाबंदी रहती है। पाकिस्तान के शिक्षा जगत के अध्ययनकर्ता बताते हैं कि वहां की शिक्षा व्यवस्था में जिन बदलावों को अंजाम दिया जा रहा है, वैसे बदलावों की कल्पना तो जनरल जिया उल हक ने भी नहीं की होगी, जिन्होंने पाकिस्तान को इस्लामीकरण के रास्ते पर मजबूती से ला खड़ा किया।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मौजूदा हुक्मरान मुल्क को राम राज्य की दिशा में ले जाना चाहते हैं-जो एक तरह उनके अपने सपनों का हिंदू राष्टÑ है। केंद्र में सत्तासीन मोदी सरकार ने बाकायदा एक कमेटी बना कर ‘इतिहास में हिंदू फर्स्ट’ की अवधारणा पर मुहर लगाने के लिए इस कवायद को तेज किया है। यह प्रस्तुत पैनल को ‘बारह हजार साल से अधिक समय से भारतीय संस्कृति के उद्गम और विकास के समग्र अध्ययन और शेष दुनिया के साथ उसकी अन्तर्क्रिया’ के अध्ययन के लिए बनाया गया है। ‘विशेषज्ञों की इस कमेटी’ के गठन के पीछे का विचार यही है कि सरकार अपने हिंदू वर्चस्वगान के एजेंडा को ही आगे बढ़ाने में मुब्तिला है और उसे इस सच्चाई से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि भारतीय उपमहाद्वीप में पहला मनुष्य कब पहुंचा इसके बारे में आधुनिक सिद्धांत क्या बताते हैं? विगत साढ़े छह वर्षों में शिक्षा के दायरे को लगातार उद्वेलित रखा गया है।

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