Tuesday, July 15, 2025
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सिकुड़ती समुद्री तट रेखा

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PANKAJ CHATURVEDIकेंद्र सरकार के वन यथा पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत नेश्नलसेंतर फॉर कॉस्टल रिसर्च(एनसीसीआर) की एक ताजातरीन रिपोर्ट चेतावनी दे रही है कि देश की समुद्री सीमा कटाव और अन्य कारणों केचलते सिकुड़ रही है और यह कई गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आजीविका के संकटों की जननी है। अकेले तमिलनाडु के कुल समुद्र किनारों का कोई 42.7 हिस्सा संकुचन का शिकार हो चुका है। हालांकि कोई 235. 85 किलोमीटर की तट रेखा का विस्तार भी हुआ है। जब समुद्र के किनारे कटते हैं, तो उसके किनारे रहने वाले मछुआरों, किसानों और बस्तियों पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाता है। सबसे चिंता की बात यह है कि समुद्र से जहां नदियों का मिलन हो रहा है, वहां कटाव अधिक है और इससे नदियों की पहले से खराब सेहत और बिगड़ सकती है।

ओडिसा के जिलों-बालासोर, भद्रक, गंजम, जगतसिंघपुर, पुरी और केंद्र पाड़ा के लगभग 480 किलोमीटर समुद्र रेखा पर भी कटाव का संकट गहरा गया है। ओडिसा जलवायु परिवर्तन कार्य योजना-2021-2030 में बताया गया है कि राज्य में 36.9 फीसदी समुद्र किनारे तेजी से समुद्र में टूटकर गिर रहे हैं। जिन जगहों पर ऋषिकहुल्य, महानदी आदि समुद्र में मिलती हैं, उन स्थानों पर भूमि कटाव की रफ्तार ज्यादा है।

ओडिशा में प्रसिद्ध बंदरगाह पारादीप के एसार्मा ब्लॉक के सियाली समुद्र तट पर खारे पानी का दायरा बढ़ कर सियाली, पदमपुर, राम्तारा, संखा और कलादेवी गांवों के भीतर पहुंच गया है, करीबी जिला मुख्यालय जगतसिंह पुर में भी समुद्र के तेज बहाव से भूमि काटने का कुप्रभाव सामने आ रहा है।

पारादीप के समुद्र किनारे के बगीचे, वहां बने नाव के स्थान, महानदी के समुद्र में मिलने के समागम स्थल तक पर समुद्र के बढ़ते दायरे ने असर डाला है। हालांकि बंगाल में समुद्री किनारे महज 210 किलोमीटर में है, लेकिन यहां कटाव के हालात सबसे भयावह हैं।

यूनिवर्सिटी आॅफ केरल, त्रिवेंद्रम द्वारा किए गए और जून-22 में प्रकाशित हुए शोध में बताया गया है कि त्रिवेंद्रम जिले में पोदियर और अचुन्थंग के बीच के 58 किलोमीटर के समुद्री तट का 2.62 वर्ग किलोमीटर हिस्सा बीते 14 सालों में सागर की गहराई में समा गया। कई जगह कटाव का दायरा 10.5 मीटर तक रहा है। यह शोध बताता है की 2027 तक कटाव की रफ़्तार भयावह हो सकती है।

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत काम करने वाले चेन्नई स्थित नेशनल सेंटर फॉर सस्टेनेबल कोस्टल मैनेजमेंट के आंकड़े बताते हैं कि देश की कुल 6907 किलोमीटर की समुद्री तट सीमा है और बीते 28 सालों के दौरान हर जगह कुछ न कुछ क्षतिग्रस्त हुई ही है।

संस्थान के आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में समुद्र सीमा 534.45 किमी है और इसमें से 60.5 फीसदी अर्थात 323.07 किमी हिस्से में समुद्र ने गहरे कटाव दर्ज किए गए हैं। देश में सर्वाधिक समुद्री तटीय क्षेत्र गुजरात में 1945.60 किमी है और यहां 537.50 किमी कटाव दर्ज किया गया है, आन्ध्र प्रदेश के कुल 1027.58 किमी में से 294.89, तमिलनाडु में 991.47 में से 422.94 किमी में कटाव देखा जा रहा हैं।

पुदुचेरी जो कभी सबसे सुंदर समुद्र तटों के लिए विख्यात था, धीरे-धीरे अपने किनारों को खो रहा है। एक तरफ निर्माण बढ़ रहे हैं तो दूसरी तरफ समुद्रा का दायरा। यहां महज 41.66 किमी का समुद्र तट है जिसमें से 56.2 प्रतिशत को कटाव का ग्रहण लग गया है। दमन दीव जैसे छोटे द्वीप में 34.6 प्रतिशत तट पर कटाव का असर सरकारी आंकड़े मानते हैं।

केरल के कुल 592. 96 किलोमीटर के समुद्री तट में से 56.2 फीसदी धीरे-धीरे कट रहा है। ओड़िसा और महाराष्ट्र में भी समुद्र के कारण कटाव बढ़ रहा है। कोस्टल रिसर्च सेंटर ने देश में ऐसी 98 स्थानों को चिन्हित किया है, जहां कटाव तेजी से हो रहा है। इनमें से सबसे ज्यादा और चिंताजनक 28 स्थान तमिलनाडु में हैं। उसके बाद पश्चिम बंगाल में 16 और आंध्र में 07 खतरनाक कटाव वाले स्थान हैं।

कोई एक दशक पहले कर्नाटक के सिंचाई विभाग द्वारा तैयार की गई ‘राष्ट्रीय समुद्र तट संरक्षण रिपोर्ट’ में कहा गया था कि सागर-लहरों की दिशा बदलना कई बातों पर निर्भर करता है। लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण समुद्र के किनारों पर बढ़ते औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से तटों पर हरियाली का गायब होना है।

इसके अलावा हवा का रुख, ज्वार-भाटे और नदियों के बहाव में आ रहे बदलाव भी समुद्र को प्रभावित कर रहे हैं। कई भौगोलिक परिस्थतियां जैसे-बहुत सारी नदियों के समुद्र में मिलन स्थल पर बनीं अलग-अलग कई खाड़ियों की मौजूदगी और नदी-मुख की स्थिति में लगातार बदलाव भी समुद्र के अस्थिर व्यवहार के लिए जिम्मेदार है।

ओजोन पट्टी के नष्ट होने और वायुमंडल में कार्बन मोनो आक्साईड की मात्रा बढ़ने से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। इससे समुद्री जल का स्तर बढ़ना भी इस तबाही का एक कारक हो सकता है। समुद्र के विस्तार की समस्या केवल ग्रामीण अंचलों तक ही नहीं हैं, इसका सर्वाधिक कुप्रभाव समुद्र के किनारे बसे महानगरों पर पड़ रहा है।

पहले तो यहां कई मन मिटटी भर कर खूब इमारतें खड़ी की गर्इं, अब जब समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है और अनियमित या अचानक तेज बरसात अब सामान्य बात हो गई है-लगता है अब समुद्र अपनी जमीं इंसान से वापिस मांग रहा है। वैसे ही बढ़ती आबादी के चलते जमीन की कमी विस्फोटक हालात पैदा कर रही है। ऐसे में बेशकीमती जमीन को समुद्र का शिकार होने से बचाने के लिए केंद्र सरकार को ही त्वरित सोचना होगा।

जैसे-जैसे दुनिया का तापमान बढेगा, समुद्र का जल स्तर ऊंचा होगा तो समुद्र तटों का कटाव गंभीर रूप लेगा। दक्षिण में तो कई स्थानों पर कई-कई किलोमीटर तक मिट्टी के कटाव के चलते जनजीवन प्रभावित हो रहा है। कानून में प्रावधान है कि समुद्र तटों की रेत में उगने वाले प्राकृतिक पेड़-पौधों को उगने का सही वातावरण उपलब्ध करवाने के लिए कदम उठाना चाहिए।

मुंबई हो या कोलकता, हर जगह जमीन के कटाव को रोकने वाले मेग्रोव शहर का कचरा घर बन गए हैं। पुरी समुद्र तट पर लगे खजरी के पेड़ काट दिए गए।
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 में तहत बनाए गए सीआरजेड में समुद्र में आए ज्वार की अधिकतम सीमा से 500 मीटर और भाटे के बीच के क्षेत्र को संरक्षित घोषित किया गया है।

इसमें समुद्र, खाड़ी, उसमें मिलने आ रहे नदी के प्रवाह को भी शामिल किया गया है। ज्वार यानि समुद्र की लहरों की अधिकतम सीमा के 500 मीटर क्षेत्र को पर्यावरणीय संवेदनशील घोषित कर इसे एनडीजेड यानि नो डेवलपमेंट जोन(किसी भी निर्माण के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र) घोषित किया गया।

इसे सीआरजेड-1 भी कहा गया। सीआरजेड-2 के तहत ऐसे नगरपालिका क्षेत्रों को रखा गया है, जो कि पहले से ही विकसित हैं। सीआरजेड-3 किस्म के क्षेत्र में वह समुद्र तट आता है जो कि सीआरजेड-1 या 2 के तहत नहीं आता है।

यहां किसी भी तरह के निर्माण के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति आवश्यक है। सीआरजेड-4 में अंडमान, निकोबार और लक्षद्वीप की पट्टी को रखा गया है। सन 1998 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने राष्ट्रीय समुद्र तट क्षेत्र प्रबंधन प्राधिकरण और इसकी राज्य ईकाइयों का भी गठन किया, ताकि सीआरजेड कानून को लागू किया जा सके। लेकिन ये सभी कानून कागज पर ही चीखते हैं।


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