Friday, January 10, 2025
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लुई ब्रेल: जिसने नेत्रहीनों को दी दृष्टि

JANAM DIN PAR VISHESH 1


PARMOD DIXIT MALAYयह संसार सौदर्य की विविधताओं से ओतप्रोत है। सौंदयार्नुभूति या तो नेत्रों से संभव है या रोचक विवरण पढ़कर। लेकिन नेत्रहीनों के लिए यह सौदर्य अछूता और रसानुभूति से परे था, क्योंकि वे न तो देखकर आनन्द उठा सकते थे और न ही पढ़कर।
लुई ब्रेल का जन्म फ्रांस के एक गांव में 4 जनवरी 1809 को पिता साइमन रेले ब्रेल एवं माता मोनिक ब्रेल के परिवार में हुआ था। पिता के आर्थिक संसाधन सीमित थे एवं आजीविका का एकमात्र साधन उनका मोचीगिरी का ही काम था। वह चमड़े का काम करने के साथ ही फ्रांस के शाही परिवार एवं अमीरों के घोड़ों की काठी एवं जीन बनाने का काम किया करते थे। जैसा कि परंपरागत रोजगार करने वाले परिवारों में होता है कि अपने पारंपरिक कार्य से बच्चों को जोड़े रखने एवं सिखाने की दृष्टि से छोटी उम्र से ही अपने साथ काम पर ले जाते हैं। साइमन रेले ने भी ऐसा ही किया और अपनी मोची की दुकान पर तीन वर्ष के बालक लुई ब्रेल को साथ ले जाने लगे। स्वभावत: बालक जिज्ञासु एवं चंचल होते हैं। दूकान पर चमड़े के काम में प्रयुक्त होने वाले लोहे के औजारों यथा चाकू, सूजा, हथौड़ी, कटर, आरी आदि से बालक संपर्क में आया। वह पिता की मदद करते हुए उनसे खेलने लगता। एक दिन पिता की अनुपस्थिति में खेलते समय सूजा उछल कर बालक की आंख में जा लगा और खून की धार फूट पड़ी। बालक को घर पहुंचाया गया और आंख साफ कर जड़ी-बूटी युक्त घरेलू औषधि का लेपन कर पट्टी बांध दी गई और यह सोचा गया कि अपने आप जल्दी ही ठीक हो जाएगी। लेकिन उचित चिकित्सा के अभाव या अभिभावकों की लापरवाही के चलते घायल संक्रमित आंख का दुष्प्रभाव दूसरे आंख पर भी पड़ने लगा। आठ वर्ष का होते-होते बालक ने अपनी दृष्टि पूरी तरह खो दी। तत्कालीन समय में नेत्रहीनों की शिक्षा-दीक्षा के लिए कोई विशेष संसाधन एवं व्यवस्थाएं न थी। पेरिस में एक अंध विद्यालय अवश्य था पर वहां सामन्य परिवारों के बालको का प्रवेश हो पाना बहुत कठिन था। बालक लुई में कुछ नया करने की लगन थी, साथ ही शिक्षा प्राप्ति का जज्बा एवं संकल्प भी। उसके निरंतर आग्रह को स्वीकार कर पिता उसे एक परिचित पादरी के पास ले गए, जिनकी सिफारिश और मदद से लुई ब्रेल का नामांकन पेरिस के अंध विद्यालय ‘रॉयल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड’ में 1821 में हो गया। तब तक नेत्रहीनों को पढ़ाने के लिए कोई विशेष लिपि व्यवहार में नहीं थी। आधे-अधूरे प्रयासों से उपलब्ध सामग्री से उक्त विद्यालय में बच्चों को इतिहास, भूगोल एवं गणित की सामान्य जानकारी दी जाती थी। एक दिन शाही सेना का एक पदाधिकारी चार्ल्स बार्बियर, जो सैनिकों के लिए रात में भी टटोलकर पढ़ सकने वाली पठन सामग्री तैयार करने में जुटा हुआ था, उक्त विद्यालय में प्रशिक्षण हेतु आया। उन्होंने एक दिन संवाद करते हुए बताया कि अपने सैनिकों को अंधेरे में भी पढ़े जा सकने वाले गुप्त संदेशों को एक खास लिपि में अंकित कर भेजता है। बालक लुइ सेना नायक चार्ल्स के काम से प्रभावित हुआ और उनकी कूट लिपि को पढ़ने-समझने के लिए पादरी की मदद से चार्ल्स से भेंट की। बातचीत के बाद बालक लुई ने लिपि में कुछ संशोधन करने के सुझाव दिये। चार्ल्स बालक के सुझावों को सुन हतप्रभ था और तुरंत ही स्वीकार कर लिया जिससे सैनिकों तक संदेश पहुंचाना अब और सरल हो गया।

चार्ल्स बार्बियर की कूट लिपि को पढ़-समझ कर बालक लुई ब्रेल नेत्रहीनों के लिए उपयोगी एक खास लिपि को विकसित करने की साधना में जुट गया। आखिर 1829 में, आठ सालों की अनथक साधना का परिणाम एक विशेष विकसित लिपि के रूप में हुआ जिसे दुनिया ब्रेल लिपि से जानती है, जिसमें 6 उभरे बिंदुओं के आधार पर 64 अक्षर, विराम एवं गणित चिन्हों सहित संगीत के नोटेशन बनाना भी संभव हो गया। यहां पर मैं स्पष्ट करना चाहूंगा ब्रेल लिपि विश्व में प्रथम प्रचलित लिपि अवश्य है, पर प्रथम प्रयास नहीं है, क्योंकि उसके पहले इटली एवं अन्य देशों में कुछ प्रारंभिक प्रयास किए जा चुके थे पर वे अपूर्ण एवं व्यवहार में असहज थे। ब्रेल लिपि विकसित हो जाने से नेत्रहीनों के लिए पढ़ना एवं मनोभावों को अभिव्यक्त करना सहज संभव हो गया था। लेकिन ब्रेल लिपि को समाज एवं सरकार द्वारा मान्यता नहीं मिली। उसे सेना द्वारा प्रयोग किए जाने वाला कूट रचित अंकन ही समझा गया। लुई ब्रेल जीवन भर ब्रेल लिपि की मान्यता हेतु संघर्ष करते रहे। साथ ही लिपि के प्रचार-प्रसार में भी सतत समर्पित रहे।

विश्व को ब्रेल लिपि के रूप में अमूल्य उपहार देने वाला यह महान व्यक्तित्व 43 वर्ष की अल्पायु में ही 6 जनवरी 1852 को लौकिक जीवन पूर्ण कर यमलोक की अनंत की यात्रा पर प्रस्थान कर गया। लुई ब्रेल की मृत्यु के 16 वर्ष बाद 1868 में फ्रांस की सरकार ने ब्रेल लिपि को मान्यता प्रदान की और 20 जून 1952 को लुई ब्रेल के सम्मान का दिन घोषित कर पूरे राजकीय सम्मान एवं प्रतिष्ठा के साथ उनके गांव में धार्मिक संस्कारोंपरांत कब्र से शव को निकाला। उपस्थित जन समुदाय ने अपनी गलती स्वीकार की और धार्मिक रस्में पूर्ण कर लुई के सम्मान में राष्ट्रीय धुन बजा उन्हें दफनाया गया।

ब्रेल लिपि संपूर्ण विश्व प्रचलित हो गयी। भारत में भी ब्रेल लिपि के माध्यम से नेत्रहीनों के लिए पढ़ने एवं प्रशिक्षण के लिए तमाम विद्यालय एवं प्रशिक्षण केंद्र खोले गए। 4 जनवरी 2009 को लुई ब्रेल के 200 के जन्मदिन के अवसर पर भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी कर उनको अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। जीवन रहते हुए वह जिस सम्मान और प्रतिष्ठा के हकदार थे वह उनको नहीं मिला लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनके योगदान को सिर माथे लिया गया।


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