Wednesday, December 25, 2024
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बड़े काम की छोटी नदियां

Samvad


PANKAJ CHATURVEDIवैसे तो हर दिन समाज, देश और धरती के लिए बहुत जरूरी है, लेकिन छोटी नदियों पर ध्यान देना अधिक जरूरी है। गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है, पर ये नदियां बड़ी इसीलिए बनती है, क्योंकि इनमें बहुत सी छोटी नदियां आ कर मिलती हैं। यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा तो बड़ी नदी भी सूखी रहेंगी। यदि छोटी नदी में गंदगी या प्रदूषण होगा तो वह बड़ी नदी को प्रभावित करेगा। छोटी नदियां अक्सर गांव, कस्बों में बहुत कम दूरी में बहती हैं। कई बार एक ही नदी के अलग-अलग गांव में अलग-अलग नाम होते हैं। बहुत नदियों का तो रिकार्ड भी नहीं है। एक मोटा अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हजार छोटी ऐसी नदियां हैं, जो उपेक्षित हैं, उनके अस्तित्व पर खतरा है।

उन्नीसवीं सदी तक बिहार(आज के झारखंड को मिला कर) कोई छ: हजार नदियां हिमालय से उतर कर आती थीं। आज इनमें से महज 400 से 600 का ही अस्तित्व बचा है। अंधाधुंध रेत खनन, जमीन पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थाई निर्माण ही छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं। दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं है।

उनको शातिर तरीके से नाला बता दिया जाता है। जिस साहबी नदी पर शहर बसाने से हर साल गुरुग्राम डूबता है, उसका बहुत सा रिकार्ड ही नहीं है। झारखंड-बिहार में बीते चालीस साल के दौरान हजार से ज्यादा छोटी नदी गुम हो गर्इं। हम यमुना में पैसा लगाते हैं, लेकिन उसमें जहर ला रही हिंडन, काली को और गंदा करते हैं- कुल मिला कर यह नल खुला छोड़ कर पोंछा लगाने का श्रम करना जैसा है।

सबसे पहले छोटी नदियों का एक सर्वे और उसके जल तंत्र का दस्तावेजीकरण हो, फिर छोटी नदियों की अविरलता सुनिश्चित हो, फिर उससे रेत उत्खनन और अतिक्रमण को मानव-द्रोह अर्थात हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए। नदी के सीधे इस्तेमाल से बचें।

नदी में पानी रहेगा तो तालाब, जोहड़, समृद्ध रहेंगे। नदी के किनारे कीटनाशक के इस्तेमाल, साबुन और शौच से परहेज के लिए जन जागरूकता और वैकल्पिक तंत्र विकसित हो। सबसे बड़ी बात नदी को सहेजने का जिमा स्थानीय समाज, खासकर उससे सीधे जुड़े लोगों को दिया जाए, जैसे कि मद्रास से पुदुचेरी तक ऐरी के रखरखाव के जल- पंचायत है।

बुंदेलखंड तो प्यास, पलायन के लिए बदनाम है। यहां के प्रमुख शहर छतरपुर में एक नदी की सेहत बिगड़ने से वेनिस की तरह जल से लबालब रहने वाला शहर भी प्यासा हो गया। महाराजा छत्रसाल ने यह शहर बसाया था। यहां नदी के उतार-चढ़ाव की गुंजाइश कम ही है।

तीन बरसाती नाले-गठेवरा नाला, सटई रोड के नाला और चंदरपुरा गांव के बरसाती नाला। इन तीनों का पानी अलग-अलग रास्तों से डेरा पहाड़ी पर आता और यह जल-धारा एक नदी बन जाती। चूंकि इसमें खूब सिंघाड़े होते तो लोगों ने इसका नाम सिंघाड़ी नदी रख दिया। छतरपुर कभी वेनिस तरह था।

हर तरफ तालाब और उसके किनारे बस्तियां और इन तालाबों से पानी का लेन-देन चलता था-सिंघाड़ी नदी का। बरसात की हर बूंद तीन नालों में आती और फिर एकाकार हो कर सिंघाडी नदी के रूप में प्रवाहित होती। इस नदी से तालाब जुड़े हुए थे, जो एक तो पानी को बहता हुआ निर्मल रखते, दूसरा यदि तालाब भर जाएं तो उनका पानी नदी के जरिये से दूसरे तालाबों में बह जाता।

सिंघाड़ी नदी से शहर का संकट मोचन तालाब और ग्वाल मगरा तालाब भी भरता था। इन तालाबों से प्रताप सागर और किशोर सागर तथा रानी तलैया भी नालों और ओनों (तालाब में ज्यादा जल होने पर जिस रास्ते से बाहर बहता है, उसे ओना कहते हैं)से होकर जुड़े थे।

अभी दो दशक पहले तक संकट मोचन पहाड़िया के पास सिंघाड़ी नदी चोड़े पाट के साथ सालभर बहती थी । उसके किनारे घने जंगल थे , जिनमे हिरन, खरगोश , अजगर , तेंदुआ लोमड़ी जैसे पर्याप्त जानवर भी थे। नदी किनारे श्मसान घाट हुआ करता था। कई खेत इससे सींचे जाते और कुछ लोग ईंट के भट्टे लगाते थे।

बीते दो दशक में ही नदी पर घाट, पुलिया के नाम पर जम कर सीमेंट तो लगाया गया, लेकिन उसमें पानी की आवक की रास्ते बंद कर दिए गए। आज नदी के नाम पर नाला रह गया है। इसकी धारा पूरी तरह सूख गई है। जहां कभी पानी था, अब वहां बालू-रेत उत्खनन वालों ने बहाव मार्ग को उबड़-खाबड़ और दलदली बना दिया।

छतरपुर शहरी सीमा में एक तो जगह-जगह जमीन के लोभ में जो कब्जे हुए, उससे नदी का तालाब से जोड़-घटाव की रास्तों पर विराम लग गया, फिर संकट मोचन पहाड़िया पर अब हरियाली की जगह कच्चे-पक्के मकान दिखने लगे। कभी बरसात की हर बूंद इस पहाड़ पर रुकती थी और धीरे-धीरे रिस कर नदी को पोषित करती थी।

आज यहां बन गए हजारों मकानों का मल-मूत्र और गंदा पानी सीधे सिंघाड़ी नदी में गिर कर उसे नाला बना रहा है। जब यह नदी अपने पूरे स्वरूप में थी तो छतरपुर शहर से निकल कर कोई 22 किलोमीटर का सफर तय कर हमा, पिड़पा, कलानी गांव होते हुए उर्मिल नदी में मिल जाती थी। उर्मिल भी यमुना तंत्र की नदी है।

नदी जिंदा थी तो शहर के सभी तालाब, कुएं भी लबालब रहते थे। दो दशक पहले तक यह नदी 12 महीने कल कल बहती रहती थी। शहर के सभी तालाबों को भरने में कभी सिंघाड़ी नदी की बड़ी भूमिका होती थी। तालाबों के कारण कुओं में पानी रहता था, लेकिन आज वह खुद अपने ही अस्तित्व से जूझ रही है।

नदी की मुख्य धारा के मार्ग में अतिक्रमण होता जा रहा है। नदी के कछार ही नहीं, प्रवाह मार्ग में ही लोगों ने मकान बना लिए हैं। कई जगह धारा को तोड़ दिया गया है। पूरे नदी में कहीं भी एक बूंद पानी नहीं है।

नदी के मार्ग में जो छोटे-छोटे रिपटा और बांध बने थे, वे भी खत्म हो गए हैं। दो दशक पहले तक इस नदी में हर समय पानी रहता था। नदी अब त्रासदी बन गई है। आज नदी के आसपास रहने वाले लोग मानसून के दिनों में भी एक से दो किलोमीटर दूर से सार्वजानिक हैंड पंप से पानी लाने को मजबूर हैं।

भूजल उलीचने के लिए पंप रोपे जाते हैं। इसका जवाब किसी के पास नहीं होता कि जमीन की कोख या पाइप में पानी कहां से आएगा? छोटी नदियां धरती के तापमान को नियंत्रित रखने, मिटटी की नमी बनाए रखने और हरियाली के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं।

नदियों के किनारे से अतिक्रमण हटाने, उसमें से बालू-रेत उत्खनन को नियंत्रित करने, नदी की गहराई के लिए उसकी समय-समय पर सफाई से इन नदियों को बचाया जा सकता है। सबसे बड़ी बात, समाज यदि इन नदियों को अपना मान कर सहेजने लगे तो इससे समाज का ही भविष्य उज्जवल होगा।


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