Friday, April 19, 2024
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‘पठान’ के बहाने कुछ जरूरी सवाल

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Ravivani 34


इन दिनों शाहरुख खान-दीपिका पदुकोण की फिल्म ‘पठान,’ हीरोइन द्वारा पहनी गई बिकिनी के भगवा रंग के कारण बवाल में है, लेकिन क्या यह केवल किसी खास रंग के मामूली बित्तेभर कपड़े भर की बात है? क्या इस फिल्म ने एक बार फिर हमारे समाज में औरतों की हैसियत को बीच बहस में खड़ा नहीं कर दिया है? भारत यदि ‘रेप नेशन’ के नाम से मशहूर हुआ है, तो वह अकारण नहीं है। भारत ही नहीं, दुनिया भर में यह संकट है और बढ़ता ही जा रहा है। पुरुष-प्रधान समाज ने सारे नियम अपने अनुकूल बनाए तो हैं, लेकिन अब वे सब नियम उसे ही काटने आ रहे हैं।

बात 2017 की है। अमेरिकी सिनेमा की नगरी हॉलीवुड का एक बहुत बड़ा प्रोड्यूसर है, हार्वी वाइन्स्टीन। हॉलीवुड में उसका सिक्का चलता था-आतंक की हद तक! फिर चला ‘मी टू’ का आंदोलन। लड़कियों ने आगे आकर उन बहुत सारे लोगों के मुंह से मुखौटे हटाने शुरू किए। हार्वी वाइन्स्टीन पर भी ‘मी टू’ के तहत गंभीर आरोप लगे। जो बातें इंडस्ट्री में गुपचुप 10-15 सालों से चल रही थीं वे अचानक खुलकर फूट पड़ीं। कोई 84 महिलाओं ने हार्वी पर उनके मानभंग और शीलभंग के आरोप लगाए और फिर हमें पता चला कि हार्वी के वहशीपन की शिकारों में ग्वैन पाल्ट्रो, ऐंजेलीना जोली जैसी हॉलीवुड की मशहूर अदाकारा भी शामिल हैं। मुकदमा चला, खूब चर्चित हुआ। ऐसा कि अब वह शायद जेल में ही मरे!

यह लेख हार्वी के बारे में नहीं है, बल्कि हार्वी की शिकार अभिनेत्री ग्वैन पाल्ट्रो ने जो बताया उस बारे में है। उसने हार्वी के खिलाफ अपना बयान देते हुए कहा कि हार्वी अपनी फिल्मों में जानबूझकर, योजनापूर्वक कामुकता भरे दृश्य रखता था, चाहे उसका रिश्ता कहानी से हो या न हो। उसने अपनी एक फिल्म की शुरुआत में ग्वैन को मजबूर किया कि वह बाथरूम में नल के साथ सेक्स करती हुई दिखाई दे। फिल्म के ताकतवर निर्माता-निर्देशक अपनी वासना की सनक कैसे पर्दे पर उतारने के लिए अभिनेत्रियों को मजबूर करते हैं, जब से ग्वैन ने यह रहस्य खोला है, फिल्में देखने की मेरी नजर ही बदल गई है।

इसलिए ‘पठान’ फिल्म के गीत के बारे में हमारे यहां जो बवाल मचा हुआ है, उसे मैं किसी दूसरी निगाह से देखती हूं। धर्म और संस्कृति के रक्षकों को इस बात से कोई दिक़्कत नहीं है कि इस गाने में दीपिका पाडुकोण व दूसरी लड़कियों को खुलेआम दो टुकड़े की बिकिनी में दिखाया जा रहा है। उन्हें दिक्कत है, उन दो टुकड़ों के रंग पर। उनकी आपत्ति यह है कि उन कपड़ों का रंग भगवा क्यों है; मेरी आपत्ति यह है कि लड़कियों को ऐसे कपड़े क्यों पहनाए गए हैं?

दुनिया भी और फिल्मों की दुनिया भी, जैसी भी है, पुरुषों की बनाई हुई है। इसके सारे नियम- कानून, रूप-रंग, डायलॉग-गीत, नाच-गान-कपड़े, सब-के-सब पुरुषों की स्वीकृति के बाद ही हमें दिखाए जाते हैं। भय और लालच पर चलने वाली इस दुनिया का निर्माता हमारा-आपका पुरुष ही है। इसलिए जब सब दीपिका से यह पूछ रहे हैं कि उसने भगवा रंग की दो टुकड़ों की बिकिनी में वह नाच क्यों किया तो मैं कुछ दूसरे सवाल भी पूछना चाहती हूं।

फिल्में बनाने में, उसमें अश्लीलता की छौंक लगाने में सबसे छोटा हाथ लड़कियों का होता है। फिल्म की कहानी, उसके दृश्य, उसके गाने, उसमें पहने हुए कपड़े सभी दूसरे तय करते हैं। आप कह ही सकते हैं कि लड़कियां ऐसा काम करने से इंकार क्यों नहीं करतीं? सवाल जायज है, लेकिन मैं यह भी पूछना चाहती हूं कि क्या आप अपने घर के किसी समारोह में, अपनी छोटी बच्ची के ‘चोली के पीछे क्या है’ गाने पर नाचने का विरोध करते हैं? प्राय: हर घर में मां-बाप ऐसे गानों पर अपने बच्चे-बच्चियों को नचाते हैं। आप नचाते हैं तो बच्चे उस पर खुशी-खुशी परफोर्म भी करते हैं। जब वह आपको गलत नहीं लगता और नासमझ बच्चों को उसका ग्लैमर आकर्षित करता है तो हैरानी की बात नहीं है।

अलबत्ता, मुझे दीपिका से शिकायत भी है। इसलिए कि मुझे वह पसंद आती है। अपनी फिल्मों में जिस तरह के सामाजिक सवाल उसने उठाए हैं, मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जिस तरह की जागरूकता फैलाने में वह लगी रही है, दिल्ली में ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’ (जेएनयू) के विद्यार्थी जब आंदोलन पर उतरे थे तो दीपिका ने जिस हिम्मत के साथ उनका साथ दिया था, उससे मुझे लगा था कि यह लड़की सोच-समझकर काम करती है, जीवन जीती है। इसलिए जब कोई उर्फी जावेद कैमरे के सामने अपने कपड़े उतारती है तो मुझे बुरा नहीं लगता, लेकिन दीपिका भी जब वही करती है तो मैं उससे सवाल करना चाहती हूं।

भारत यदि ‘रेप नेशन’ के नाम से मशहूर हुआ है, तो वह अकारण नहीं है। भारत ही नहीं, दुनिया भर में यह संकट है और बढ़ता ही जा रहा है। पुरुष-प्रधान समाज ने सारे नियम अपने अनुकूल बनाए तो हैं, लेकिन अब वे सब नियम उसे ही काटने आ रहे हैं। समाज लड़की को हल्का, दोयम दर्जे का मानता है और दशकों से उन्हें कोख में ही मार रहा है। आप मार उन्हें रहे हैं, मर स्वयं रहे हैं। समाज में लिंग-अनुपात इस खतरनाक हद तक गिर गया है कि अब अपने तीसमारखां लड़कों के लिए लड़कियां मयस्सर नहीं हो पा रही हैं। राजस्थान, पंजाब, मध्यप्रदेश जैसे कई राज्यों में लड़कियां खरीदकर लाई जा रही हैं, ताकि अपने लड़कों का विवाह कराया जा सके।

संस्कृति के नाम पर विधवा और परित्यक्ता स्त्री का पुनर्विवाह कई संभ्रांत समाजों में, परिवारों में आज भी असंभव की हद तक मुश्किल है। बहुपत्नी का चलन कहने को केवल मुसलमानों में है, लेकिन सच्चाई यह है कि असंख्य हिंदू पुरुष अपनी दो पत्नियों के साथ रहते हैं या उनके साथ अलग-अलग घर बसाते हैं। इसे पुरुषों की जरूरत मानकर स्वीकार किया जाता है और मर्दानगी कहकर उसकी शेखी बघारी जाती है। वहीं दूसरी तरफ लड़कियों को पढ़ाना, उन्हें अपने पांव पर खड़ा करना एक अच्छे सिद्धांत की तरह स्वीकार किया जाता है, अमल में भी लाया जाता है। ऐसे समाज में मेरे जैसी पढ़ी-लिखी अकेली लड़कियों की संख्या बढ़ ही रही है!

बबूल लगाओगे तो आम नहीं पाओगे! यह वैज्ञानिक सिद्धांत समाज पर भी लागू होता है। लड़का ‘ऐय्याशी’ कर सकता है, लेकिन लड़की को मर्यादा में ही रहना चाहिए, यह कैसे संभव है? अगर लड़के को मनमाना करने की, ‘मौज’ करने की छूट आप देते हैं तो उसे उसके लिए एक लड़की की जरूरत तो पड़ेगी न? वह लड़की आपकी बेटी या बहन या साली-भांजी ही होगी। समाज में लड़का यदि खुले सांड-सा घूम रहा है और लड़कियां बमुश्किल मिलती हों तो क्या होगा? वही होगा जो आज हो रहा है। क्या दीपिका को यह बात समझ में नहीं आनी चाहिए कि वह पर्दे पर जो करती हुई दिखाई देती है, उसका असर लड़कों पर क्या होता है और लड़कियों की जिंदगी पर क्या होता है?

पश्चिम ने इस समस्या का समाधान यह निकाला है कि लड़का-लड़की दोनों बराबर हैं। दोनों की जरूरतें बराबर हैं। इसलिए किसी पर भी कोई बंधन न हो। क्या उनके रास्ते, उनका समाज स्वस्थ बना? क्या वहां स्त्री ज्यादा सुरक्षित व निरापद बनी? क्या स्त्री-पुरुष के संबंधों में सम्मान और आनंद बढ़ा? ‘मी टू’ आंदोलन, बिखरते हुए परिवार और समाज से यह बात साफ हो गई है कि वहां भी औरत शोषण से बची नहीं है। तब रास्ता क्या है?

संस्कृति का मतलब ही सुसंस्कृत होना है। आज से ज्यादा संयमित, संस्कृतिवान दोनों को ही बनना होगा। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। लड़का-लड़की की बराबरी उन दोनों के मन में पैदा होगी तो व्यवहार में प्रकट होगी। दोनों एक-दूसरे की जरूरत हैं। इसमें ज्यादा-कम नहीं हो सकता। प्रथम व दोयम नहीं हो सकता है। एक-दूसरे को देखने का नजरिया हमें बदलना होगा। स्त्री-पुरुष संबंधों के बारे में एक नयी सोच विकसित करनी होगी जो परस्पर सम्मान, प्रेम और संयम पर आधारित हो। नया साल ऐसी दृष्टि विकसित करने में हमारी मदद करेगा, तो नया युग शुरू होगा।


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