नगर में एक नया मंदिर बन रहा था, सैकड़ों मजदूर और कारीगर उसके निर्माण में लगे हुए थे। एक संत वहां से गुजरे। उन्होंने यूं ही एक पत्थर तोड़ते मजदूर से पूछा, ‘भाई यह क्या कर रहे हो।’ उस मजदूर ने पहले तो उस संत को उपर से नीचे तक देखा और तमतमाकर उत्तर दिया, ‘क्या तुम अंधे हो। तुम्हें दिखाई नहीं देता कि मैं पत्थर तोड़ रहा हूं।’ यह कहकर वह फिर जोर-जोर से पत्थर तोड़ने लगा।
संत मुस्कुराए, थोड़ा आगे चलकर उन्होंने एक और पत्थर तोड़ते मजदूर से वही प्रश्न पूछा, ‘भाई क्या कर रहे हो।’ उस मजदूर ने उदास आंखें उठाई, संत पर दृष्टि डाली और बडेÞ उदासी भरे स्वर मे बोला, ‘बच्चों के लिए रोजी-रोटी कमा रहा हूं।’ यह कहकर वह फिर काम में जुट गया, जैसे जीवन में आनंद ही नहीं हो। संत आगे बढ़ गए। कुछ दूरी पर उन्हें पत्थर तोड़ता एक और मजदूर मिला।
वह पत्थर तोड़ते हुए गीत भी गुनगुना रहा था। उसके चेहरे पर आनंद का भाव था। संत ने उससे पूछा, ‘भाई यह क्या कर रहे हो।’ उसने हंसते हुए आंखें उठार्इं और कहा, ‘महात्मा जी भगवान का मंदिर बनवा रहा हूं।’ श्रम तीनों ही कर रहे थे, पर तीसरा भावना वष श्रम के साथ आनंद भी प्राप्त कर रहा था।
शुभ भावना, शुभ संकल्प को जन्म देती है और यही संकल्प जीवन में सुख और शांति के प्रदाता होते है। कोई भी कार्य जब नि:स्वार्थ या सेवा भावना से किया जाता है, तो वह श्रमदान कहलाता है और सुख-शांति देता है, पर जब वही कार्य कमाने की दृष्टि से किया जाता है, तो थकाता भी है और जरूरी नहीं की सुख-शांति भी दे।