एक गुरु अपने शिष्यों को प्रत्यक्ष उदाहरणों के माध्यम से ज्ञान की बातें बताया करते थे। एक बार उनका एक प्रिय शिष्य उनसे देर रात तक बातें करता रहा। शिष्य जब अपने कमरे में जाने के लिए सीढ़ियों से उतरने को हुआ तो सीढ़ियों पर अंधकार देखकर घबरा गया। अंधकार इतना अधिक था कि हाथ को हाथ नहीं सुझाई दे रहा था। सीढ़ियां उतरना तो बड़ी बात थी। शिष्य गुरु से बोला, गुरुजी, अंधेरे के कारण रास्ता नहीं सूझ रहा है, ऐसे में मैं सीढ़ियां कैसे उतरूंगा? शिष्य की बात सुनकर गुरु ने एक दीपक जलाकर शिष्य के हाथ में रख दिया। शिष्य दीपक लेकर जैसे ही पहली सीढ़ी उतरा, वैसे ही गुरु ने दीपक बुझा दिया।
दीपक बुझते ही फिर चारों ओर अंधकार फैल गया। यह देखकर शिष्य हैरानी से बोला, यह आपने क्या किया? अचानक दीपक क्यों बुझा दिया? मैं तो पहली सीढ़ी पर ही अटका हुआ हूं। अब मैं बाकी सीढ़ियां कैसे पार करूंगा? शिष्य की बात पर गुरु बोले, पुत्र, जब एक सीढ़ी पर पांव रख ही दिया है तो आगे भी सीढ़ियां मिलती जाएंगी। किसी दूसरे के द्वारा दिए गए दीपक के सहारे जो प्रकाश मिलता है, वह असली प्रकाश नहीं होता।
असली प्रकाश वह होता है, जो अंधकार में चलने पर तुम्हारे अंदर स्वयं विकसित होता है। वह दीपक के प्रकाश से कहीं बेहतर व एक नवीन प्रकाश होता है, जो आपको केवल मार्ग ही नहीं दिखाता, अपितु आपके अंतर्मन के सारे चक्षुओं को खोलकर एक नई दिशा देता है। जो व्यक्ति अपना प्रकाश स्वयं निर्मित करना सीख जाता है, वह अपना जीवन सर्वश्रेष्ठ बना लेता है। इसलिए मैंने यह दीपक बुझा दिया, क्योंकि इसके सहारे तुम सीढ़ियां तो आसानी से पार कर लोगे, किंतु अंतर्मन की सीढ़ियों को पार नहीं कर पाओगे। गुरु की बात से शिष्य को नया प्रकाश मिला।