भौगोलिक संरचना के चलते पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन होने व बादल फटने की घटनाएं आम तौर पर वैश्विक स्तर पर होती ही रहती हैं। परंतु इस बार वर्षा ऋतु के दौरान खासतौर पर हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड जैसे राज्यों में हुई भरी बारिश के चलते तबाही के कुछ ज्यादा हो दृश्य देखने को मिले। जान माल का भारी नुकसान हुआ, सैकड़ों भवन भूस्खलन में ढह व बह गए, अनेक पुल ध्वस्त हुए, अनेक रास्ते कट गए, कई जगह भीषण बाढ़ के भयावह दृश्य देखे गएं। यह आपदा प्राकृतिक तो जरूर थी, लेकिन अनेक भू विज्ञान विशेषज्ञों ने इस अत्यधिक तबाही के पीछे कई कारण भी बताए। उदाहरण के तौर पर कुछ ने पहाड़ी क्षेत्रों में रेल व वाहन यातायात हेतु बन रही सुरंगों के कारण होने वाले भीषण विस्फोट के चलते पहाड़ों में होने वाली कंपन को इसका कारण बताया तो कुछ ने विकास के नाम पर होने वाले सड़कों व भवनों के बेतहाशा निर्माण को इसकी वजह बताया। कुछ ने पहाड़ों में बढ़ते शहरीकरण के चलते होने वाली पेड़ों व जंगलों की अनियंत्रित कटाई को इसकी वजह माना। तो इस तरह के चुनौतीपूर्ण विकास कार्यों को सही व वक़्त की जरुरत मानने वाले कई विशेषज्ञों ने दुनिया भर से उठने वाले सबसे प्रमुख स्वर में अपना भी सुर मिलाते हुये इन सभी आपदा पूर्ण परिस्थितियों का जिम्मा ‘ग्लोबल वार्मिंग’ पर मढ़ने की कोशिश की।
लेकिन इन सबसे अलग और विचित्र तर्क पेश किया गया हिमाचल प्रदेश में मंडी स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के निदेशक लक्ष्मीधर बेहरा द्वारा। बेहरा का मत है कि पशुओं पर की जा रही क्रूरता के कारण प्रदेश में भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं हो रही हैं। बेहरा ने कहा, मांस खाना बंद करें। उन्होंने छात्रों से मांस नहीं खाने का संकल्प लेने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि मांस खाना बंद नहीं किया तो हिमाचल का पतन तय है।
बहरा के इस बयान से विवाद पैदा हो गया है। वैज्ञानिक सोच व दृष्टिकोण रखने वाले तमाम लोग यह सोचकर आश्चर्यचकित हैं कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के निदेशक पर आखिर किस तरह एक अवैज्ञानिक सोच रखने वाला अंधविश्वासी व पूर्वाग्रही व्यक्ति थोप दिया गया है। एक बार पहले भी बेहरा की टिप्पणियों से उस समय विवाद खड़ा हो गया था जब गत वर्ष उन्होंने यह दावा किया था कि मंत्रों का जाप कर उन्होंने अपने एक दोस्त और उसके परिवार को बुरी आत्माओं से छुटकारा दिलाया था।
देश का कोई आम धार्मिक आस्थावान व्यक्ति इस तरह की बातें करे तो लोगों को कोई आश्चर्य नहीं होता। लेकिन आईआईटी जैसे शिक्षण संस्थान जहां तर्कों वितर्कों के आधार पर ही बच्चों का शैक्षणिक व मानसिक विकास होता है, वहां के निदेशक पद पर बैठा इंजीनियर व पीएचडी व्यक्ति ऐसी तर्कविहीन बातें करे तो उसके अधीन पढ़ने वाले बच्चों की योग्यता व उनके भविष्य पर भी प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है।
किसी भी व्यक्ति का शाकाहारी होना उसका निजी विषय है। उसे शाकाहार पर अमल करने व उसका प्रचार करने का भी अधिकार है। लेकिन मांसाहार के विरोध के नाम पर तर्कविहीन बातें करने का सीधा अर्थ है कि लोगों का ध्यान आपदा के वास्तविक कारणों से हटाना। वैसे भी सहस्त्राब्दियों से पहाड़ी इलाकों के भोजन का मुख्य आधार ही मांसाहार रहा है। उपलब्धता के दृष्टिकोण से भी और भोजन के लिहाज से भी।
याक जैसे कई पहाड़ी पशु प्रकृति ने इन इलाकों में इसी गरज से पैदा किए हैं। इनका दूध भी पिया जाता है, कृषि के उपयोग में भी लाया जाता है, सवारी भी की जाती है, इनके बालों के गर्म वस्त्र बनाये जाते हैं और अंत में इनका मांस भी खाया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व राजस्थान हाईकोर्ट के जस्टिस महेश चंद्र शर्मा ने भी इसी तरह की हास्यास्पद बात करते हुए यह कहा था कि-हमने मोर को राष्ट्रीय पक्षी क्यों घोषित किया? क्योंकि मोर आजीवन ब्रह्मचारी रहता है। इसके जो आंसू आते हैं, मोरनी उसे चुग कर गर्भवती होती है।
मोर कभी भी मोरनी के साथ सेक्स नहीं करता। मोर पंख को भगवान कृष्ण ने इसलिए लगाया क्योंकि वह ब्रह्मचारी है। साधु संत भी इसलिए मोर पंख का इस्तेमाल करते हैं। मंदिरों में इसलिए मोर पंख लगाया जाता है। उस समय भी राजस्थान हाईकोर्ट के जस्टिस जैसे अत्यंत जिम्मेदार पद पर बैठे किसी व्यक्ति द्वारा इसतरह के कुतर्कपूर्ण बयान देने से लोगों को आश्चर्य हुआ था। दुनिया आज जानती है कि नर मोर भी अन्य पक्षियों की ही तरह मादा मोरनी के साथ संभोग करता है। परिणाम स्वरूप मोरनी अंडे देती है जिससे मोर-मोरनी के बच्चे पैदा होते हैं।
अनेक कथावाचक भी यही प्रवचन देते हैं कि मोर के आंसू चुग कर मोरनी गर्भवती होती है। इसी प्रकार कोरोना काल में भी एक ओर जहां हमारे देश व दुनिया के वैज्ञानिक वैक्सीन बनाने में जुटे थे, स्वास्थकर्मी दिन रात एक कर कोविड मरीजों को बचाने में जुटे थे। सैकड़ों लोग अपने इसी पुरुषार्थ के चलते अपनी जानें भी गंवा बैठे तो कुछ ऐसे भी थे जो टॉर्च व दीया जलाकर तो ताली व थाली बजाकर कोविड को भागने में लगे थे।
तमाम लोगों ने कुरआन की आयतें व ताबीजें अपने मकानों के मुख्य द्वारों पर लटका रखी थीं कि इन्हें देखकर कोविड ‘गृह प्रवेश’ नहीं करेगा। इस तरह की बातें अंधविश्वासपूर्ण व तर्कविहीन होती हैं। आज हम अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों व सलाहियतों की वजह से ही चंद्रयान को चंद्रमा पर स्थापित कर चुके हैं। सूर्य का अध्ययन आदित्य कर रहा है। ऐसे में विशिष्ट व जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों द्वारा अंधविश्वास पूर्ण बातों को लोगों पर थोपना विश्वगुरु भारत के स्वयंभू ज्ञानियों के यह अज्ञानतापूर्ण बोल आखिर हमें किस दिशा में ले जा रहे हैं?