Wednesday, July 3, 2024
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सुरक्षा बलों की सुध भी लें

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Samvad 48


PANKAJ CHATURVEDIपिछले दो साल में बस्तर में नक्सलवाद से जूझ रहे सुरक्षा बलों के बीस से अधिक जवानों द्वारा आत्महत्या कर लेना और अपने ही साथियों पर गोली चलाने की आधा दर्जन घटनाओं पर भले ही लापरवाही हो परंतु ऐसा होना हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर चेतावनी है। इसी साल 14 नवंबर को कोंडागांव के धनोरा थाने के जवान साजेंद्र ठाकुर ने खुदकुशी कर ली, उससे पहले तीन नवंबर को नारायणपुर के कहकमेटा में जवान अरुण उईके ने खुद को गोली मार ली। इस साल ही अभी तक ऐसी आठ दुखद घटनाएं हो चुकी हैं। गत एक दशक के दौरान बस्तर में 115 जवान ऐसी घटनाओं में मारे गए। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कोई भी जवान ऐसे कदम बेहद तनाव या असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो कर उठाता है। आखिर वे दवाब में क्यों न हों? ना तो उन्हें साफ पानी मिल रहा है और ना ही माकूल स्वास्थ्य सेवाएं। जान कर दुख होगा कि नक्सली इलाके में सेवा दे रहे जवानों की मलेरिया जैसी बीमारी का आंकड़ा उनके लडते हुए शहीद होने से कहीं ज्यादा होता है। कुछ साल पहले सरकार ने बस्तर जैसे स्थानों पर बेहद विषम हालात में सेवाएं दे रहे अर्धसैनिकों को तनावमुक्त रखने के लिए ‘म्यूजिक थैरेपी’ के इस्तेमाल का प्रयोग करना शुरू किया था, लेकिन अभी इसका लाभ आम जवान तक पहुंचता नहीं दिख रहा है क्योंकि उनकी ड्यूटी इतनी विषम है कि इस तरह के मनोरंजन के लिए उनके पास समय निकलता नहीं।

ब्यूरो आफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने एक जांच दल बनाया था, जिसकी रिपोर्ट जून-2004 में आई थी। इसमें घटिया सामाजिक परिवेश, प्रमोशन की कम संभावनाएं, अधिक काम, तनावग्रस्त कार्य, पर्यावरणीय बदलाव, वेतन-सुविधाएं, छुट्टी की दिक्कतें जैसे मसलों पर कई सिफारिशें की गई थीं। इनमें संगठन स्तर पर 37 सिफारिश, निजी स्तर पर आठ और सरकारी स्तर पर तीन सिफारिशें थीं। इनमें छुट्टी देने की नीति में सुधार, जवानों से नियमित वार्तालाप, शिकायत निवारण को मजबूत बनाना, मनोरंजन व खेल के अवसर उपलब्ध करवाने जैसे सुझाव थे। इन पर कागजी अमल भी हुआ, लेकिन जैसे-जैसे देश में उपद्रव ग्रस्त इलाका बढ़ता जा रहा है, अर्ध सैनिक बलों व फौज के काम का दायरे में विस्तार हो रहा है।

ड्यूटी की केंद्रीय गृहमंत्रालय के आंकड़े बताते है कि केंद्रीय बलों में जवानों के आत्महत्याओं के ज्यादा मामले सामने आए हैं। वर्ष 2015 से 2021 तक 7 वर्षों में पूरे देश में जवानों की शहादत से ढाई गुना अधिक जवानों ने आत्महत्या की है। इस दौरान जहां सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ, असम राइफल्स, आईटीबीपी और एसएसबी के 821 जवानों ने आत्महत्या की है, जबकि इस दौरान देश के विभिन्न भागों में हुई मुठभेड़ों में 323 अर्धसैनिक जवानों ने अपनी शहादत दी है। इन सात वर्षों में सीआरपीएफ के 218 जवान शहीद हुए हैं। वहीं 292 जवानों ने आत्महत्या की है। यह आंकड़े चिंताजनक हैं।

अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिला कर सीआरपीएफ दुश्मन से नहीं खुद से ही जूझ रही है। यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व शोषण की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा करते नहीं हैं। अधिकांश मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है। बेहद घने जंगलों में लगतार सर्चिग्ां व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनावभरा है, यहां दुश्मन अदृश्य है, हर दूसरे इंसान पर शक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविश्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाश।

इस पर भी हाथ बंधे हुए, जिसकी डोर सियासती आकाओं के हाथों में। लगातार इस तरह का दवाब कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है। महज सुरक्षा के इरादे से ही जवानों को दिक्कत नहीं है, बल्कि इसका असर उनकी निजी जिंदगी पर भी होता है। उनकी पसंद का भोजन, कपड़े, यहां तक कि पानी भी नहीं मिलता है। बस्तर का भूजल बहुत दूषित है, उसमें लोहे की मात्रा अत्यधिक है और इसी के चलते गरमी शुरू होते ही आम लोगों के साथ-साथ जवान भी उल्टी-दस्त का शिकार होते हैं। यदा-कदा कैंप में टैंकर से पानी सप्लाई होती भी है, लेकिन वह किसी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से शोधित हो कर नहीं आता। कहते हैं कि जवान पानी की हर घूंट के साथ डायरिया, पीलिया व टाईफाईड के जीवाणू पीता है।

बस्तर का मलेरिया अब पारंपरिक कुनैन से ठीक नहीं होता है। घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देश की तरह मौसम बदलते हैं, उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाशिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चीन्हते हैं। इसके बावजूद केंद्रीय बलों के जवानों के लिए स्वास्थ्य सेवाए बेहद लचर है। जवान यहां-वहां जा नहीं सकते, जगदलपुर का मेडिकल कालेज बेहद अव्यवस्थित सा है। यह भी चिंता का विशय है कि सीआरपीएफ व अन्य सुरक्षा बलों में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या में 450 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।

अफसर स्तर पर बहुत कम लोग हैं। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनशील और सूचनाओं से परिपूर्ण है; ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जागरूकता व सतर्कता की जरूरत है। नियमित अवकाश, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेशानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रशासन की प्राथमिकता व तत्परता, जवानों के मनोरजंन के अवसर, उनके लिए पानी, चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना आदि ऐसे कदम हैं, जो जवानों में अनुशासन व कार्य प्रतिबद्धता, दोनों को बनाए रख सकते हैं।

यही नहीं, जब तक सीआरपीएफ के जवान को दुश्मन से लड़ते हुए मारे जाने पर सेना की तरह शहीद का दर्जा व सम्मान नहीं मिलता, उनका मनोबल बनाए रखना कठिन होगा। यह कैसी विडंबना है कि पूरा देश अपने जवानों को याद करने के लिए उनकी शहादत का इंतजार करता है। महज साफ पानी, मच्छर से निबटने के उपाय, जवानों का नियमित स्वास्थ्य परीक्षण कुछ ऐसे उपाय हैं, जो सरकार नहीं तो समाज अपने स्तर पर अपने जवानों के लिए मुहैया करवा सकता है, ताकि जवान एकाग्र चित्त से देश के दुश्मनों से जूझ सकें।


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