- कुमकुम को है आज भी कला के कद्रदानों का इंतजार
- कुमकुम न बोल सकती है न सुन सकती है
- पौराणिक कला के लिए संजीवनी है कुमकुम की अंगुलिया
जनवाणी संवाददाता |
मेरठ: ‘ स्याह रात नहीं लेती नाम ढलने का, यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का’। कुमकुम की जिन्दगी कुछ इन्ही पंक्तियों के इर्द गिर्द घूम रही है। कुमकुम न बोल सकती है न ही सुन सकती है, उसमें यह सिफत पैदायशी है, लेकिन खुदा ने उसे ऐसी कला से नवाज दिया जिसकी निगेहबानी खुद कुमकुम की अंगुलियां कर रही हैं।
शहर घंटाघर की रहने वाली कुमकुम भले ही आज बोलने और सुनने से मोहताज हो लेकिन उसकी कला उसकी विकलांगता पर हावी है। हां इतना जरुर है कि कुमकुम की कला आज उसी के घर की चारदीवारी तक ही महदूद होकर रह गई है। कुमकुम की अंगुलियां कलम, कागज और रंगों के सहारे ऐसे चलती हैं मानो कोई बड़ा कलाकार प्रकृति के हर रंग को संजो कर रख रहा हो।
‘वाकिफ कहां जमाना हमारी उड़ान से, वो और थे जो हार गए आसमान से’। कुमकुम इसी थीम पर अपनी जिन्दगी की जद्दोजहद को आगे बढ़ा रही हैं। रामायण और महाभारत के किरदार हों या फिर पौराणिक कला। कश्मीर की सुन्दर वादियां हों या फिर प्रकृति के रंग, कुमकुम की कला का दायरा किसी की हमदर्दी का मोहताज नहीं है। भले ही कुमकुम द्वारा बनाई गर्इं पेटिंग्स आज उसके घर की चारदीवारी के भीतर बक्सों में बंद हों लेकिन उसे उम्मीद है कि एक न एक दिन उसकी कला को कद्रदान जरुर मिलेंगे।
कुमकुम के पति जाफर हुसैन के अनुसार कुमकुम की एक दिली इच्छा है कि वो अपने हाथों से प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी की तस्वीर अपने हाथों से बनाकर खुद उन्हें भेंट करें। ‘वक्त की गर्दिशों का गम न करो, हौंसले मुश्किलों में पलते हैं’। कुमकुम की कला भले ही आज गुमनामी में भटक रही हो लेकिन उसे उम्मीद है कि बहुत जल्द वक्त की गर्दिशों से पर्दा उठेगा और उसकी कला की कद्र करने वाले उसकी दहलीज पर जरुर आएंगे।