देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत निस्संदेह उसकी बड़ी उपलब्धि है। इस लिहाज से भी कि इनमें से चार राज्यों में वह अपनी सरकारों की वापसी की चुनौती से जूझ रही थी और उसकी प्रतिष्ठा उसके प्रतिद्वंद्वियों से कहीं ज्यादा दांव पर थी। इस लिहाज से भी कि इन चुनावों को 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताया जा रहा था। और इस लिहाज से भी कि उसने प्रतिद्वंद्वी दलों को नतीजों में ही नहीं, मुद्दों, रणनीति, प्रबंधन और समीकरणों के चुनाव व मतप्रतिशत के मामलों में भी शिकस्त दी है।
उत्तर प्रदेश की बात करें तो उसकी सीटें घटी जरूर हैं, लेकिन बहुचर्चित योगी-मोदी अंतर्विरोध के कारण अपने अंदर मची उठापटक और बाहर नजर आती विभिन्न वर्गों की नाराजगी के बावजूद उसने पिछले कई विधानसभा चुनावों से चला आ रहा सत्तापरिवर्तन का सिलसिला तोड़कर अपनी धमाकेदार वापसी करा ली है-दर्पपूर्वक ‘आएंगे तो योगी ही’ कहते हुए, जिसके बाद उसके उत्साही नेता व कार्यकर्ता दावा कर रहे हैं कि वे तो पहले से ही कहते आ रहे थे कि बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और कोरोना कुप्रबंधन के कारण आम लोगों, खासकर किसानों व युवाओं में जिस असंतोष की बात पार्टी के विरोधी प्रचारित कर रहे थे, वह कहीं नहीं थी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम एकता की हवा तो गृहमंत्री अमित शाह ने जाट नेताओं के साथ अपनी बहुप्रचारित बैठक में ही निकाल दी थी।
यह और बात है कि प्रदेश के जनादेश के पीछे योगी सरकार की सराहनाएं कम समाजवादी पार्टी की सीमाएं ज्यादा हैं। भले ही चुनाव अभियान के दौरान सपा मुख्य विकल्प बनकर उभरी और भाजपा की बेदखली की इच्छुक शक्तियों की सदाशयता अर्जित की, जिससे उसे 2017 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले साफ बढ़त मिलती दिखी, उसके द्वारा अतीत में खुद बनाई गई अपनी सीमाओं के कारण ज्यादातर मतदाता उसके प्रति अपना मन साफ नहीं कर पाए और ढेर सारे असंतोषों के बावजूद भाजपा से जुड़े रह गए। अन्यथा नतीजे कुछ और होते। सपा ने यह समझने में भी गलती की कि चुनाव केवल कुछ तबकों की सदाशयता के बूते नहीं जमीनी हकीकतों को अपने पक्ष में करके जीते जाते हैं। फिर उसके मुकाबले भाजपा की दो बड़ी सुविधाएं थीं।
पहली: वह योगी सरकार से नाराज मतदाताओं को 2012 से 2017 के सपा के अखिलेश राज के ‘कहीं ज्यादा अंधेरे’ और ‘दंगाइयों, माफियाओं, परिवारवादियों, तमंचावादियों व दंगाइयों’ वाले दिनों की याद दिला दे। पूरे चुनाव अभियान के दौरान सपा उसकी इस सुविधा को असुविधा में नहीं बदल पाई और उसके समक्ष रक्षात्मक हो जाती रही।
गैरयादव पिछड़ी व अतिपिछड़ी और गैरजाटव दलित जातियों के जिन नेताओं ने भाजपा के साथ चार साढ़े चार साल तक सत्तासुख भोगने के बाद उसमें घुटन महसूस करके अथवा बसपा का कोई भविष्य न देखकर सपा की बांह गही, वे भी उसकी उम्मीदों को परवान नहीं चढ़ा सके। भले ही उनको जोड़ने के बाद सपा यह सोचकर अपने को अजेय मान बैठी थी कि अब उनकी जातियों के वे वोट बिना प्रयास उसकी झोली में आ गिरेंगे, नरेंद्र मोदी के उभार के बाद जिनका रुख भाजपा की ओर हो गया था।
सपा इन नेताओं के बूते अपनी उम्मीदें परवान न चढ़ने के अपने गम को यह कहकर भी गलत नहीं कर सकती कि भाजपा ने उनमें सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों की अलग श्रेणी बना ली और मुफ्त के राशन से उन्हें अपनी ओर कर लिया। क्योंकि प्रदेश की राजनीति में ‘मुफ्त’ की शुरुआत का श्रेय भी उसी को जाता है। 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने ही मुफ्त लैपटॉप का वायदा करके युवाओं को अपनी ओर किया था। इस चुनाव में भी उसने मुफ्त के भाजपा से कुछ कम वायदे नहीं किए।
साफ कहें तो सात दशकों के लोकतंत्र में नीति आधारित अलगाव को दरकिनार कर लगभग एक जैसे हो चले राजनीतिक दलों की मौका व मतलबपरस्ती के कारण आम मतदाता उस मोड़ पर जा पहुंचे हैं, जहां वे सत्तापरिवर्तन करके भी ठगे हुए से महसूस करते हैं और सरकारों को वापस लाकर भी। कई बार चुनावों में पाले खींचे जाने लगते हैं तो इन मतदाताओं को समझ में नहीं आता कि इधर जाएं या उधर जाएं। उनका यह असमंजस प्राय: सरकारों के पक्ष में जाता है, क्योंकि वे उनको कुछ तात्कालिक लाभ देकर समझा देती हैं। कुछ इस तरह कि महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से तो उन्हें सरकार बदलकर भी निजात नहीं ही मिलने वाली।
लेकिन बसपा व कांग्रेस को बख्श कर उप्र में भाजपा को न हरा पाने का सारा ठीकरा समाजवादी पार्टी पर ही फोड़ देना इस कहावत को ही सही सिद्ध करना होगा कि जीत के सौ माई-बाप होते हैं, लेकिन हार का कोई नहीं। लेकिन उसके सुप्रीमो अखिलेश यादव चुनावों से कुछ महीनों पूर्व तक, जब कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी कई जनमुद्दों को लेकर संघर्षरत थीं, काफी हद तक निष्क्रिय, निर्लिप्त और उदासीन से दिख रहे थे। यह वह वक्त था, जब उन्हें अपने कार्यकर्ताओं को मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण के दौरान नामों की कतरब्यौत में किए जाने वाले खेलों से आगाह करना और उन्हें रोकने में लगाना था। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और कई सीटों पर सपा के उम्मीदवारों ने इसका खामियाजा भुगता।
अखिलेश ठीक से तब मैदान में उतरे, जब योगी सरकार के प्रति फैली भाजपा विधायकों तक में फैली नाराजगी मुखर होने लगी और लगा कि सपा को उससे कुछ हासिल हो सकता है। ठीक है कि उन्होंने इससे पहले भी जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल और ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा समेत कई छोटे दलों से गठबंधन करके उन्होंने अपनी व अपनी पार्टी की अपील विस्तृत करने की कुछ कोशिशें की थीं, लेकिन विषम चुनावी मुकाबले में उनकी ये कोशिशें अपर्याप्त सिद्ध हुईं और उनकी पार्टी उनके नेतृत्व में लगातार चौथा चुनाव हार गई। वैसे ही जैसे 2017 के विधानसभा चुनाव में कांगे्रस से और 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा से गठबंधन करके भी वह नहीं जीत पाई थी।
शिकस्तों के इस सिलसिले का सबसे बड़ा सबक यही है कि इस से उस चुनाव तक की ही सोचते रहने से ही वह इसे नहीं तोड़ सकती। खासकर, जब उसका मुकाबला ऐसी पार्टी से है, जिसके सामने न सिर्फ मीडिया नतमस्तक हुआ रहता है, बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं भी अपनी साख दांव पर लगाने को तैयार रहती हैं। हां, प्रशंसा की जानी चाहिए कि भाजपा के सारे स्टार प्रचारकों के सामने अखिलेश दृढ़तापूर्वक अकेले खड़े रहे और एक पल को भी उनके ट्रैप में आते नहीं दिखे। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी ने एड़़ी-चोटी का जोर लगाकर उन्हें ‘अर्जुन’ भले ही नहीं बनने दिया, ‘अभिमन्यु’ नहीं ही बना पाई।