Thursday, June 19, 2025
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कमांडेंट कर्नल को उतार दिया था मौत के घाट

  • 10 मई 1857 को कुछ अंग्रेज मारे गए, कुछ छावनी से निकलने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाए
  • पहली क्रांति को कुचलने के लिए गोरों ने मां भारती के बेटों की लाशों से पाट दिए गांव और शहर

जनवाणी संवाददाता |

मेरठ: नौ मई 1857, यानि क्रांति दिवस की पूर्व संध्या उन सैनिकों के लिए बहुत बड़ी परीक्षा की घड़ी बनी, जो गोरों की सेना में नौकरी कर रहे थे। चर्बी वाले कारतूस चलाने से इंकार करने की सजा के तौर पर 85 भारतीय सैनिकों को पूरी चौकी के सामने सार्वजनिक रूप से अपमानित करते हुए उनकी वर्दी को फाड़ दिया गया।

इस मंजर को उस समय देखने वाले देशी रेजीमेंट के बाकी सिपाहियों ने अपमान के घूंट पिए, और उस समय खुद को बेबस महसूस करते हुए चले आए, लेकिन उनक दिलों में सुलगी अपमान की यह चिंगारी इतना विस्फोटक रूप ले लेगी, अंग्रेजों ने इसकी कल्पना तक नहीं की होगी।

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क्रांति दिवस यानि 10 मई 1857 को इन देशी रेजीमेंट के सिपाहियों ने जेल पर हमला करते हुए न केवल अपने कैदी सिपाहियों को आजाद कराया,बल्कि आर्डर देने का प्रयास कर रहे कमांडेंट कर्नल जॉन फिनिस को गोली मारकर मौत के घाट उतारते हुए क्रांति का बिगुल बजा दिया, जिसकी जद में अनगिनत अंग्रेज अफसर और सैनिक आकर अपनी जान से हाथ धोने के लिए मजबूर हो गए थे।

10 मई 1857 की क्रांति का मूल सारांश 23 अप्रैल की शाम को भारतीय सैनिकों को कारतूस मुंह से खोलकर बंदूक में भरने के आदेश, सैनिकों का ऐसा करने से इन्कार, उनको पकड़कर कोर्ट मार्शल करते हुए विक्टोरिया पार्क की अस्थायी जेल में बंद करने की घटना हुई। इसके बाद क्रांति दिवस की पूर्व संध्या पर नौ मई को कंपनी के अधिकारियों ने मेरठ की पूरी चौकी ब्रिटिश इन्फैंट्री परेड ग्राउंड में इकट्ठी करके 85 दोषी सिपाहियों (सोवारों) की सजा को पूरी चौकी के सामने अंजाम दिया गया।

उनके चारों ओर तीन मूल निवासी रेजिमेंट थे, जिन्हें विशेष रूप से नियमित गोला-बारूद के बिना लाया गया था। जबकि तीन ब्रिटिश रेजिमेंट सशस्त्र थे, उनके पास गोला-बारूद था और घुड़सवार सेना घुड़सवार थी। ब्रिटिश तोपखाने अपनी तोपें भी लाए। सजा का आदेश इकट्ठे सैनिकों को पढ़कर सुनाते हुए 85 सिपाहियों की वर्दी सार्वजनिक रूप से फाड़कर उनके शरीर से हटा दी गई। एक ओर ब्रिटिश अधिकारियों की सोच रही कि उन्होंने देशी सैनिकों को एक अच्छा सबक सिखाया गया है।

जिसको लेकर वहां मौजूद सभी गोरे अधिकारी और सैनिक अट्ठहास कर रहे थे। इस अपमान को देखने के लिए मजबूर देशी रेजीमेंटों के बाकी सिपाहियों ने अपमान और शर्मिंदगी महसूस करते हुए इस सब को झेला। इस मंजर को देखने के लिए विवश भारतीय सिपाहियों ने शेष दिन अपमान और अपराधबोध की भावनाओं के साथ गुजारा। उन्हें न केवल मेरठ के नागरिकों ने, बल्कि सदर बाजार की नगरवधुओं ने भी ताना मारते हुए भारतीय सिपाहियों पर चूड़ियां तक फेंकीं।

मेरठ के छावनी क्षेत्र में विद्रोह के बारे में मेरठ के जाने माने चिकित्सक और इतिहास में गहन रुचि रखने वाले डा. अमित पाठक अपने शोध के हवाले से बताते हैं कि इसके अगले दिन 10 मई को रविवार था। मेरठ छावनी के मूल निवासी के सिपाहियों के दिलों में एक ज्वालामुखी विस्फोट की स्थिति में पहुंच चुका था। सदर बाजार के लोगों ने उस समय बाजार में मौजूद प्रत्येक ब्रिटिश सैनिकों और अधिकारियों पर हमला कर दिया।

भारतीय पुलिसकर्मी सदर कोतवाली से नंगी तलवारें लेकर बाहर आए, इसी विद्रोह के साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम 1857 की शुरुआत हो गई। सैनिकों ने हथियारों की बेल्ट तोड़ दी और अपने हथियारों और गोला-बारूद पर नियंत्रण कर लिया, घुड़सवार सेना के सिपाहियों ने घोड़ों को ले लिया। घुड़सवार सिपाहियों के एक समूह ने विक्टोरिया पार्क में बनाई गई जेल को तोड़कर अपने 85 साथियों को कैद से आजाद कराया।

इस सारे हंगामे के दौरान 11वीं नेटिव इन्फैंट्री के कमांडेंट कर्नल जॉन फिनिस दो इन्फेंट्री रेजीमेंट के कॉमन परेड ग्राउंड में पहुंचे। लेकिन इस रेजिमेंट के सिपाहियों ने उनकी आज्ञाओं पर ध्यान नहीं दिया। इस रेजिमेंट के एक सिपाही ने उन्हें गोली मार दी और घोड़े से गिरकर उनकी मौके पर ही मौत हो गई। सिपाहियों ने अपने ब्रिटिश अधिकारियों पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं।

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वहीं बीच अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने का संकल्प कर चुके लोगों ने शहर और सदर बाजार के बीच स्थित झुग्गियों से भीड़ ने ब्रिटिश अधिकारियों के बंगलों पर हमला किया, जो छावनी के मूल आधे हिस्से में रह रहे थे। लूटपाट और आगजनी का यह सिलसिला लगभग आधी रात तक चला। इस बीच कई अंग्रेज अधिकारी और सैनिक मौत के घाट उतार दिए गए। दरअसल 1857 में, मेरठ कैंट में तीन भारतीय रेजिमेंट और तीन ब्रिटिश रेजिमेंट तैनात थे।

इनमें ब्रिटिश सैनिकों की कुल संख्या 1778 थी और भारतीय सिपाहियों की कुल संख्या 2234 थी। यानि मेरठ कैंट में देशी सिपाहियों का यूरोपीय सैनिकों से अनुपात अधिक ही रहा था। इसके बाद 11 मई की सुबह तक मेरठ छावनी और शहर में फिर से सब कुछ शांत हो गया था, हालांकि आसपास के गांवों में विद्रोह की आग की लपटें लगातार फैल रही थीं। 11 मई को ही मेरठ कैंट के पास सरधना तहसील पर आसपास के गांवों के लोगों ने हमला कर दिया था।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, गांव-गांव आजादी की घोषणा करते गए और कंपनी के अधिकारियों, सैनिकों और नागरिकों ने आने वाले कई दिनों तक अपने आधे मेरठ छावनी से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं की। यह मेरठ कैंट और शहर की अशांत और प्रमुख घटनाओं का अंत था, लेकिन विद्रोह की आग मेरठ के आसपास के पूरे ग्रामीण इलाकों में फैल गई,

जिसने देखते ही देखते एक बड़े भारतीय विद्रोह का निर्माण किया। इस विद्रोह को शांत करने के लिए ब्रिटिश सेना ने प्रतिशोध लेते हुए पूरे गांव नष्ट कर दिए गए, पूरे शहर वीरान कर दिए गए। हालांकि यह कभी नहीं पता चल पाया कि इस महान उथल-पुथल में मां भारती ने अपने कितने सपूतों के प्राणों की आहूति दी थी।

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