सुधांशु गुप्त |
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की वर्षों पहले लिखी एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं-
देश कागज पर बना/नक्शा नहीं होता/कि एक हिस्से के फट जाने पर/बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें/और नदियां, पर्वत, शहर, गांव/वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें/अनमने रहें।
लेकिन अगर देश का नक्शा ही नहीं, पूरा देश ही तितर बितर हो जाए, केवल उसका नाम ही शेष रह जाए, देश तब भी खत्म नहीं होता। वह जीवित रहता है, उन लाखों लोगों के भीतर जो अपने देश से शरणार्थी बन जाने के लिए मजबूर हुए। जिनकी स्मृतियों में देश आज भी जीवित है। छूट गए अपने देश की भयावह स्मृतियाँ उनका पीछा करती हैं। उन्हें पीछे छूट गए लोग, घर, सड़कें, पेड़, फूल, पक्षी, धरती, आकाश, समुद्र का किनारा, रंग, गंध सब याद आते रहते हैं। उन्हें यह भी याद आता है कि एक दिन उन्हें वापस अपने देश लौटना है। घर लौटने की उनकी जीजिविषा बेहद तीव्र है। वे अपनी कविताओं में, विचारों में और अन्य विधाओं में अपना देश बना लेते हैं। इतिहास बताता है कि पश्चिमी देशों की दुरभि संधियों के चलते इतिहास के सबसे क्रूर साढ़े सात दशक से ज्यादा जारी युद्ध और गैर कानूनी आधिपत्य ने फिलिस्तीन से बड़ी संख्या में जिन लोगों को विस्थापित किया उनमें से लाखों लोग दूसरे देशों में जाकर बस गए। बेशक उनके ऊपर उनके ऊपर जीवन भर शरणार्थी होने का ठप्पा लगा रहा लेकिन उन्होंने इस ठप्पे की परवाह न करते हुए अपने मुल्क, अपने घर वापस लौटने की जंग जारी रखी। दशकों बाद तमाम सुख सुविधाओं और अच्छे पेशों के बावजूद उनका फिलिस्तीन उनसे नहीं छूटता।
साहित्य और सिनेमा के अध्येता यादवेन्द्र की विश्व साहित्य के अनुवाद की सात किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। इस बार उन्होंने फिलिस्तीन से विस्थापित कवियों पर फोकस किया है। ‘घर लौटने का सपना-आज की फिलिस्तीनी कविता’ (नवारुण प्रकाशन) किताब को पढ़ते हुए यह लगा कि फिलिस्तीन (खासतौर पर गाजा) को दुनिया के नक्शे से मिटा देने के लिए बार बार इजराइल द्वारा छेड़ा गया युद्ध और फिलिस्तीनी भूमि पर अपनी अनधिकृत बस्तियाँ बसाने का सिलसिला दुनिया की आंखों में शूल सा गड़ता है। विस्थापन के स्थायी युद्धराग में जो चीज सबसे अनुकरणीय है वह है दुनिया भर में फैले फिलिस्तीनी युवाओं का अपनी भूमि से स्थायी जुड़ाव व्यक्त करने वाली साहित्यिक रचनाशीलता, जो मीडिया के मंचों पर निरंतर दिखाई देती है। यादवेन्द्र ने अंग्रेजी में लिखी या अनूदित कविताओं को विभिन्न किताबों, संचयनों, ब्लॉग और सोशल मीडिया से एकत्रित करके ये संकलन बनाया है।
संकलन की इन कविताओं को पढ़ते हुए लगा कि प्रतिरोध और क्रांति की भाषा क्या होनी चाहिए। प्रसिद्ध फिलिस्तीनी कवि रशीद हुसेन की एक कविता है:
क्रांति को जन्म लेने के लिए/चाहिए दो आंखें/राष्ट्र नहीं भी तो क्या हुआ/क्रांति जन्म लेती है/एक किसान बनकर/उसके खेत नहीं भी तो क्या हुआ।
देश न होने पर भी देश का रूपक महमूद दरवेश कविता में इस तरह गढ़ते हैं-
मैं अपनी मातृभाषा हूं/मैं अपनी मातृभाषा हूं/मैं उसके शब्द हूं/मैं उसका लेखन हूं/मैं वही हूं/मैं वही हूं…
कविताएं यहां युद्ध हैं, अपनी जमीन, अपने घर को पाने की इच्छा हैं और हिंसा और मृत्यु का भय हैं। फिलिस्तीन से निष्कासित माँ पिता की संतान इब्राहिम नसरुल्ला का जन्म जॉर्डन के एक शरणार्थी कैंप में हुआ। वे लेखक, कवि, कलाकार, फोटोग्राफर और पर्वतारोही हैं। 2018 में उन्हें अरबी बुकर पुरस्कार प्रदान किया गया। उनकी एक कविता है:
दिन/पहले दिन/मुझे लगा मेरा हाथ छू गया/एक ताबूत से/सो उन्होंने मुझे फूलों का सेहरा भेजा।
दूसरे दिन/मुझे महसूस हुआ जैसे छू गया कोई फूल/सो उन्होंने मेरे पास भेज दिया एक ताबूत।
तीसरे दिन मैं जोर से चिल्ला पड़ा:
मैं अभी जिंदा रहना चाहता हूं/सो उन्होंने मेरे पास भेज दिया/एक कातिल।
फिलिस्तीन से विस्थापित सभी विचारक और कवि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रहते हैं। ब्रिटेन, फ्रांस, लेबनान, आस्ट्रेलिया और कई अन्य देश। पेशे के लिहाज से भी ये सब अलग-अलग पेशों में हैं। लेकिन इनकी लिखी कविताएं और विचार बार-बार अपने देश की ओर देखते हैं। इनकी कविताओं में अपने छूटे हुए वतन की पीड़ा दिखाई देती और अपने घरों में वापस लौटने की अदम्य इच्छा। जीनाम अज्जम फिलिस्तीनी मूल की कवि, लेखक, संपादक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने अमेरिकी विश्वविद्यालय से अरबी साहित्य की पढ़ाई की। वह अमेरिका में फिलिस्तनी अधिकारों के लिए निरंतर काम करती हैं। अपने छूटे हुए वतन के बारे में उनका कहना है-
हुदूद, सरहद के लिए एक शब्द/उसके दिमाग के शब्दकोश में/घूमता रहता है हरदम/किसी छुपी हुई आवाज की तरह/यह गहरी तड़प सा।
यह तड़प अन्य कवियों में भी दिखाई देती है। 1979 में गैलीली के एक गांव में जन्मे कवि और सांस्कृतिक हथियारों से फिलिस्तीनी अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले मरवान मखौल अपनी एक कविता ब्याह में लिखते हैं-
मेरे देश के साथ/बलात्कार किया गया है/फिर भी मैं/ब्याह करूंगा उसी के साथ।
इन सभी फिलिस्तीनी कवियों की कविता के सुर एक से ही लगते हैं। 1948 में इजराइल बनने के बाद जान बचाकर सीरिया भाग आने वाले शरणार्थी परिवार में जन्मी सारा अबु राशेद अपनी एक कविता में कहती हैं-युद्ध मेरे लिए/ स्मृतियों का क्रमिक नाश है/ मेरे लिए लिखना इसलिए है/ ताकि भूल जाना संभव हो सके/ देश से निवार्सन/ एक बिलखती बूढ़ी स्त्री है/ अब उसको अपना नाम तक याद नहीं/ मेरे लिए लिखना इसलिए है/ ताकि उसे भूला हुआ नाम याद दिला सकूं।
फिलिस्तीनी कविता का यह सामूहिक स्वर यह बताता है कि अपनी जड़ों से दूर ये कितना अकेलापन महसूस करते हैं और किस तरह मृत्यु इन्हें डराती भी है और इजराइल का विरोध करने का हौसला भी देती है। 1991 में जन्मी युवा फिलिस्तीनी कवि, लेखक और शिक्षक रहीं हिबा अबु नादा को गाजा हवा हमले के दौरान 20अक्तूबर 2023 को मारी गईं। गाजा के विश्वविद्यालय में उन्होंने विज्ञान की पढ़ाई की और उनकी जीवन फिलिस्तीनी मुक्ति के प्रयत्नों को समर्पित रहा। मृत्यु से पूर्व लिखी उनकी पंक्तियां इस प्रकार हैं-
गाजा की रात घुप्प अंधेरी है/सिवा रॉकेट की चमक के/
एकदम सन्नाटे में डूबी हुई है/सिवा बम धमाको के/बहुत डरावनी है/सिवा प्रार्थना की सांत्वना के/गाजा की रात गहरी काली है/सिवा शहीदों की दमक के/आज की रात अलविदा, गाजा।
घर लौटने का सपना दरअसल पीढ़ी दर पीढ़ी घर को न भूलने और वापस लौटने के सपने के साथ जीते रहने की जिद का कविताई पक्ष है-एक जरूरी पक्ष। यह कविता संकलन यह भी बताता है कि देश नक्शे में न होने के बावजूद रहता है-स्मृतियों में, कविताओं में, विचारों में।