यह समय ऐसे दृश्यों का सृजन कर रहा है, जिनके बारे में किसी को भी संशय हो सकता है कि यह एक ही देश और काल में रचे गए हैं। संपूर्ण देश में कोविड-19 की दूसरी लहर का निर्मम प्रसार इंसानी जिंदगियों को लील रहा है। सर्वत्र भय है, अफरातफरी है, अव्यवस्था है, जलती चिताएं हैं, अंतिम संस्कार के लिए अपने आत्मीय जनों की पार्थिव देह के साथ परिजनों की अंतहीन सी प्रतीक्षा है, रुदन और क्रंदन के स्वर हैं। किंतु दृश्य और भी हैं। इस पूरे घटनाक्रम से व्यथित, चिंतित और आहत होकर इसे नियंत्रित करने का उत्तरदायित्व जिस नेता पर है, वे चुनावी सभाओं में व्यस्त हैं। उनके मंत्रिपरिषद के अनेक सदस्य यथा गृह मंत्री आदि भी चुनावों के अहम रणनीतिकार और स्टार प्रचारक हैं और जब देश की जनता में हाहाकार मचा हुआ है तब हम इन्हें चुनावी युद्ध में संलग्न पाते हैं। इस नेता का प्रभाव कुछ ऐसा है कि इसे आदर्श मानने वाले नेताओं की एक पूरी पीढ़ी सत्तापक्ष और विपक्ष में तैयार हो रही है। इन नेताओं की भी कुछ वैसी ही विशेषताएं हैं- ये आत्ममुग्ध हैं, बड़बोले हैं, असत्य भाषण में सिद्धहस्त हैं, (मिथ्या) प्रचार प्रिय हैं, आलोचना के प्रति असहिष्णु हैं, भाषा के संस्कार से इनका कोई लेना देना नहीं हैं और इनका ईश्वर भी कुर्सी ही है।
कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी इस कठिन समय में असम और केरल जैसे राज्यों की चुनावी सभाओं में वैसे ही स्तरहीन चुनाव प्रचार में व्यस्त रहे हैं। इनके अपने राज्यों में हाहाकार मचा हुआ है। किंतु शहरों के होर्डिंग और अखबार उन विज्ञापनों और प्रायोजित समाचारों से पटे हुए हैं जिनमें इन राज्यों को टेस्टिंग, ट्रेसिंग, आइसोलेशन और वैक्सीनेशन में शिखर पर बताया गया है और रेमडेसेविर, आॅक्सीजन बेड एवं आईसीयू बेड की पर्याप्त उपलब्धता के दावे किए गए हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी महाराष्ट्र सरकार और उसके मुख्यमंत्री की पहली चिंता सत्ता में बने रहना है। शायद इसका खामियाजा महाराष्ट्र की जनता को उठाना पड़ रहा है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पांच राज्यों के चुनावों के स्टार प्रचारक हैं, निश्चित ही उनकी व्यस्तता आजकल इतनी अधिक होगी कि धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने और अपनी अवास्तविक उपलब्धियों को प्रचारित करने वाली फिल्मों के लिए समय निकालने में भी उन्हें कठिनाई होती होगी। इन नेताओं की चुनावी सभाओं में भारी भीड़ है। प्रधानमंत्री समेत सत्ता पक्ष और विपक्ष के सारे मंचासीन नेता जब बिना मास्क के सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ा रहे हों तब जनता से इन सावधानियों की अपेक्षा करना व्यर्थ है। लोग इलाज के लिए दर-दर भटक रहे हैं, मौतों की संख्या रोज डरा रही है, शव का अंतिम संस्कार तक कठिन हो गया है किंतु केंद्र तथा राज्य आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में व्यस्त हैं। वैक्सीन की आपूर्ति में भेदभाव की शिकायत गैर भाजपा शासित राज्यों की है तो इन राज्यों पर वैक्सीनेशन में लापरवाही का आरोप केंद्र सरकार का प्रत्युत्तर है।
यदि हम किसी नाटक के दर्शक होते तो इन विराट दृश्य बंधों की विपरीतता हमें रोमांचित कर सकती थी किंतु दुर्भाग्य से यह दृश्य हमारे जीवन का हिस्सा हैं। क्या हमें भी उन टीवी चैनलों सा संवेदनहीन हो जाना चाहिए जो जलती चिताओं के दृश्य दिखाते-दिखाते अचानक रोमांच से चीख उठते हैं- प्रधानमंत्री की चुनावी सभा शुरू हो चुकी है, आइए सीधे बंगाल चलते हैं। क्या हमें उन नेताओं की तरह बन जाना चाहिए जो कोविड समीक्षा बैठक में ‘दवाई भी और कड़ाई भी’ का संदेश देने के बाद सोशल डिस्टेंसिंग का मखौल बनाती विशाल रैलियों में बिना मास्क के अपने चेहरे की भाव भंगिमाओं का प्रदर्शन करते नजर आते हैं। सौभाग्य से हमारे अंदर भावनाओं को आॅन-आॅफ करने वाला यह घातक बटन नहीं है। जो विमर्श कोविड-19 से जुड़ी बुनियादी रणनीतियों पर केंद्रित होना चाहिए था वह राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के कारण बाधित हो रहा है। तार्किक और वैज्ञानिक विमर्श से वर्तमान सरकार का पुराना बैर है। देश के वैज्ञानिकों की योग्यता पर सवाल उठाना देशद्रोह है- जैसी अभिव्यक्तियां पुन: सुनाई देने लगी हैं।
प्रधानमंत्री ने पहली लहर के दौरान हमारे देश में संक्रमण एवं जन हानि कम होने की परिघटना के वैज्ञानिक कारणों के अन्वेषण के स्थान पर अपनी पीठ खुद थपथपानी प्रारंभ कर दी और इसी बहाने लाखों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी अविचारित लॉक डाउन को भी न्यायोचित ठहराने की कोशिश की।
कोविड 19 के लिए वैक्सीन तैयार करने की प्रक्रिया विश्व स्तर पर बहुत जल्दी में पूरी की गई और स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिकों को उतना समय नहीं मिल पाया जितना उन्हें अन्य वैक्सीन्स को निर्दोष और हानिरहित बनाने के लिए मिलता है। हमारे देश में कोवैक्सीन को तृतीय चरण के ट्रायल के डाटा आने के पहले ही जनता के लिए स्वीकृति दे दी गई थी। एस्ट्राजेनेका की कोरोना वैक्सीन से ब्लड क्लॉटिंग के खतरे की खबरों के बाद पहले यूरोपियन यूनियन के तीन सबसे बड़े देशों- जर्मनी, फ्रांस और इटली ने एस्ट्राजेनेका की कोविड वैक्सीन का रोलआउट रोक दिया। इसके बाद स्पेन, पुर्तगाल, लतविया, बुल्गारिया, नीदरलैंड्स, स्लोवेनिया, लग्जमबर्ग, नॉर्वे तथा आयरलैंड और इंडोनेशिया ने भी इसके टीकाकरण पर रोक लगा दी। इन देशों में टीकाकरण के बाद ब्लड क्लोटिंग के मामले नगण्य हैं किंतु बावजूद डब्लूएचओ के इस वैक्सीन को सुरक्षित बताने के इन्होंने अपने नागरिकों की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए इसके उपयोग पर रोक लगाई।
हमारे देश में भी वैक्सीनेशन के बाद लोगों की मौतों के मामले सामने आए हैं। कई लोग वैक्सीन की दोनों खुराक लगने के बाद भी संक्रमित हुए हैं। सरकार का कहना है कि मौतों के लिए वैक्सीन को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता और वैक्सीन लगने के बाद कोविड संक्रमण होना अपवाद है, यदि संक्रमण हुआ भी है तो उसका प्रभाव प्राणघातक नहीं है।
हमारी सरकार द्वारा कराई गई 13164 नमूनों की जीनोम सिक्वेंसिंग से ज्ञात हुआ है कि संक्रमित आबादी के 10 प्रतिशत में डबल म्युटेंट वायरस देखा गया है। जबकि 8.77 प्रतिशत संक्रमित आबादी में कोविड-19 के ब्रिटिश, साउथ अफ्रीकन तथा ब्राजीलियन वैरिएंट देखे गए हैं। ऐसी दशा में क्या मौजूदा वैक्सीन्स एवं वैक्सीनेशन कार्यक्रम स्थिति को नियंत्रित कर सकेगा, यह शोध और अन्वेषण का विषय है। द लैंसेट में प्रकाशित कुछ शोध पत्रों के अनुसार कोविड-19 वायरस प्राथमिक रूप से एयर बोर्न है और हमें अपने सेफ्टी प्रोटोकॉल में व्यापक परिवर्तन करना होगा। यदि यह रिपोर्ट सही है तो अब तक संक्रमण से बचने के लिए अपनाई गई सावधानियों का स्वरूप एकदम बदल जाएगा। इस विषय पर भी चर्चा होनी चाहिए।