कृष्ण प्रताप सिंह |
वैशाली के एक कवि हैं प्रणय कुमार। उनकी एक कविता मुझे बहुत अच्छी लगती है-‘चंद्रनाथ की स्मृति में’। प्रणय के ही शब्दों में कहें तो इस कविता में ‘उत्तर आधुनिक युग की कथा है/जब पूरी दुनिया से साम्यवाद विदा हो रहा था’ और ‘आदमी अप्रासंगिक होता जा रहा था’। ऐसे कठिन समय में ‘आदमी गढ़ने का गुरुतर भार उठाए चंद्रनाथ’ एक सुबह ‘सड़क किनारे नाले में मरे पाए गए’ तो ‘एक बात लोगों को समझ में नहीं आयी/कि उस पढे़-लिखे आदमी ने मरने के लिए/गंदा नाला ही क्यों चुना?’
अयोध्या की अपनी राममड़इया में बैठकर मैं जब भी यह कविता पढ़ता हूं, और बिना पढ़े नहीं रहा जाता तो पढ़ता ही हूं, मेरा मनोविज्ञान गड़बड़ा जाता है। फिर तो कभी कोशल व वैशाली गणराज्यों के पुराने रिश्तों पर सोचने और कभी सीता माता को याद करने लग जाता हूं। कभी यह कि कैसे कोशल की राजधानी अयोध्या सिर्फ राम की होकर रह गयी, सीता की रंचमात्र भी नहीं हो पायी और कभी यह कि क्यों जनकपुर की कन्याएं अब अयोध्या में नहीं ब्याही जातीं ? लेकिन बार-बार अपने सिर के बाल नोंचकर भी समझ नहीं पाता कि चंद्रनाथ जैसे पढ़े-लिखे आदमी ने अपने मरने के लिए सड़क किनारे का गंदा नाला चुन भी लिया था तो मुझ पर ऐसी कौन-सी आफत आयी हुई थी कि मैंने अपने जीने-मरने दोनों के लिए इस राम की अयोध्या को चुन लिया और जैसे इतना ही काफी न हो, उसे इससे भी आगे जाकर ‘सब कुछ सहने’ की जगह भी बन जाने दिया?
क्यों नहीं इस अंदेशे की गम्भीरता को समय रहते महसूस कर लिया कि जिस अयोध्या में जानें कहां-कहां से अपनी-अपनी जिंदगियों से तरह तरह से थके-हारे अनेकानेक लोग विषय-वासनाओं से मुक्ति की लालसा लिए चले आते हैं, उसमें रहकर अपनी ‘अजीबोगरीब’ वासनाओं की तृप्ति की ‘माया’ फैलाना और ‘जीवन से मोक्ष’ की चाह लेकर वहां आए लोगों को ‘मोक्ष से जीवन’ की ओर घुमाने का ‘द्रविड़ प्राणायाम’ करना कितना दुष्कर होगा? कोलकाता से पढ़-लिखकर अयोध्या आ बसे उर्दू के वयोवृद्ध कथाकार गुलाम मोहम्मद ने तो साफ-साफ मना भी किया था। समझाया था कि जिसे भी सच्चे मनुष्य का जीवन जीना हो, उसे सारे के सारे धर्मस्थलों व धर्मनगरियों से दूरी बनाकर रहना चाहिए। यह दूरी कम से कम इतनी तो होनी ही चाहिए कि एक बार ‘ऊपर वाले को याद करने का काम’ निपट जाए तो अगली याद से पहले वहां जाना न हो! देवताओं के ‘बहुत नजदीक’ न जाने की परम्परा से चली आती मनाही भी याद थी! फिर भी?
कहीं से कोई उत्तर नहीं मिलता, न अंदर से और न ही बाहर से, तो लगता है कि मनोविज्ञान मेरा ही नहीं और भी बहुत से लोगों का गड़बड़ाया हुआ है, कमोवेश समूची अयोध्या का! ताज्जुब कि इस गड़बड़ाए हुए मनोविज्ञान पर अब किसी को कोई ताज्जुब नहीं होता! दिवंगत शलभ श्रीराम सिंह, युयुत्सावाद के प्रवर्तक हिंदी कवि, कहते थे कि ताज्जुब तो तब होता जब अयोध्या में खेले गये ढेर सारे खेलों के बावजूद यह मनोविज्ञान बिगड़ने से बच जाता और पीछे छूटे जा रहे सपने अपने आगे-आगे चल रही चिंताओं की छाती पर चढ़कर उनसे पुराना हिसाब-किताब निपटा लेते! पूछा था उन्होंने भी कि जब कोशल में रात गहराती जा रही है, तुम खुद को अंधेरे के जाये तमाम निरर्थक उद्वेलनों और धर्म व राजनीति की चक्कियों में निदोर्षों की पिसाई के भयावह शोर में गुम करने पर क्यों तुले हो?
लेकिन क्या करूं, बिगड़ा मनोविज्ञान भी भूलने की इजाजत नहीं देता कि तब यह सीख, कि दीये की सबसे ज्यादा जरूरत वहीं होती है, जहां अंधेरा सबसे घना हो, भारी पड़ी थी। लेकिन आज जब अनवरत लुटती-पिटती अयोध्या ‘वहीं’ भव्य मन्दिर निर्माण की ‘साक्षी’ बन रही है, न इसमें कोई राम नजर आता है, न अश्वघोष और दीपावली इस कदर सरकारी हो चली है कि उसकी कोई सुबह ही नजर नहीं आती तो सबसे ज्यदा खीझ इस बात को लेकर होती है कि दीये की तरह निरंतर जलना लगभग असम्भव हो चला है और सीली हुई तीलियों का साजिशन सब-कुछ जलाना देखने की मजबूरी ही जीवन बन गई है!
आगे कौन-कौन से गुल खिलायेगी यह मजबूरी और इसकी कोख से और क्या-क्या निकलेगा? एक दिन यों ही सोचने लगा तो जवाब अयोध्या के अल्पसंख्यक नेता खालिक अहमद खां के पास से आया। उन्होंने बताया कि 1992 में भी हम सबका ऐसी ही मजबूरी से सामना हुआ था। अलबत्ता, उसका सबसे ज्यादा कहर अल्पसंख्यक समुदाय पर टूटा था। 6 दिसम्बर को उसके कई सौ घर व दुकानें फूक दी गई थीं और डेढ़ दर्जन लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। इस समुदाय के लिए इससे ज्यादा खराब कुछ हो ही नहीं सकता था। लेकिन अपनी उत्कट जिजीविषा के चलते वह फिर उठ खड़ा हुआ। जल्दी ही उसके कच्चे, फूस व खपरैल और टाट के पर्दे वाले घर पक्के हो गये और उनमें लकड़ी के बजाय लोहे के दरवाजे लग गये।
कैसे संभव हुआ यह सब? समुदाय की आय के साधन तो महज रामनामी बुनना-छापना, खड़ाऊं बनाना, कपड़े सिलना, इक्के या टेम्पो चलाना, फूलों की खेती करना और मन्दिरों के लिए फूल मालाएं तैयार करना भर थे त्रअभी भी वही हैंत्न और पीड़ितों को मिली सरकारी मुआवजे की राशि भी बहुत नहीं थी।
खालिक ने बताया-यह चमत्कार जीवन के प्रति समृदाय के सकारात्मक सोच ने किया। इस सोच से ही उसके लोग यह सिद्ध कर पाये कि मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है! घृणा की सारी राजनीति के बावजूद उन्होंने आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से खुद को मजबूत किया। और हां, यह सब आईएसआई के पैसे से नहीं सम्भव हुआ, जैसा कि घृणा के पैरोकार कहते हैं।
तो क्या इसका अर्थ यह समझा जाये कि सरकारों द्वारा प्रायोजित आज की सारी चमक-दमक और विकास के बावजूद अयोध्या की त्रासदियों का सबसे बड़ा शिकार उसका वह समुदाय ही हुआ है, जिसके धर्म का नाम ले लेकर प्राय: आसमान सिर पर उठाया जाता रहा है?
खालिक का जवाब था-हां, यह पूरी तरह सच है और इस सिलसिले में एक दृष्टिकोण यह भी है कि अल्पसंख्यकों का जीवनस्तर थोड़ा बेहतर इसलिए हुआ है क्योंकि उनके सामने अपनी जिन्दगी को नये सिरे से परिभाषित करने की चुनौती थी। इस चुनौती सें निपटने में उनके वे कामधंधे सहयोगी सिद्ध हुए, जो आमतौर पर आमलोगों की ऐसी जरूरतें पूरी करने से जुड़े रहे हैं, जिनमें कभी किसी भी तरह की कटौती सम्म्भव नहीं। इसके विपरीत अयोध्या के संत-महन्त और गृहस्थ तक ज्यादातर श्रद्धालुओं से होने वाली आय पर ही निर्भर करते हैं, जो इस दौर के बेवजह के हड़बोंगों से ऊपर-नीचे होती रही है। 1986 से 1992 तक अयोध्या जैसी अव्यवस्था की साक्षी बनी, उसने नगरी के रामकोट के सबसे समृद्ध इलाके के दर्जनों मन्दिरों का वैभव ही खत्म कर डाला।
कहना जरूरी है कि आज की अयोध्या में बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के समक्ष आत्मसमर्पण और उसका प्रतिरोध न कर पाने की असहायता बढ़ती जा रही है। आम लोगों के बीच का वह स्वाभाविक सौहार्द भी, जो आत्मीय रिश्तोें तक जाता था, अब औपचारिक हो चला है। पहले कहा जाता था कि हिन्दू-मुसलमानों के बर्तन अलग हैं पर दिल एक है। अब बर्तन तो ज्यादा अलग नहीं रहे पर दिल ज्यादा दूर होते लगते हैं। इस नगरी के सपने इसलिए भी पीछे छूट रहे हैं कि गश खाते-खाते वह यह समझने में नाकाम हो गई है कि उसके सपने क्या हों? देश के लिए क्या हों और अपने लिए क्या?
भरपूर राजनीतिक व धार्मिक धूर्तताओें के बीच एकमात्र हिन्दुत्व की केंद्र होना उसे रास नहीं आता और उसके बहुधर्मी रूप के दुश्मन थकने को नहीं आ रहे। अपनी धरती पर आने वाले श्रद्धालुओं को वैशाली के ही एक कवि के शब्दों में यह ‘बताने’ और ‘ठगने’ की विडम्बना से वह फिर भी मुक्त नहीं हो पाती कि -हां, यहीं रहता था/ वह बाबा/ जिसने अपनी किशोरावस्था में/गुरु से ब्रह्मचर्य का उपदेश सुनकर/खुरपी से अपना शिश्न काट कर/फेंक दिया था।/हां, यहीं रहता था /वह बाबा, जिसकी वृद्धावस्था में/ उच्छिन्न शिश्न का प्रदर्शन/ उसके जीविकोपार्जन का/ एकमात्र साधन रह गया था।
नंदकिशोर नवल अपनी इस कविता के अंत में पूछते हैं-यह जीव पर ब्रह्म की विजय है या ब्रह्म पर जीव की? लेकिन मेरे पास उन्हें देने के लिए कोई जवाब नहीं है। आपके पास है क्या? नहीं? तो आप ही बताइये, मैं अपने कोशल की इस लम्बी होती जा रही रात का क्या करूं? कैसे सहूं इसे?