Sunday, June 15, 2025
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फैलती जा रही है भ्रष्टाचार की विषबेल

NAZARIYA 3


SHAILENDRA CHAUHAN 1वर्ष की शुरुआत में ट्रांस्पेरेन्सी इंटरनेशनल द्वारा जारी करप्शन पर्सेप्शन्स इंडेक्स- 2020 में भारत को 180 देशों की सूची में 86वें पायदान पर रखा गया है। गौरतलब है कि हर साल दुनिया भर में भ्रष्टाचार की स्थिति को बताने वाला यह इंडेक्स ट्रांस्पेरेन्सी इंटरनेशनल द्वारा जारी किया जाता है। इस इंडेक्स में भारत को कुल 40 अंक दिए गए हैं। वहीं 2019 के लिए जारी इंडेक्स को देखें तो उसमें भारत को 41 अंकों के साथ 80वें पायदान पर रखा था। जो दिखाता है कि देश में भ्रष्टाचार की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है। यदि अन्य दक्षिण एशियाई देशों की बात करें तो भूटान की स्थिति सबसे ज्यादा बेहतर है, वो 68 अंकों के साथ 24वें स्थान पर है। इसके बाद मालदीव का नंबर है जो 43 अंकों के साथ 75वें स्थान पर है। इसके बाद भारत (86), श्रीलंका (94), नेपाल (117), पाकिस्तान (124) और फिर बांग्लादेश (146) का नंबर आता है जो कि दक्षिण एशिया का सबसे भ्रष्ट देश है।

भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा- ये कहना था स्विस बैंक के पूर्व डाइरेक्टर का। हाल ही में स्विट्जरलैंड के केंद्रीय बैंक ने वार्षिक डाटा जारी किया है जिसमें बताया गया कि साल 2020 में स्विस बैंकों में भारतीयों का पैसा बढ़कर 20700 करोड़ रुपए जमा हुआ है। जो पिछले 13 सालों में सबसे अधिक है। कोरोना के समय अमीरों के यहां मूसलाधार धन वर्षा हुई। जरा सोचिये…हमारे भ्रष्ट राजनेताओं, चंद उद्योगपतियों और नौकरशाहों ने देश को कैसे लूटा है। और ये लूट का सिलसिला अभी 2021 तक जारी है। भारत में राजनीतिक एवं नौकरशाही का भ्रष्टाचार बहुत ही व्यापक है।

निजी क्षेत्र को दिए गए ठेकों और लाइसेंसों के बदले लिया गया कमीशन, हथियारों की खरीद-बिक्री में लिया गया कमीशन, फजीर्वाड़े और अन्य आर्थिक अपराधों द्वारा जमा की गयी रकम, टैक्स-चोरी में मदद और प्रोत्साहन से हासिल की गयी रकम, राजनीतिक रुतबे का इस्तेमाल करके धन की उगाही, सरकारी प्रभाव का इस्तेमाल करके किसी कम्पनी को लाभ पहुँचाने और उसके बदले रकम वसूलने और फायदे वाली नियुक्तियों के बदले वरिष्ठ नौकरशाहों और नेताओं द्वारा वसूले जाने वाले अवैध धन जैसी गतिविधियां पहली श्रेणी में आती हैं। दूसरी श्रेणी में चुनाव लड़ने के लिए पार्टी-फंड के नाम पर उगाही जाने वाली रकमें, वोटरों को खरीदने की कार्रवाई, बहुमत प्राप्त करने के लिए विधायकों और सांसदों को खरीदने में खर्च किया जाने वाला धन, संसद-अदालतों, सरकारी संस्थाओं, नागर समाज की संस्थाओं और मीडिया से अपने पक्ष में फैसले लेने या उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए खर्च किए जाने वाले संसाधन और सरकारी संसाधनों के आवंटन में किया जाने वाला पक्षपात आता है। राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार को समझने के लिए जरूरी है कि इन दोनों श्रेणियों के अलावा एक और विभेदीकरण किया जाए। यह है शीर्ष पदों पर होने वाला बड़ा भ्रष्टाचार और निचले मुकामों पर होने वाला छोटा-मोटा भ्रष्टाचार।

पिछले चालीस-पैंतालीस वर्षों से भारतीय लोकतंत्र में राज्य सरकारों के स्तर पर सत्तारूढ़ निजाम द्वारा अगला चुनाव लड़ने के लिए नौकरशाही के जरिये नियोजित उगाही करने की प्रौद्योगिकी लगभग स्थापित हो चुकी है। इस प्रक्रिया ने क्लेप्टोक्रैसी और सुविधा शुल्क के बीच का फर्क काफी हद तक कम कर दिया है। भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में चुनाव लड़ने और उसमें जीतने-हारने की प्रक्रिया अवैध धन के इस्तेमाल और उसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार का प्रमुख स्रोत बनी हुई है।

यह समस्या अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण के दिनों में भी थी, लेकिन बाजारोन्मुख व्यवस्था के जमाने में इसने पहले से कहीं ज्यादा भीषण रूप ग्रहण कर लिया है। एक तरफ चुनावों की संख्या और बारम्बारता बढ़ रही है, दूसरी तरफ राजनेताओं को चुनाव लड़ने और पार्टियां चलाने के लिए धन की जरूरत। नौकरशाही का इस्तेमाल करके धन उगाहने के साथ-साथ राजनीतिक दल निजी स्रोतों से बड़े पैमाने पर खुफिया अनुदान प्राप्त करते हैं। यह काला धन होता है। बदले में नेतागण उन्हीं आर्थिक हितों की सेवा करने का वचन देते हैं।

निजी पूंजी न केवल उन नेताओं और राजनीतिक पार्टियों की आर्थिक मदद करती है जिनके सत्ता में आने की संभावना है, बल्कि वह चालाकी से हाशिये पर पड़ी राजनीतिक ताकतों को भी पटाये रखना चाहती है ताकि मौका आने पर उनका इस्तेमाल कर सके। राजनीतिक भ्रष्टाचार के इस पहलू का एक इससे भी ज्यादा अंधेरा पक्ष है। एक तरफ संगठित अपराध जगत द्वारा चुनाव प्रक्रिया में धन का निवेश और दूसरी तरफ स्वयं माफिया सरदारों द्वारा पार्टियों के उम्मीदवार बन कर चुनाव जीतने की कोशिश करना। इस पहलू को राजनीति के अपराधीकरण के रूप में भी देखा जाता है।

एक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व (जैसे अमेरिकी चुनावी प्रणाली), दूसरी- फर्स्ट-पास्ट-दि-पोस्ट (जैसे भारतीय चुनावी प्रणाली) के मुकाबले राजनीतिक भ्रष्टाचार के अंदेशों से ज्यादा ग्रस्त होता है। इसके पीछे तर्क दिया गया कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से सांसद या विधायक चुनने वाली प्रणाली बहुत अधिक ताकतवर राजनीतिक दलों को प्रोत्साहन देती है। इन पार्टियों के नेता राष्ट्रपति के साथ, जिसके पास इस तरह की प्रणालियों में काफी कार्यकारी अधिकार होते हैं, भ्रष्ट किस्म की सौदेबाजियां कर सकते हैं। चुनावों के बाद नेताओं की संपत्ति बुलेट ट्रेन की रफ्तार से बढ़ने लगती है। वे लखपती से अरबपति तक हो जाते हैं। जाहिर है नेतागीरी अंधाधुंध पैसे का व्यवसाय है।


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