देश में कोरोना के संक्रमण के डेढ़ साल बाद सामाजिक आर्थिक संकटों पर बात करने चलें तो वरिष्ठ कवि प्रकाश चन्द्रायन की हाल ही में प्रकाशित कविता ‘शकुबाई का सफाईनामा’ याद आती है। इस कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं : कोरोना-कोरोना तो ठीक भजे हो/पन, गरीबी सबसे बड़ी महामारी है जिसका विषाणु अमीरी है/महामारियां आती हैं भूखी अमीरी की तरह जाना तय नहीं/विषाणु-कीटाणु भी अमीरी के कारोबार हैं क्या यह सूत्र नहीं?
ये पंक्तियां कहती हैं : देश की व्यवस्था द्वारा पिछले साल से ही जारी कोरोना-कोरोना के जाप के बीच कई ऐसे संकटों को नेपथ्य में डालकर लगभग अदृश्य कर दिया गया है, जो कोरोना से कहीं ज्यादा त्रासद हैं और जिनसे मुठभेड़ का स्थगन हमारे निकटवर्ती और दूरगामी दोनों भविष्यों को गहरे अंधेरे के हवाले कर सकता है। इसकी एक बहुप्रचारित मिसाल कोरोना से जानें गंवाने वालों की आधिकारिक और वास्तविक संख्याओं में फर्क को लेकर कई स्तरों पर चल रहा विमर्श भी है।
ये पंक्तियां लिखने तक जानें गंवाने वालों की आधिकारिक संख्या चार लाख के पार पहुंच गई है, जबकि व्यापक तौर पर माना जा रहा है कि उनकी वास्तविक संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। लेकिन विडम्बना देखिये कि वे हादसे इनमें से किसी भी पक्ष के पैरोकारों की चिंताओं में शामिल नहीं हैं, जो कोरोना के अप्रत्यक्ष प्रभावों के कारण आत्महत्या, अवसाद, परिवारों के बिखराव अथवा अचानक आ घहराये सामाजिक आर्थिक संकटों के रूप में घटित हुए हैं।
इन हादसों से हमें छोड़ जाने को अभिशप्त हुए लोगों की कोई आधिकारिक या अनधिकारिक गिनती फिलहाल कहीं उपलब्ध नहीं है। यहां तक कि जिन परिवारों ने अपने जीविका अर्जित करने वाले सदस्यों को खो दिया, वे उसके बाद की स्थिति का किस तरह सामना कर रहे हैं, यह बात भी न आंकड़ों में सब कुछ चंगा-सी दर्शाने वाली सरकारों को मालूम है, न निर्मम व संवेदनहीन समाज को। यह तब है, जब इन संकटग्रस्तों में से अनेक ऐसे हैं जिनके पास अपने ही संकटों को सबसे बड़ा करके दिखाने और उनके समाधान को सर्वथा अपरिहार्य करार देने की मध्य व उच्च वर्गों की प्रवृत्ति के विपरीत इतनी-भी शक्ति नहीं बची है कि किसी सहायता के लिए गुहार लगा सकें। फलस्वरूप चुपचाप अपने दुरूखों को झेलते जाना उनकी नियति बना हुआ है। अकारण नहीं कि निराशाजनित आत्महत्याओं के आंकड़े भी बढ़ गए हैं।
कह नहीं सकते कि भारत में ऐसे लोगों की स्थिति पर कोई अध्ययन किया गया है या नहीं, लेकिन समृद्धि का स्वर्ग माने जाने वाले अमेरिका में पिछले दिनों हुए एक अध्ययन के अनुसार कोरोना की महामारी अकेली नहीं आई है-उस कहावत के अनुसार कि मुसीबत कभी अकेली नहीं आती-वह अपने साथ निराशा की महामारी भी लाई है। कैलिफोर्निया स्थित वेल बीर्इंग ट्रस्ट के अध्ययन के अनुसार कोरोनाकाल में निराशा के कारण बेतहाशा शराब पीने और नशीली दवाओं के सेवन से मौतों की समस्या विकराल हो गई है।
ट्रस्ट के अध्ययन में कहा गया है कि ऐसे समाधान नहीं ढूंढ़े जा सके, जो निराश लोगों के अलगाव, दर्द और पीड़ा को ठीक करने में मददगार हों, तो कोरोना का सामूहिक प्रभाव और भी विनाशकारी होगा, क्योंकि निराशा से होने वाली असामान्य मौतों के तीन कारण पहले से ही सक्रिय हैं-अभूतपूर्व आर्थिक विफलता, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और अनिवार्य-सा हो चला सामाजिक अलगाव।
इस अध्ययन के आईने में अपने देश की बात करें तो कोरोना के साथ आई अप्रत्याशित मुसीबतें झेलते-झेलते अनेक परिवार टूट से गए हैं। ये परिवार अपने जीवन निर्वाह के लिए संसाधनों का अभाव ही नहीं झेल रहे, स्वजनों के अंतिम समय में उनके साथ न रह पाने और आस्था के अनुसार अंतिम संस्कार न कर पाने या उसमें शामिल न हो पाने की वजह से गहरे मानसिक आघात के भी शिकार हैं।
अलबत्ता, जिन परिवारों की जीवन शैली घरों और कारों वगैरह के लिए लिए गए कर्ज की बड़ी ईएमआई और रख-रखाव शुल्क से जुड़ी हुई है, उनकी समस्या दूसरी तरह की है। जानकारों के अनुसार वे अपनी उपभोग आधारित जीवन शैली की कीमत वसूली की प्रक्रिया में एजेंटों की फोन कालों व धमकियों के सामने अपना आत्मसम्मान गंवाकर चुका रहे हैं। साफ है कि कोरोना उनका आत्मबल तोड़कर उन्हें आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक तरीकों से भी प्रताडित कर रहा है।
प्रसंगवश, गत मई में हुए एक आॅनलाइन सर्वे में पाया गया था कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान 61 प्रतिशत भारतीय खुद को नाराज, परेशान, उदास या चिंतित महसूस कर रहे थे। उनमें से 23 प्रतिशत चिंतित या डरे हुए थे, जबकि आठ प्रतिशत खिन्न, अवसादग्रस्त या उदास। इसी तरह 20 प्रतिशत परेशान और गुस्से में थे, जबकि 10 प्रतिशत बहुत गुस्से में। उनमें शांत और स्थिर चित्तों की संख्या महज सात प्रतिशत थी।
इस स्थिति के संभावित सामाजिक-आर्थिक अनर्थों की कल्पना बहुत कठिन नहीं है। विलियन प्रेस की प्रबंध सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार लेखा रत्तनाणी का ठीक ही कहना है कि लॉकडाउन के बाद खुले शॉपिंग सेंटरों, तीर्थस्थलों और पर्यटन स्थलों, अन्य स्थानों अथवा दुकानों में वस्तुएं खरीदने के लिए लग रही भीड़ों को सामान्य स्थिति की वापसी का संकेत मानना उस टाइम बम को अनदेखा करना है, जो विघटन के कारण सतह के ठीक नीचे छिपा है। साफ-साफ कहें तो इन भीड़ों से यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि महामारी के घातक प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष प्रभावों से पीड़ित जनता सामान्य कामकाज पर लौट आई है।
लेखा के अनुसार वे लोग, जो अकेले हैं और विभिन्न शहरों में काम कर रहे हैं, अपने परिवारों से कटे हुए या अलग हैं, एक नई समस्या का सामना कर रहे हैं। वे कहती हैं : यह समस्या नब्बे के दशक में उदारीकरण के साथ भारतीय परिवारों और संस्कृति में प्रविष्ट कुछ सामाजिक परिवर्तनों का परिणाम है, जिसका फल अब कोरोनाकाल में नजर आ रहा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक 10.4 करोड़ से ज्यादा भारतीय 60 वर्ष से अधिक उम्र के यानी वरिष्ठ नागरिक हैं, लेकिन भारतीय परिवारों की संरचना में बदलाव के कारण कभी संयुक्त परिवारों का नेतृत्व व मार्गदर्शन करने वाले ये वरिष्ठ नागरिक अब अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहे हैं। उनकी ओर से आंखें मूंद ली गर्इं हैं।
सवाल है कि क्या यों आंखें मूंद लेने से ये दोष खत्म हो जाएंगे? नहीं, वे नई समस्याएं और जटिलताएं पैदा करने लग जाएंगे। ऐसी जटिलताओं और समस्याओं से बचने का एक ही तरीका है : हमारी सरकारें और सामाजिक शक्तियां कोरोना-कोरोना के जाप से वक्त निकालकर हाशिये में डाल दिए गए सारे संकटों से दो-दो हाथ की तैयारी करें। वरना न सिर्फ वक्त हाथ से निकल जाएगा बल्कि निराशा की महामारी दुर्निवार होकर हमें दूसरी जटिल समस्याओं के हवाले भी करने लग जाएगी।