Saturday, June 21, 2025
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सिस्टम पर पूंजी के कब्जे की कथा

Samvad 51


SATENDRA JAIN 1इलेक्टोरल बॉन्ड्स के सामने आए ब्योरे से असल कहानी यह उगाजर हुई है कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था पर कॉरपोरेट पूंजी ने किस हद तक अपना शिकंजा कस लिया है। अब यह कहा जा सकता है कि इस लगातार बढ़ते जा रहे नियंत्रण पर परदा डालने की कोशिश में ही वर्तमान भारतीय जनता पार्टी सरकार ने सियासी चंदे की यह व्यवस्था लागू की थी। इस सिस्टम के अस्तित्व में आने के बाद से आज तक सत्ता पर इसी पार्टी का दबदबा है, इसलिए यह लाजिमी ही है कि इसका सबसे ज्यादा फायदा उसी को हुआ है। राजनीतिक दल किसके चंदे से चलते हैं, यह इसका सीधा संबंध उनके व्यावहारिक चरित्र से होता है। यानी कहने को पार्टियां अपनी कोई भी विचारधारा बताएं, लेकिन अगर वे निहित स्वार्थी तत्वों से मोटा चंदा लेती हैं, तो यह संभव नहीं है कि उससे उनकी नीतियां और सत्ता में आने पर उनके फैसले ना प्रभावित हों। आज अगर हम दुनिया भर के ‘लोकतांत्रिक’ देशों में सत्ता पर धनिक तबकों के कायम हो गए नियंत्रण को देखें, तो यह साफ होता है कि ऐसा होने के पीछे इस पहलू की सबसे बड़ी भूमिका रही है।

वैसे तो लोकतंत्र के अभिजात्य-तंत्र में परिवर्तित होते जाने की परिघटना की विस्तृत व्याख्या प्लेटो जैसे ग्रीस के प्राचीन दार्शनिकों ने लगभग तीन हजार साल पहले ही कर दी थी, लेकिन उसका संदर्भ अलग था। आधुनिक संदर्भ अलग है। आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र का विकासक्रम पूंजीवाद के उदय के साथ जुड़ा रहा है। लिबरल डेमोक्रेसी का उद्भव और विकास सामंतवाद के विरुद्ध पूंजीवाद के वाहक सामाजिक वर्गों के संघर्ष से हुआ। जब सत्ता उनके हाथ में आ गई, तब ये वर्ग ही शासक वर्ग बन गए। तब सिस्टम को उन्होंने अपने रूप में ढाल दिया। जाहिर है, जिसे लोकतंत्र कहा गया, वह असल में पूंजीतंत्र या धन तंत्र था। इस कहानी में एक रुकावट 1917 में सोवियत संघ में हुई बोल्शेविक क्रांति से बने विश्वव्यापी माहौल से आई। उस क्रांति ने दुनिया भर के मेहनतकश तबकों में नए सपने जगाए। श्रमिक वर्ग के संघर्ष की नई लहर से नई परिस्थितियां बनीं। तब विभिन्न देशों में शासक वर्गों ने लिबरल डेमोक्रेसी में ‘सोशल’ तत्व जोड़ा गया। यानी सोशल डेमोक्रेसी की अवधारणा के साथ उदारवादी लोकतंत्र में जन कल्याण की एक सीमित संभावना जोड़ी गई।
भारत में भी आजादी के बाद से ही राजसत्ता पर पूंजीपति घरानों ने के प्रभाव को तलाशा जा सकता है। लेकिन तब उपनिवेशवाद से लंबे संघर्ष से अस्तित्व में आई राजसत्ता का अपेक्षाकृत एक स्वायत्त रूप बना था। तत्कालीन वैश्विक परिस्थितियों का भी इसमें योगदान रहा। फिर भी कॉरपोरेट चंदे की कहानी तभी से शुरू हो जाती है। तब टाटा और बिड़ला सबसे बड़े कॉरपोरेट घराने थे। उन्होंने कांग्रेस सरकार की नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश के साथ-साथ विपक्ष में स्वतंत्र पार्टी जैसे पूंजीवाद के पैरोकार दलों पर भी अपना दांव लगाया। इनके जरिए उनकी कोशिश राजनीति पर अपना व्यापक प्रभाव कायम करने की थी। इंदिरा गांधी सरकार ने 1969 में कॉरपोरेट फंडिंग पर पूरी रोक लगा दी। इसके लिए कंपनी अधिनियम की धारा 293-ए को कानून की किताब से हटा दिया गया था। ऐसे कदमों के खिलाफ कॉरपोरेट घरानों ने एक तरह से विद्रोह कर दिया। उन्होंने तब ऐसे प्रकाशनों और गतिविधियों को चंदा देना शुरू किया, जिनके जरिए सरकार विरोधी माहौल बनाया जा सके। खासकर राष्ट्रीयकरण जैसी नीतियों के खिलाफ मुहिम चलाई गई।
लेकिन इसी दौर में कांग्रेस सहित तमाम पार्टियों पर अवैध तरीकों से कॉरपोरेट चंदा लेने के आरोप भी लगने लगे थे। सूटकेस कल्चर की शिकायत बढ़ने लगी। इस शिकायत के प्रचार में ताकत झोंक कर कॉरपोरेट घराने लगातार कथित लाइसेंस-परमिट राज को खत्म करने के लिए दबाव बनाए हुए थे। उनके स्वामित्व वाले मीडिया ने इस कोशिश में बड़ी भूमिका निभाई। इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के प्रावधान ने इस कहानी को एक नए मुकाम पर पहुंचा दिया था।

इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं है कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स से संबंधित विवरण के सार्वजनिक होने से जितनी सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियां परेशान हुर्इं, उतना ही असहज कॉरपोरेट जगत भी हुआ है। इसीलिए उद्योगपतियों के बड़े संगठन यह गुहार लगाने सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए कि वह इलेक्टोरल बॉन्ड्स के नंबर सार्वजनिक करने का आदेश भारतीय स्टेट बैंक को ना दे। चूंकि फिक्की, सीआईआई और एसोचैम बिना जरूरी प्रक्रियाएं पूरी किए अर्जी लेकर अदालत पहुंच गए थे, इसलिए न्यायालय ने अर्जी को तुरंत ठुकरा दिया। बहरहाल, इन संगठनों के एतराज पर गौर करना महत्त्वपूर्ण है। उनके प्रवक्ताओं ने मीडिया से बातचीत में इलेक्टोरल बॉन्ड्स के मामले में पारदर्शिता पर मुख्य रूप से दो एतराज उठाए। एक तो यह कि चूंकि मूल कानून में प्रावधान था कि चंदा देने वाले की पहचान गोपनीय रहेगी, इसलिए बाद में उसे सार्वजनिक करना एक तरह का विश्वासघात है। इस तर्क को खींचते हुए इन संगठनों यहां तक कहा कि फैसलों को पिछली तारीख से लागू करने से विदेशी निवेशकों का भारत में भरोसा टूटेगा। उन्होंने दूसरी दलील दी कि उन्होंने जिस पार्टी को चंदा दिया, उसके जाहिर होने पर उसकी विरोधी पार्टी उनसे नाराज हो जाएगी।

कंपनियां लोगों को यह नहीं जानने देना चाहती थीं कि उन्होंने राजनीतिक दलों को चंदा देकर क्या फायदे हासिल किए? वे चाहती थीं कि उनके और सत्ताधारी दलों के बीच जारी नापाक गठजोड़ पर परदा पड़ा रहे। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी अपील को ठुकरा कर स्टेट बैंक को इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के अल्फा-न्यूमेरिक नंबरों को भी सार्वजनिक करने का आदेश दे दिया। उससे उद्योग जगत का असहज होना स्वाभाविक है। राजनीतिक दल जैसे-जैसे अपने खर्चों के लिए उद्योग जगत पर पूरी तरह निर्भर होते गए हैं, सत्ता में रहते हुए कॉरपोरेट घरानों को अनुचित लाभ पहुंचाने की उनकी मजबूरी बढ़ती चली गई है। ये लाभ मुख्य रूप से इन कदमों के जरिए पहुंचाए गए है: कॉरपोरेट टैक्स में रियायत, कॉरपोरेट टैक्स की माफी, बैंक कजों को माफ करना, निजीकरण की नीति को इस तरह लागू करना, जिससे क्षेत्र विशेष पर किसी एक उद्योग घराने या कुछ उद्योग समूहों की मोनोपॉली कायम हो जाए, आर्थिक नीतियों को इस रूप में ढालना, जिससे बाजार किसी एक उद्योग या उद्योग समूह के अनुकूल बने, पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर सार्वजनिक संसाधनों को मुनाफा कमाने के लिए कॉरपोरेट सेक्टर को सौंपना, हाल के वर्षों में अपनाई गई प्रोडक्शन बेस्ड इन्सेंटिव स्कीम, जिसके जरिए आम जन के लाखों करोड़ रुपये बड़े उद्योग घरानों को कारोबार लगाने के लिए दिए जा रहे हैं, जिसका पूरा मुनाफा उन घरानों को जाएगा। लाभ पहुंचाने के दशकों से जारी चलन में इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के जरिए एक और ट्रेंड जोड़ा गया। आरोप है कि इसे कुछ कारोबारी घरानों को धमका कर चंदा वसूलने का जरिया बनाया गया। ऐसी मिसालें सामने हैं, जिनमें ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स आदि जैसे विभागों की कार्रवाई शुरू कर या उसका डर दिखा कर कंपनियों को चंदा देने के लिए मजबूर किया गया।


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