आज राजनीतिक दलों के बीच गहरी होती खाइयों, बढते सामाजिक विभाजनों और नेताओं के परस्पर विद्वेष से ठप्प पडती समृद्ध सांसदीय परम्पराओं के इस दौर में 14वीं पुण्यतिथि पर ही नहीं रोजमर्रा में भी सांसदीय राजनीति के भीष्म पितामह और भारतीय राजनीति के अजातशत्रु सर्वश्रेष्ठ आंके गए सांसद व पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चन्द्रशेखर का जागरूक जानकार लोगों को याद आना स्वाभाविक ही है, क्योंकि देश जनता के हित में अपने हितों की बलि देकर इन बाधाओं को पाटने के लिए ही शायद चंद्रशेखर बने थे। साधारण किसान परिवार की पृष्ठभूमि से आए पर बडे-बड़े पदों की उपलब्धता लंबे समय तक होने के बावजूद दोस्तों के दोस्त, फक्कडमस्त, खांटी चंद्रशेखर बिना किसी पद पर रहे सीधे प्रधानमंत्री बने। चंद्रशेखर के व्यक्तित्व के गलत आकलन और अपने नासमझी में हल्के व्यवहार के अहसास के कारण गैर राजनीतिक पर सहज, सज्जन, राजीव गांधी ने उनसे इस्तीफा न देने का आग्रह किया पर इस्तीफे बहुतों ने दिए पर आग्रह के बावजूद इस्तीफा वापस न लेने वाले सिर्फ चंद्रशेखर।
हालांकि जानकारों का ये भी मानना है कि यदि चंद्रशेखर आग्रह मान इस्तीफा न देते या दोबारा शपथ के प्रस्ताव को मान लेते तो शायद भारतीय राजनीति की दशा-दिशा कुछ और होती। बुद्ध गांधी की तरह 1983 में 6 महीने पैदल कन्याकुमारी से दिल्ली भारत यात्रा करने वाले इस अजब गजब पदयात्री को इंदिरा जी, राजीव जी से ज्यादा जानती मानती थीं। 1964 में कांग्रेस में शामिल होने का इंदिरा गांधी ने कारण चंद्रशेखर से पूछा था तो उनका सच्चा जवाब था कि वो कांग्रेस को समाजवादी बनाने आए हैं। न बना पाए तो? जवाब सीधा सपाट कि पार्टी तोड़ दूंगा।
दलीय आसक्ति चंद्रशेखर में कभी नहीं रही पर मुद्दों और विचारधारा के प्रति निष्ठा हमेशा रही। 1972 में वे इंदिरा के मना करने के बाद भी चुनाव समिति का चुनाव लडे और सर्वाधिक मतों से जीते भी। इंदिरा के बड़े-बड़े पदों के प्रस्ताव को नकार चंद्रशेखर 1975 में इमरजेंसी का विरोध कर जेल में रहे और 1984 में स्वर्ण मंदिर में ओप्रेशन ब्लू स्टार के विरोध का जोखिम भी उठाया, पर दोनों नेताओं के बीच कभी कोई कटुता नहीं रही।
19 महीने इमरजेंसी की जेल के बाद 1977 की जनता पार्टी सरकार में इंदिरा गांधी पर ज्यादती हुई तो जनता पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर अपनी ही सरकार का विरोध करने से भी नहीं हिचके। 1990 में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चंद्रशेखर का अप्रत्याशित सरकार बनाना, प्रधानमंत्री बनना उनके कुछ सहयोगियों को भी असहज कर गया, पर मंडल-कमंडल की आग में जल रहे देश को सम्हालने की हिम्मत किसी नेता ने नहीं दिखाई। और देश समाज के हित में छवि की परवाह न करते हुए चुनौती स्वीकार करना नीलकंठ बनना चंद्रशेखर के लिए स्वभाविक था।
उनका कोई पूर्व प्रशासनिक अनुभव न होने से आशंकित तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेकंटरमन अपनी किताब में प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के कार्यकाल को सुखद, आश्चर्यजनक, यादगार और श्रेष्ठ आंकते हैं। विरासत में उनकी सरकार को सांप्रदायिकता और जातिवाद से जलता देश, कई राज्यों में कर्फ्यू, आतंकवाद से झुलसता पंजाब, कश्मीर, तमिलनाडु और उत्तर पूर्व खाडी युद्ध और भुगतान संकट से खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के हालात पूर्ववती सरकारों को कोसने के बजाए समाधान करने की प्राथमिकता दी। जो नतीजे पूर्ण या प्रचंड बहुमत की पूर्णकालिक सरकारें हासिल नहीं कर पाई, इस बाहरी समर्थन पर टिकी अल्पमत की चार महीने की सरकार ने दिए और इसीलिए चार महीने बनाम चालीस साल का नारा दे अगला चुनाव लड़ा। चंद्रशेखर को इसका यश और श्रेय तो मिला पर मंडल-कमंडल और बाद में भूंडलीकरण की राजनीति से कदमताल न मिला पाने के कारण वोट के गणित में वो पिछड़ते चले गए।
पिछले 30 सालों में भारतीय समाज व राजनीति सांप्रदायिकता और जातिवाद से ऐसे अभिशप्त हुए कि चंद्रशेखर की बुलंद आवाज और रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थय, सुरक्षा के मुद्दे हालांकि गायब तो नहीं हुए पर उनसे न्याय भी नहीं हो पाया। कश्मीर, असम, नेपाल, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, अयोध्या विवाद, बोफोर्स, ब्लू स्टार, निजीकरण, विनिवेश, भूमंडलीकरण, अमरीका संबंधों आदि विषयों पर 20-30 साल बाद सहमति दिखायी देती है, पर जब तक उनकी दूरदर्शिता और साफगोई से उपजी और नासमझ स्वार्थी नेताओं द्वारा प्रयोजित तात्कालिक जनता की नाराजगी का राजनीतिक नुकसान उठाने का साहस चंद्रशेखर ने हमेशा किया।
हां, इस कारण उन्हें दोस्तों की कमी कभी नहीं रही। पर इसका कारण भी दोस्त बनाने के उनके हुनर से ज्यादा दोस्ती निभाने का उनका माद्दा है, जिसमें वो खुद विवादित होने तक का जोखिम उठा लेते थे। राजनीतिक छूआछूत से अलग उनके मित्र व प्रशंसक समाज के हर वर्ग, क्षेत्र, देश, दल में रहे। कांग्रेस से भाजपा तक, वामपंथ से दक्षिण पंथियों तक।
चंद्रशेखर को 2021 में याद करने का आज दस्तावेजी अदायगी से अलग, क्या कोई औचित्य है? आज अर्थव्यवस्था चौपट, देश महामारी से ग्रस्त और किसान पांच महीने से नाराज दिल्ली घेरकर धरने पर हैं। समाज विभाजित है, आम नागरिक सड़क पर और राजनैतिक दल चुनावी समीकरण साधने में व्यस्त हैं।
30 साल पहले मंडल-कमंडल की आग में झुलसते, खाड़ी युद्ध से जूझते, खाली राजकोष से त्रस्त और वोट की राजनीति के आगे पस्त देश को बर्बादी के मुहाने से खींच कर वापस पटरी पर लाने वाली चार महीनों की चंद्रशेखर सरकार ने जिस तरह संजीवनी और ठंडे पानी का काम किया, वो उसे आज भी प्रासंगिक बनाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में समाधान की आशा जगाता है।