केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद द्वारा अपनी दसवीं की परीक्षा को रद्द और बारहवीं की परीक्षा को स्थगित करने के फैसले को मोटे तौर पर दो नजरियों से देखा जा सकता है। पहला यह कि ऐसे फैसले यथासमय न लिए जाएं तो उनकी उपयुक्तता को लेकर अनेक संदेह पैदा होते हैं। इस लिहाज से देखें तो कोरोना की महामारी द्वारा परीक्षाओं संबंधी सारे विकल्पों को ‘परीक्षा या जीवन रक्षा?’ तक सीमित कर डालने के बावजूद यह फैसला खासी देर से किया गया है। इसलिए इसे कतई यथासमय नहीं कहा जा सकता। सामान्य स्थिति में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ये परीक्षाएं 15 फरवरी से अप्रैल के पहले हफ्ते तक करा लेता है। कोरोना की वजह से इस साल ये 4 मई से 10 जून के बीच होनी थीं। परेशान छात्रों व अभिभावकों, यहां तक कि सोशल मीडिया पर मुहिम, हस्ताक्षर अभियान और अदालत जाने की तैयारी के बीच कई नेताओं द्वारा परीक्षाओं को रद्द या स्थगित करने की महीने भर से चली आ रही एक के बाद एक मांगों की इस फैसले से पहले इतनी लंबी अनसुनी की गई कि ऐसी कोई उम्मीद ही खत्म हो चली थीं।
इस कारण और कि कई राज्यों के माध्यमिक शिक्षा बोर्डों ने अपनी परीक्षाएं रद्द करने का फैसला पहले ही ले लिया था, फिर भी केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद को ऐसी किसी घोषणा से परहेज था। गत सात अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी परीक्षा पे चर्चा करने टेलीविजन पर अवतरित हुए और परीक्षाओं के स्थगन आदि का कोई संकेत दिए बिना छात्रों को कठिन सवालों की पहले तैयारी करने का उपदेश देकर चले गए, तो निश्चयात्मक तौर पर मान लिया गया कि अब ये परीक्षाएं होकर ही रहेंगी।
क्योंकि ‘मोदी जी जो ठान लेते हैं, उससे कदम पीछे नहीं हटाते।’ राहुल, प्रियंका, केजरीवाल और सोनू सूद जैसी हस्तियां कहती रहें कि परीक्षाओं से ज्यादा बच्चों की सेहत जरूरी है, मोदी को परीक्षाएं ज्यादा जरूरी लग रही हैं तो वे होकर रहेंगी।
गनीमत है कि गत 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री और उनके शिक्षामंत्री को महीने भर से ज्यादा से दर्शाई जा रही चिंताओं का संज्ञान लेने का मौका मिला। उन्होंने फैसला सुनाया कि दसवीं की परीक्षा रद्द और बारहवीं की स्थगित की जा रही हैं तो कांग्रेस खुश होकर धन्यवाद देने की मुद्रा में आ गई कि उन्होंने उसके नेताओं राहुल और प्रियंका के सुझाव मान लिए।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल पहले ये परीक्षाएं रद्द करने की मांग कर रहे थे, लेकिन बाद में उनसे भी सरकार की सराहना किए बिना नहीं रहा गया। अलबत्ता, प्रियंका गांधी ने पूछा कि बारहवीं के छात्रों को अभी भी दबाव में रखने की क्या जरूरत है? यहां रुककर इस फैसले को ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ के दूसरे नजरिये से देखें तो भी इसे दुरुस्त नहीं कह सकते। कारण यह कि इसमें कई पेंच हैं। तय हुआ है कि 10वीं के नतीजे आंतरिक मूल्यांकन यानी बोर्ड के वस्तुनिष्ठ मापदंडों के आधार पर घोषित किए जाएंगे और इस मूल्यांकन से असंतुष्ट छात्र स्थिति के सामान्य होने पर परीक्षा दे सकेंगे।
इस पेंच का अर्थ समझना कहीं से भी कठिन नहीं है। इसी तरह 12वीं की परीक्षा 31 मई तक के लिए स्थगित कर दी गई है। एक जून को फिर स्थिति की समीक्षा की जाएगी और हालात ठीक रहे तो परीक्षाएं हो सकती हैं। नहीं तो विचार किया जाएगा कि छात्रों को किस आधार पर अंक दिए जाएं? साफ है कि सरकार के स्तर पर अभी भी समस्या पर इतना विचार नहीं हुआ है कि छात्रों व अभिभावकों को उनके सारे सवालों व अंदेशों के जवाब मिल सकें।
कोई पूछे कि जून के बाद बोर्ड की बारहवीं के सारे और दसवीं के मूल्यांकन से असंतुष्ट छात्रों की परीक्षाएं होंगी, तो उनके नतीजे कब आएंगे, फिर नया सत्र कब शुरू होगा, तो जवाब नदारद ही है। सरकार की एक ही स्पष्ट घोषणा इन सारे सवालों का जवाब दे सकती थी, बशर्ते वह संकट को सिर्फ परीक्षाओं का संकट मानकर न चल रही होती और यह मानकर उससे निपटने की कोई रूपरेखा बनाती व साझा करती, जिसमें छात्रों की संकटग्रस्त पढ़ाई-लिखाई फिर से पटरी पर आ पाती। तब उसे रोज-रोज ऐसे तात्कालिक व तदर्थ फैसले करने की जरूरत भी नहीं पड़ती।
लेकिन इस तल्ख हकीकत के बावजूद कि जो हालात हैं, उनमें हमें लंबे वक्त तक कोरोना वायरस के साथ जीना पड़ सकता है, सरकार बार-बार यही जताने में लगी है कि उसे न सेहत के संकट के पार जाने का रास्ता सूझ रहा है, न शिक्षा के संकट के। इसलिए वह छात्रों व अभिभावकों की उलझनों के सामने लेटलतीफी करती भी नजर आती है, मूक भी और ठिठकी हुई भी।
उसके इस रवैये की सिर्फ इस आधार पर वकालत की जा सकती है कि परीक्षार्थियों की संख्या के लिहाज से दुनिया की सबसे बड़ी परीक्षा आयोजित करने वाली उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद इन मामलों में उससे भी दो कदम आगे है। उसने उसके भी एक दिन बाद अपनी हाईस्कूल व इंटर की परीक्षाएं 20 मई तक के लिए स्थगित की हैं। इसके पहले उसने पंचायत चुनाव के मद्देनजर उन्हें आठ मई तक स्थगित किया था।
सरकारों के ऐसे ही रवैये के कारण 20-21 के शैक्षणिक सत्र में न केवल पढ़ाई शुरू होने में विलंब हुआ, बल्कि नई ऑनलाइन पढ़ाई से जुड़ी छात्रों व शिक्षकों की उलझनें भी अभी तक नहीं सुलझीं। छात्र और उनके मां-बाप पूरे साल स्मार्टफोन, कंप्यूटर और इंटरनेट के इंतजाम में ही लगे रहे।
स्कूल-कालेजों में पठन-पाठन का जो स्वाभाविक माहौल मिलता है, उससे तो वे वंचित रहे ही, इस नई व्यवस्था के चलते बड़े मानसिक दबाव से भी गुजरने को विवश हुए। छात्रों के बीच वर्गीय आर्थिक विभाजन की गहरी खाई के अनर्थ भी इस वक्त खुलकर खेले। पहले अभावपीड़ित व गरीब छात्र सड़क किनारे लैंपपोस्ट की रोशनी में मंगनी की किताबों आदि से भी पढ़ सकते थे। लेकिन कोरोनाकाल में न उन्हें इंटरनेट व कंप्यूटर मांगे मिल रहे है, न ही रोशनी के लिए बिजली। विडम्बना यह कि मुश्किल वक्त में सरकार भी उन पर आनलाइन पढ़ाई थोपकर बैठ गई है और किसी तरह की मदद के लिए आगे नहीं आ रही, जबकि उनकी ऑनलाइन पढ़ाई के इंतजाम में माताओं-पिताओं को कई पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, निराशा और अवसाद कई छात्रों की जान पर आ बने हैं।
शुरू में ही उपयुक्त फैसला ले लिया जाता तो इन छात्रों को यों जानें क्यों गंवानी पड़ती? लेकिन तात्कालिक लाभ के लोभ में सरकार ने संकट पर इस नजरिए से कभी विचार ही नहीं किया। अभी भी नहीं कर रही। साल भर पढ़ाई के साथ प्री-बोर्ड व प्रैक्टिकल जैसी औपचारिकताएं निभाई जाती रहीं और छात्र तमाम खतरे उठाकर उनका हिस्सा बनते रहे।
अब कोरोना के कारण परीक्षाएं रद्द करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है तो भी सरकार उन्हें रद्द या स्थगित करने के अपने फैसले को तार्किक परिणति तक नहीं ले जा पा रही। काश, वह समझती कि वह छात्रों व अभिभावकों को राहत दे रही है, जबकि उन्हें समाधान अभीष्ट है।