12 कहानियों का यह संग्रह वंचितों के पक्ष में पैरवी करता दिखाई देता है। किसी भी तरह के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाता है। शंकर अपनी कहानियों में कोई ऐजेंडा लेकर नहीं चलते, बल्कि वे कहानियों को ‘ग्रो’ होने देते हैं, इसलिए उनकी कहानियों में सहजता बनी रहती है। यही इन कहानियों की शक्ति है। जाहिर है कहानियों में गजब की पठनीयता है। कहानियों का परिवेश हमारा अपना ही परिवेश है और भाषा भी हमारी अपनी ही है। इसलिए ये हमें अपनी ही कहानियां लगेंगीं। इसलिए भी ये कहानियां जीवन की पूरक हैं!
मुझे हमेशा लगता रहा है कि कहानियां जीवन का पूरक होती हैं। यानी जो जीवन में नहीं है, और जिसे आप चाहते हैं कि हो, उसे आप कहानियों में तलाश करते हैं। कहानियों को लेकर मेरी एक और धारणा रही है कि कहानियां ‘कम्फर्ट जोन’ में बैठकर नहीं लिखी जा सकतीं, ऐसे भी उदाहरण देखे गए हैं कि ‘कम्फर्ट जोन’ से बाहर आने के लिए कई लेखक अपने लिए ‘अनकम्फर्ट जोन’ क्रिएट कर लेते हैं। इससे कहानियों में ईमानदारी बनी और बची रहती है।
इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि एक डूबते हुए व्यक्ति की कहानी लिखने के लिए लेखक का डूबना जरूरी है, लेकिन लेखक को परकाया प्रवेश करके यह तो महसूस करना ही होगा कि वह स्वयं डूब रहा है। मैंने यह भी पाया है कि इन बातों का ख्याल रखकर आप ‘कुक्ड’ कहानियों के आरोप से बच सकते हैं, कोई आप पर यह आरोप नहीं लगाएगा कि आपने उधार के अनुभवों पर कहानियां लिखी हैं और आपकी भाषा सहज और प्रवाहमान होगा।
वरिष्ठ कथाकार शंकर का कहानी संग्रह ‘एक बटा एक’ (अंतिका प्रकाशन) पढ़कर इस बात का अहसास हुआ कि सहज और प्रवाहमान कहानी कैसी लिखी जाती हैं। शंकर की कहानियों में कोई चमत्कार, सूचनाओं का जखीरा, इतिहास के टुकड़े नहीं मिलेंगे। उनकी भाषा पाखंड की भाषा नहीं है। वह जीवन से निकली भाषा है। उनकी कहानियों के नायक विशिष्ट नहीं हैं, बल्कि आम जीवन जीने वाले इंसान हैं।
वह अपनी कहानियों में सामान्य व्यक्ति को उठाकर नायक बना देते हैं। ‘नायक’ कहानी में प्रेम किशोर स्टेट सर्विसेज प्रतियोगिता में पास होने के बाद बाहर निकलता है तो उसे लगता है कि उसके पांव उड़ रहे हैं। अपनी इस खुशी को वह सेलिब्रेट करता है। लेकिन उसके साथ सेलिब्रशेन के लिए कोई नहीं है। वह रिक्शा पर बैठकर इतराता है। इन पलों में वह एक अनजान लड़की से अपनी सफलता साझा करता है। शंकर अपनी इस कहानी में किसी घटना के होने का इंतजार नहीं करते, न ही कहानी में कुछ घटित होता है। बेहद सादगी से लिखी गई यह कहानी चेखव की कहानी ‘दुख’ की याद दिला देती है। दुख का नायक अपने पुत्र की मृत्यु के दुख को अपने घोड़े के साथ साझा करता है। क्या खुशी को साझा करना उतना ही महत्वपूर्ण नहीं है, जितना दुख को साझा करना?
शंकर मध्यवर्ग और निम्न वर्ग की दुनिया अपनी कहानियों में उकेरते हैं। ‘एक बोरी आम’ भी गरीबों के दुख पर उंगली रखती है। बंसीधर एक साहब के आम के पेड़ों की रखवाली करता है। एक खास किस्म का आम भी है जरदालु आम। आम लगने के बाद एक बोरी जरदालु आम साहब के बंगले पर पहुंचानी होती है और शेष आम बंसीधर के हिस्से में आते हैं। अपने हिस्से में से बंसीधर कुछ आम अपनी विवाहित बेटी को दे आता है। एक बार जरदालु आम कुछ कम लगते हैं। बंसीधर की पत्नी कहती है, साहब के यहां दूसरे आम भेज देते हैं, उन्हें कौन सा पता चलेगा। लेकिन बंसीधर साहब से यह बेईमानी नहीं करता।
जरदालु आम की बोरी साहब के यहां चली जाती है। पत्नी देखती है कि साहब ने वह आम कूड़े में डाल रखे हैं। यही गरीब आदमी की त्रासदी भी है और दुख भी। ‘कुहासा’ कहानी में यह दुख अलग अंदाज में आया है। ‘एक बटा एक’ मध्यवर्ग के सपनों और आकांक्षाओं पर बात करती है। दसवीं में अच्छे अंक लाने के बाद पिता बेटे को स्टडी टेबुल का जोड़ा दिलवाते हैं-एक के साथ एक फ्री। कैसे वह स्टडी टेबुल बेकार हो जाती है, यही कहानी है।
समाज में जो कुछ घट रहा है उसपर भी शंकर महीन नजर रखते हैं। महामारी के समय मजदूरों के विस्थापन पर वह ‘ठांव’ लिखते हैं तो चिकित्सा की दुनिया में चल रहे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खेल पर वह ‘पर्ची’ लिखते हैं। उनकी कहानियों में आॅटो ड्राइवर भी सहजता से आते हैं। ‘जन्नत’ में शंकर भीड़ द्वारा मारे जा रहे लोगों पर सवाल उठाते हैं और स्वयं ही इसका जवाब भी दे देते हैं। कहानी में वह दिखाते हैं कि आपसी भाईचारा ही इस स्थिति को बदल सकता है।
कौन बनेगा करोड़पति जैसे कार्यक्रमों का मध्यवर्ग पर क्या असर पड़ रहा है, इसे शंकर ‘जीवन-कथा’में चित्रित करते हैं, जब दो भाई आपस में यह शर्त लगाते हैं कि बीमार माई आज की रात बचेगी या नहीं। यह किसी भी कीमत पर पैसा कमाने के मध्यवर्ग के साइके को दिखाती है।
भ्रष्टाचार आज हमारे समाज का वो जहर है, जो धीरे-धीरे पूरी तरह फैल चुका है। शंकर की निगाहें इससे भी नहीं बच पातीं। ‘लपटें’ कहानी का नायक शशिभूषण दास चेकपोस्ट पर इंचार्ज के रूप में काम संभालता है। वह अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से सबको अपना दुश्मन बना लेता है। परिणाम वही होता है, जो जीवन में होता है। उसे जलाकर मार दिया जाता है। पूरी कहानी फाइलों में चलती है और फाइलों में ही पूरी होती है।
नए-नए आए छोटे अफसर उन फाइलों को जला रहे हैं, जिनकी क्लोजर रिपोर्ट दी जा चुकी है या जिन्हें बाहर साल से अधिक का समय बीत चुका है। यहीं उन्हें काले रंग की जिल्द में बंधी एक फाइल मिलती है। यह फाइल शशिभूषण दास की कहानी बयान करती है। छोटे अफसर छानबीन करते हुए शशिभूषण की विधवा तक पहुंच जाते हैं। उन्हें पता चलता है कि शशिभूषण को लोहे की जंजीरों से बांधकर जला दिया गया था। छोटे अफसर इस मामले को दोबारे खोलने का आग्रह वरिष्ठ लोगों से करता है।
क्या होगा, क्या नहीं होगा, यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन शंकर ने कहानी को बेहतर ढंग से ट्रीट किया है। ‘इश्तहार’ कहानी में वह दिखाते हैं कि पत्रिकाओं-खासकर लघु पत्रिकाओं- के लिए विज्ञापन जुटाना कितना मुश्किल होता जा रहा है। इसके समानांतर वह समाज और खासकर विज्ञापन देने वाले व्यापारियों की पत्रिकाओं को लेकर सोच को भी चित्रित करते हैं। कस्बों में कारोबारी किसी भी मौके को अपने मुनाफे में बदलने से नहीं चूकते। ‘जरी के जूते’ कहानी कारोबारी-कन्हैया दास की नीयत का खुलासा करती है|
जो कस्बे में बनने वाली नाट्य मंडली को सहयोग करने की आड़ में समर कांत की कई बीघा जमीन हड़प लेता है। समर कांत को नाटक में अकबर की भूमिका देना तय होता है और उसके लिए जरी के जूते की व्यवस्था की जिम्मेदारी कन्हैया उठाता है, और उसके नाम पर भी समर कांत को लूटता है।
12 कहानियों का यह संग्रह वंचितों के पक्ष में पैरवी करता दिखाई देता है। किसी भी तरह के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाता है। शंकर अपनी कहानियों में कोई ऐजेंडा लेकर नहीं चलते, बल्कि वे कहानियों को ‘ग्रो’ होने देते हैं, इसलिए उनकी कहानियों में सहजता बनी रहती है।
यही इन कहानियों की शक्ति है। जाहिर है कहानियों में गजब की पठनीयता है। कहानियों का परिवेश हमारा अपना ही परिवेश है और भाषा भी हमारी अपनी ही है। इसलिए ये हमें अपनी ही कहानियां लगेंगीं। इसलिए भी ये कहानियां जीवन की पूरक हैं!
सुधांशु गुप्त