अंतर विरोधों और विवादों से भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह का चोली दामन का साथ रहा और संघर्ष का इतिहास भी। जीवन पर्यन्त योद्धा रहे पूर्व प्रधानमंत्री जिनका जुझारूपन उनके आखिरी दिनों में हफ्ते में दो दो बार डायलिसिस और कैंसर भी नहीं दबा पाए। बकौल उनके, उनका स्वास्थ्य खराब था तबियत नहीं! वीपी सिंह जी का बिना तामझाम, शोर-शराबे, आडम्बर के सामान्य मरीज की तरह, कैंसर का शक होने पर सीटी गाईडेड बायोप्सी के लिए अस्पताल आना, रेडियोलोजिस्ट रिटायर्ड कर्नल डॉ. प्रदीप कुमार गुप्ता जी को आज भी याद है और सामान्य डॉक्टर से भी ज्यादा उनको मर्ज की जानकारी उन्हें उनका मुरीद बना गई। भारी बस्ते से लदे-दबे अपने स्कूल जाते पोते को देखकर उनका लिखा-जब रोज ढुलाते हो, बस्ते पर बस्ता/मास्टर साहब बताओ तुम/क्यों न बना रहूं मैं गदहा का गदहा…देश को शिक्षा नीति को आईना दिखाता है। उनकी अराजनैतिक कलम व कूची कहे अनकहे जिंदगी के फलसफों पर जब गुजरती है, तो चिराग के तले भी रोशन होते हैं और परछाइयां भी बोलने लगती हैं।
पीड़ित शोषित आमजन के लिए अपने जीवन को अंतिम बड़ी लड़ाई उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लड़ी, जिसमें अपने सिर पर बतौर राष्ट्रीय सचिव किसान मंच उनका हाथ होने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ। राजनीति में कॉरपोरेट के मोटे चंदे की संस्कृति को ललकारते, 1894 के अन्यायपूर्ण भूमि अधिग्रहण कानून के सहारे अनियोजित असंतुलित तथाकथित विकास के नाम पर किसानों की लूट के खिलाफ गाजियाबाद में किसान आंदोलन का बिगुल फंूकते, गांव में किसानों के साथ बैठक करते, हमारे साथ ट्रैक्टर चलाते और महीने भर की जेल के दौरान हम आंदोलनकारियों से मिलाई को आते आदरणीय वीपी सिंह हमारी स्मृतियों में सगर्व गहरे दर्ज हैं। कृषि कानूनों के खिलाफ धरने पर सात महीने से बैठे किसानों को भी बहुत याद आते होंगे वो आज। गंभीर बीमारी के बावजूद, दिल्ली में झुग्गी-झोपड़ी वालों के अधिकारों के लिए उनके धरने पर पहुंच जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री की यादें मिटाना-छुपाना सम्भव नहीं है। उसने जिंदगी गंवा दी, वक्त नहीं गंवाया।
बतौर सफलतम मुख्यमन्त्री उत्तर प्रदेश उन्होंने घटतौली के शिकार किसानों के खेतों में हेलीकॉप्टर उतार कर सत्ता और आम आदमी के बीच की दूरी खत्म की, तो डकैतों के सफाए के उनके सघन अभियान में उनकी प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति के दर्शन हुए। वित्तमंत्री बने तो उनका नाम ही काले धन के शाहों की दहशत था और आम आयकरदाता के लिए वित्तीय प्रशासन सरल सुगम बना। उनके निष्कलंक नेतृत्व ने राजनीति में भ्रष्टाचार के मुद्दे को आमजन की प्राथमिकता बनाया तो सारा देश, ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’, के नारों से गूंज उठा। बोफोर्स मुद्दे की प्रेरणा कुछ लोगों की नजर में उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी, पर उनके घोर विरोधी और आलोचकों ने भी माना कि निजी तौर यदि कोई भ्रष्टाचार से दूर रहा तो वो थे विश्वनाथ प्रताप सिंह। चुनावी राजनीति में लंबे दौर तक रहे किसी व्यक्ति की यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है।
1990 में मंडल कमीशन लागू करने के उनके फैसले ने भारतीय समाज व राजनीति को इस कदर प्रभावित किया जैसा आजाद भारत के किसी व्यक्ति के फैसले ने नहीं किया। इससे कुछ ने उनमें मसीहा देखा कुछ ने इसे छल माना और खलनायक देखा। विरोध और समर्थन के अंतरविरोधों के बीच यह फैसला भारतीय सामाजिक राजनीतिक इतिहास का मील का पत्थर बना और राजनीति की व्याकरण हमेशा के लिए बदल गई। हालांकि निजी तौर पर वीपी सिंह के इस फैसले से जहां उनके हमदर्द बने जातीय समूह अपनी-अपनी जाति के देवता चुन-चुन कर उन-उन के हिमायती हो गए, वहीं इससे खार खाए लोगों ने उन्हें कभी माफ नहीं किया। 1990-91 के बाद खुद को राजनीति से स्व निर्वासन का दंड देते या लाभ लेते वीपी सिंह जिंदगी का हिसाब करते और गुमनामी के परिचय के इच्छुक दिखे और उन्होंने लिखा-आईने में, शक्ल तो हूबहू मेरी ही है/पर उसमें मेरी आवाज क्यों नहीं?/एक के पीछे दिल है/दूसरे के पीछे दीवार है।
राजनीति उनके सार्वजनिक जीवन का कर्म था और उम्दा कविता व चित्रकारी उनके निजत्व की कलात्मक अभिव्यक्ति। निमर्म राजनीति और सृजनात्मकता में जब स्वभाविक विरोध का ही संबंध हो तो वीपी सिंह जैसा बहुआयामी समग्र व्यक्तित्व ही पुल बन सकता है। कुछ आलोचक पत्रकारों ने, इन परस्पर विरोधी अथवा सर्वथा भिन्न शैलियों के उनके व्यक्तित्व में सुसंबन्धित व व्यवस्थित होने तथा एक-दूसरे के प्रति तटस्थ होने के कारण, उनमें बहुव्यक्तित्व दोष की आशंका जताई वहीं उनके समर्थक व प्रशंसकों ने इस बहुआयामी व्यक्तित्व को सरलता से बहुमुखी प्रतिभा माना।
1987-91 के दौर की अपनी राजनीति महत्वाकांक्षाओं को वो नहीं नकारते, पर सत्ता लोलुप होने के आरोपों का जवाब तो 1990 में समझौते के बजाए, आडवाणी का रथ रोक गिरफ्तार करवा, सत्ता खोने का जोखिम उठाकर वो दे ही चुके थे। उनके जीते जी और मरणोपरान्त उनके कद व अवदान को काटने-छांटने, मिटाने-छिपाने की कोशिशें और साजिशें बहुत हुई। उन्होंने लिखा-होती है सीने में कुछ ऐसी बात/चिता भी नहीं कर पाती उसे राख!/मुझे क्या जलाओगे/क्या कभी राख को भी आग लगी है।
ये बेवजह नहीं, वह राज-काज नहीं, श्मशान की भभूत लपटे लेने के इच्छुक विश्वनाथ रहे।