द्रौपदी मुर्मू का देश का 15वां महामहिम बनना, निस्संदेह, हमारे संवैधानिक लोकतंत्र की उन गिनी-चुनी घटनाओं में से एक है, जिन पर गर्व किया जा सकता है। लेकिन विडम्बना देखिये: कई राजनीतिक जमातों को इस गर्व की अनुभूति में भी अपने स्वार्थों की साधना से परहेज गवारा नहीं है। इसीलिए उन्होंने मुर्मू के राष्ट्रपति बनने वाली पहली आदिवासी महिला होने को अपनी गवार्नुभूति की एकमात्र टेक बना रखा है। कुछ इस तरह जैसे जताना चाहती हों कि उनको इस पद से नवाजकर उन्होंने आदिवासियों पर ऐसी अनुकम्पा कर दी है, जिसके बदले में निहाल होकर उन्हें अगले कई चुनावों में उनकी वोटों की झोली भरते रहना चाहिए। थोड़ा पीछे जाकर याद कीजिए: 1997 में इन्द्रकुमार गुजराल के प्रधानमंत्रीकाल में हुए दसवें राष्ट्रपति चुनाव के सीधे मुकाबले में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन को हराकर केआर नारायणन पहले दलित राष्ट्रपति बने और तत्कालीन सत्ताधीशों ने इसका वैसा ही क्रेडिट लेना चाहा, जैसा आज के सत्ताधीश मुर्मू के संदर्भ में ले रहे हैं, तो कई लोगों ने राष्ट्रपति पद को शोभा का पद करार देकर उसकी मार्फत दलितों पर इमोशनल अत्याचार के लिए उनकी भरपूर खिल्ली उ़ड़ाई थी। अलबत्ता, पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने यह कहकर उनका मुंह बंद करा दिया था कि इससे पहले तो दलित शोभा के पदों से भी वंचित किए जाते रहे हैं।
तब से अब तक देश की नदियों में बहुत पानी बह चुका है, फिर भी द्रौपदी मुर्मू के बहाने आदिवासी वैसे ही इमोशनल अत्याचार के शिकार बनाए जा रहे हैं, जैसे 1997 में केआर नारायणन के बहाने दलित बनाए गए थे, तो यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि इस अत्याचार पर आदिवासी निहाल क्यों हो? देश में राष्ट्रपति चुनाव से जुड़ी कई नजीरें साबित करती हैं कि ‘अपने राष्ट्रपति’ जैसे प्रतीकात्मक गर्वों से किसी को कुछ हासिल नहीं होता। इसे यों समझ सकते हैं कि द्रौपदी पहली आदिवासी तो दूसरी महिला राष्ट्रपति बनी हैं। इससे पहले 2007 में प्रतिभा देवी सिंह पाटिल पहली महिला राष्ट्रपति बनीं तो देश को श्रीमती इंदिरा गांधी के रूप में पहली महिला प्रधानमंत्री हासिल हुए कई दशक बीत चुके थे। लेकिन इससे आम महिलाओं के जीवन में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं ही आया।
आता तो विधायिका में उनके लिए 33 प्रतिशत सीटों के आरक्षण का मामला अब तक लटकता नहीं आता। तिस पर सोचिये जरा, पहले सिख राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के वक्त दिल्ली में हुए सिखविरोधी दंगों के सारे पीड़ितों को पहले सिख प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के दस साल के कार्यकाल के बाद भी इंसाफ नहीं मिल पाया है और तीन-तीन मुस्लिम राष्ट्रपतियों-जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद और एपीजे अब्दुल कलाम के बावजूद सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि कई मायनों में मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है। ऐसे में द्रौपदी मुर्मू अपने पांच सालों में आदिवासी समुदायों का भला कितना भला कर पाएंगी?
इसका एक ही जवाब है-जरा भी नहीं कर पाएंगी। इसके मोटे तौर पर दो कारण हैं। पहला यह कि पहले के राष्ट्रपतियों के वक्त हम अपने संवैधानिक पदों की मजबूती को लेकर कमोबेश आश्वस्त हुआ करते थे। उनका आज जितने क्षरण की तब कल्पना भी नहीं की जाती थी। फिर भी उनसे कुछ करते नहीं बना तो अब मुर्मू से कैसे बनेगा? दूसरा कारण यह कि हमारे देश में अपवादों को छोड़कर राष्ट्रपति पद की सारी शक्तियां प्रधानमंत्री के नेतृत्व पाली मंत्रिपरिषद की सलाह की मोहताज हंै। इस लिहाज से भी सीधे कुछ कर पाना द्रौपदी के वश में नहीं ही है।
द्रौपदी देश की प्रथम नागरिक बन गई हैं और आगे चलकर उनकी परीक्षा की कसौटी यही होगी कि वे संवैधानिक उसूलों के साथ किसी भी छेड़छाड़ के वक्त किसी के खुश या नाराज होने की चिंता किए बगैर दृढ़निश्चय से भरे फैसले लेंगी या चुपचाप सब कुछ यथावत चलते रहने देकर चुनाव प्रचार के दौरान अपने प्रतिद्वंद्वी यशवंत सिन्हा द्वारा लगाए गए आरोपों को सही सिद्ध करेंगी? दूसरे शब्दों में कहें तो सवाल यह है कि वे उन्हें उम्मीदवार बनाने वाली भाजपा के प्रति निरपेक्ष रहकर नीर-क्षीर विवेक का परिचय दे पाएंगी या नहीं? यकीनन, उनसे इस नाते भी कुछ ज्यादा अपेक्षाएं की जाएंगी कि वे उड़ीसा के जिस आदिवासी इलाके से आती हैं, वहां उन्होंने आम लोगों को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से लेकर मानवोचित सम्मान तक के लिए संघर्ष करते देखा है। आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्गों के शोषण की भी वे साक्षी रही हैं।
लेकिन यह मानने के एक नहीं कई कारण हैं कि वे सच्चे मन से इन अपेक्षाओं को पूरी करने चलेंगी तो उन्हें सबसे ज्यादा चुनौती उस भारतीय जनता पार्टी की ओर से ही मिलेगी, जिसने उनके ही शब्दों में उन्हें ‘छोटे से गांव की झोंपड़ी से देश के राष्ट्रपति महल तक’ की ऐसी ‘सफल’ यात्रा कराई है, जिसे बयान करने के लिए वे शब्द नहीं तलाश पा रहीं। आखिरकार इस बाबत देश में किसको संदेह है कि आदिवासी महिला के तौर पर उन्हें राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठाने के पीछे भाजपा का उद्देश्य क्या है? उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देश में हिन्दू राष्ट्र तथा मनुवादी व्यवस्था कायम करने का अपना एजेंडा पूरा करना है या नहीं? उसके लिए इससे बढ़कर सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है कि यह एजेंडा एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपतित्व में पूरा हो?
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डॉ. रामबहादुर वर्मा की मानें तो पिछड़े व दलित चेहरों को आगे कर हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाना भाजपा की राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है, जिसमें भाजपा के टिकट पर जीती पिछड़े तथा दलित समाजों की कोई शख्सियत कितनी भी ऊंची कुर्सी पर क्यों न बैठे, उसे संघ व भाजपा के एजेंडे को पूरा करने को मजबूर होना पड़ता है-भले ही वह एजेंडा पिछड़ों एवं दलितों के हितों के विरुद्ध हो। नरेंद्र मोदी सरकार इन्हीं समाजों के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों एवं मंत्रियों की मार्फत ही तो सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों शिक्षण-संस्थानों व तकनीकी संस्थानों को योजनाबद्ध तरीके से निजी क्षेत्र को सौंपने का अभियान चला रही है।
बहरहाल, स्वागत है नई महामहिम, कहने से पहले दो बातें उन राजनीतिक जमातों से, जो खुद को आरएसएस व भाजपा के एजेंडे के विरुद्ध बताकर भी इस डर से उनकी आदिवासी महिला राष्ट्रपति पद प्रत्याशी का विरोध नहीं कर पाए कि आदिवासी समुदाय उनसे नाराज हो जाएंगे। क्या अब ये जमातें इतनी अक्षम हो चली हैं कि मतदाताओं को इतना भी नहीं समझा सकती थीं कि मुर्मू का विरोध आदिवासियों का नहीं, भाजपा के उस वर्चस्ववादी हिंदुत्व का विरोध है, जो आदिवासियों समेत सारे दलितों व पिछड़ों की दुर्दशा का कारण है? कल भाजपा किसी दलित को प्रधानमंत्री या किसी राज्य के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दे तो भी क्या ये जमातें उसके सामने इसी तरह आत्मसमर्पण कर देंगी?