महात्मा गांधी को समझने के लिए हमारा हृदय निर्मल होना चाहिए। अपने दिल में नफरत पालकर हम गांधी को नहीं समझ सकते। आमतौर पर इस पढ़े लिखे समाज में जब गांधी पर कोई चर्चा होती है तो उसमें हास्य का भाव ज्यादा होता है। लोगों को लगता है कि इस दौर में गांधी के आदर्शों को अपनाकर जिंदगी नहीं चल सकती। सवाल यह है कि गांधी के आदर्श क्या हैं? सत्य, अहिंसा और ईमानदारी ही तो गांधी के आदर्श हैं। क्या हम अपने बच्चों को यह शिक्षा देते हैं कि खूब झूठ बोलो, लड़ाई-झगड़े करो और बेईमानी के रास्ते पर चलो। बेईमान व्यक्ति भी अपने बच्चों को सीधे तौर पर ऐसी शिक्षा नहीं देता है। यह बात अलग है कि बच्चे व्यावहारिक रूप से अपने पिता की बेईमानी देखकर उसी रास्ते पर आगे बढ़ने लगते हैं।
हम अपने घर में भी बच्चों को अच्छा बनने की ही शिक्षा देते हैं। फिर क्या कारण है कि हम गांधी के रास्ते को व्यावहारिक नहीं मानते? गांधी का रास्ता हमें मुश्किल लगता है।कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर धार्मिक कर्मकाड़ों और बड़े-बड़े पंडाल में आयोजित होने वाली रामकथाओं तथा श्रीमद्भागवत कथाओं का उद्देश्य भी पुण्य की गंगा बहाना ही बताया जाता है।
कुल मिलाकर हम सब अच्छाई को ही स्थापित करना चाहते हैं। हालांकि पूरी तरह समाज में अच्छाई स्थापित नहीं हो पाती है। गांधी भी अच्छाई ही स्थापित करना चाहते थे। समाज में अच्छाई का उपदेश देने वाले वाले साधु-संतों और मुल्ला-मौलवियों के आगे हम नतमस्तक हो जाते हैं लेकिन सच्चे अर्थों में अच्छाई स्थापित करने की कोशिश करने वाले गांधी को हम हास्य के तौर पर क्यों देखने लगते हैं? क्या यह हमारा खोखला आदर्शवाद नहीं है?
आमतौर पर यह कहा जाता है कि इस दौर में शांत रहकर गांधी के अहिंसा के सिद्धान्त को नहीं अपनाया जा सकता। अगर हम शांत रहेंगे तो इसे हमारी कमजोरी मान लिया जाएगा। गलत बातों का प्रतिकार करना और शांत रहना दो अलग बातें हैं। अगर हम शांत प्रवृत्ति के हैं और शांति व अहिंसा चाहते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम गलत बातों का प्रतिकार नहीं कर सकते। गांधी ने शांत रहकर अहिंसा के माध्यम से ही गलत बातों का प्रतिकार किया। लेकिन क्या इस दौर में यह संभव हो सकता है? इस दौर में यह मुश्किल जरूर है, लेकिन असंभव नहीं। शांति और अहिंसा की अपनी एक अलग शक्ति होती है।
इस समय हमने ऐसा वातावरण बना दिया है कि हमारे लिए इस शक्ति को महसूस करना थोड़ा मुश्किल हो गया हैै। हम इतनी हड़बड़ी में हैं कि इस शक्ति को महसूस नहीं करना चाहते। हम हिंसा के माध्यम से दूसरे को तत्काल दबा देना चाहते हैं। आर्थिक समृद्धि ने हमारी मानसिकता में एक बड़ा परिवर्तन किया है। इस परिवर्तन से उपजे आत्मविश्वास के कारण हम हर किसी को देख लेने की धमकी देने लगे हैं।
गांधी ने किसी को देख लेने की धमकी नहीं दी और अहिंसा के माध्यम से ही अंग्रेजों को देख लिया। अहिंसा के प्रयोग को हमने कमजोरी से जोड़ लिया है। हमें यह डर रहता है कि यदि हम अहिंसा के मार्ग पर चलेंगे तो कमजोर मान लिए जाएंगे। जब तक हम अहिंसा के प्रयोग से डरते रहेंगे तब तक अहिंसा की शक्ति को महसूस नहीं कर पाएंगे। हम यह नहीं समझ पाते हैं कि हिंसा की शक्ति तात्कालिक होती है लेकिन अहिंसा की शक्ति दीर्घकालिक होती है।
अगर हम दीर्घकालिक शक्ति के मार्ग पर चलेंगे तो कुछ समय बाद तात्कालिक शक्ति कमजोर हो जाएगी। जब लोग धीरे-धीरे अहिंसा की शक्ति समझने लगेंगे तो हिंसा के खत्म होने की संभावना बढ़ जाएगी। लेकिन इस प्रक्रिया के लिए धैर्य की जरूरत है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारे पास धैर्य की कमी है और हम गांधी पर यह आरोप लगाते हैं कि इस दौर में अहिंसा और ईमानदारी के माध्यम से कुछ संभव नहीं हो सकता।
दरअसल जब भी दो देशों के बीच युद्ध होता है या फिर दो लोगों या परिवारों के बीच लड़ाई-झगड़ा होता है तो कुछ समय बाद हमें शांति की ही बात करनी पड़ती है। ऐसी अनेक घटनाएं घटित हुई हैं कि जब खेत की एक इंच डोल काटने को लेकर हुआ विवाद कई सालों तक चला और गांव के इस विवाद में दोनों तरफ के परिवार खत्म हो गए। जब दो देशों के बीच हो रहे युद्ध या पारिवारिक विवाद के खत्म होने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता है तो कुछ समय बाद यही कहा जाता है कि भाई आपस में बैठकर शांति से इस विवाद को सुलझा लो। यानी जब खूब मारकाट हो जाती है तो हमें गांधी का रास्ता ही याद आता है। इसीलिए इस दौर में भी गांधी प्रासंगिक है। गांधी के प्रति पूर्वाग्रहों के कारण ही यह कहा जाता है कि इस दौर में गांधी प्रासंगिक नहीं हैं।
सवाल यह है कि एक जमाने में जिस गांधी के पीछे लाखों लोग हो लेते थे, आज उसी गांधी के बारे में नकारात्मकता का भाव क्यों है ? हमारे पुरखों ने गांधी में कुछ अच्छाइयां देखी होंगी, तभी उन्होंने गांधी पर भरोसा जताया। आज हम गांधी में बुराइयां ढूंढ़ रहे हैं। गांधी में बुराइयां ढूंढ़कर हम अपने पुरखों पर ही भरोसा नहीं जता रहे हैं और एक तरह से अपने पुरखों को ही कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। ऐसे-ऐसे लोग गांधी को दोषी सिद्ध कर रहे हैं जो अपने बच्चों और परिवार को नहीं संभाल सकते। गांधी पर सवाल उठाना कोई अपराध नहीं है लेकिन हमें कुछ सवाल स्वयं से भी पूछने चाहिएं। हमें स्वयं से यह सवाल भी पूछना चाहिए कि हम इस दौर में गांधी के संदर्भ में जिस नकारात्मक ज्ञान पर हम भरोसा कर रहे हैं, उसका स्रोत क्या है ?
क्या इस नकली ज्ञान के सहारे आजादी प्राप्त की जा सकती थी? इस पीढ़ी में अनेक लोग ऐसे हैं जो अपने दादा और पिता पर ही उंगली उठाकर कहते हैं कि आपने हमारे लिए क्या किया, ऐसे में यह पीढ़ी अगर गांधी पर उंगली उठा रही है तो आश्चर्य कैसा? गांधी पर सवाल उठाना और स्वयं सवालों से बच जाना बहुत आसान है। दूर खड़े होकर गांधी को नहीं समझा जा सकता है। गांधी को समझने के लिए हमें गांधी के पास जाना होगा। कौन हैं वे लोग जिन्हें गांधी के पास जाने से डर लगता है? निश्चित रूप से हिंसक लोगों को गांधी के पास जाने से डर लगता है। ऐसे लोग ही डरकर गांधी पर विभिन्न आरोप लगाते हैं। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जो लोग गांधी जैसे अहिंसक और प्रेमी इंसान से भी डरते हैं वे कितने कमजोर लोग हैं। जाहिर है कमजोर लोग गांधी को नहीं समझ सकते। गांधी को समझने के लिए प्रेम की शक्ति चाहिए।