असलियत में आज जोशीमठ तबाही की ओर अग्रसर है। इसका अहम कारण भूधंसाव है, जिसके चलते वह दिन ब दिन विलुप्ति की ओर बढ़ रहा है। वह बात दीगर है कि इसके लिए आज अलग-अलग कारण गिनाए जा रहे हैं, लेकिन हकीकत में तो इसके पीछे प्रकृति से छेड़छाड़ और उन चेतावनियों-निर्देशों की अनदेखी अहम है जो सामरिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस इलाके के संरक्षण हेतु समय-समय पर दिए गए थे और यहां की स्थिति के मद्देनजर एक शहरी नियोजन की नीति निर्धारण की सिफारिश की गई थी। उस स्थिति में जबकि जोशीमठ की पवित्र बदरीनाथ धाम और हेमकुंड साहिब के गेट वे के रूप में ख्याति है और आदि शंकराचार्य का प्रसिद्ध ज्योतिष्मठ भी यहां है। चेतावनियों की अनदेखी का मामला अभी हुआ है, ऐसी भी बात नहीं है। उनकी अनदेखी का यह सिलसिला तो दशकों से जारी है।
हालात इतने बिगड़ गए, तब कहीं जाकर वहां एनडीआरएफ और एसडीआरएफ की कई टीमें जोशीमठ आंकलन करने पहुंची हैं और राहत व बचाव के कामों को अंजाम दे रही हैं। आखिर ऐसा अब क्यों हो रहा है। बीते 47 सालों से स्थानीय प्रशासन और सरकारें क्या सो नहीं रही थीं।
इस दौरान भी इस इलाके का एक बार सर्वे हुआ हो, ऐसा भी नहीं, तकरीब पांच बार वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसका सर्वे किया गया, प्रख्यात पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट जी आदि ने उन सर्वेक्षणों में अहम भूमिका निभाई और अपनी रिपोर्टें दीं, लेकिन उनका क्या हुआ। वे सभी ठंडे बस्ते में डाल दी गई। यही नहीं, समय-समय पर इस इलाके का जियोलाजिकल, जियो टेक्निकल और जियो फिजीकल अध्ययन कराने की संस्तुतियां की गर्इं, जिनकी कभी जरूरत महसूस ही नहीं की गई।
बीते साल के अक्टूबर महीने में विशेषज्ञों ने अपनी 28 पेज की रिपोर्ट में चेताया था कि जोशीमठ की जमीन कमजोर है और 2021 की ऋषिगंगा की बाढ़ और अक्टूबर में हुई 1900 मिलीमीटर भीषण बारिश के बाद यहां भूधंसाव तेजी से देखने को मिल रहा है जो चिंतनीय है। कारण ऋषिगंगा की बाढ़ के चलते आए भारी मलबे से अलकनंदा के बहाव में बदलाव आया जिससे जोशीमठ के निचले इलाके में हो रहे भूकटाव में बढ़ोतरी हुई। साथ ही अक्टूबर महीने में तीसरे हफ्ते यानी 17 से 19 तारीख के बीच हुई 1900 मिमी भीषण बारिश से रविग्राम व नऊ गंगा नाला क्षेत्र में बढ़े भूकटाव से जोशीमठ में भूधंसाव की घटनाओं में तेजी से बढ़ोतरी हुई।
फिर सरकार को इस इलाके में जल विद्युत परियोजनाओं की मंजूरी ही नहीं देनी थी जिसके लिए निर्माण कंपनियों ने सुरंगें बनाने के लिए विस्फोट किए। नतीजतन पहाड़ छलनी हो गए, खंड-खंड हो गए। इससे जोशीमठ ही नहीं समूचे उत्तराखंड में जहां-जहां पन बिजली परियोजनाओं पर काम हो रहा है, वहां सभी की कमोबेश यही स्थिति है। जबकि पर्यावरण विज्ञानी, पर्यावरणविद बरसों से इस बाबत सरकार को चेता रहे हैं कि जल विद्युत परियोजनाएं इस अति संवेदनशील इलाके के हित में नहीं हैं।
इन्होंने उत्तराखंड को संकट में डाल दिया है और विनाश के मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया है। आईपीसीसी की रिपोर्ट भी इसकी पुष्टि करती है कि यह समूचा इलाका आपदा संभावित संवेदनशील क्षेत्र है। यहां पर ढांचागत विकास हेतु पर्यावरण अनुकूल योजनाएं बनानी चाहिए और बिजली उत्पादन के लिए दूसरे तरीकों की तलाश की जानी चाहिए। यहां पनबिजली परियोजनाओं से लाभ नहीं बल्कि पर्यावरण का जो नुकसान होगा, उसकी भरपायी असंभव होगी।
इससे यह साफ है कि जोशीमठ भावी आपदा का संकेत है जिसका जनक मानव है। इसके पीछे आबादी और बुनियादी ढांचे में कई गुणा हुई अनियंत्रित बढ़ोतरी की भूमिका अहम है। अब इसे कस्बा कहना उचित नहीं होगा क्योंकि अब भले यह 25-30 हजार की आबादी को पार कर गया है, उस स्थिति में इस शहर में जल निकासी की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है।
वैज्ञानिक तथ्य इसके सबूत हैं कि चट्टानों के बीच महीन सामग्री के क्रमिक अपक्षय की वजह से हुए पानी के रिसाव से भूधंसाव हुआ है। उसके परिणाम स्वरूप मकानों में दरारें आ रही हैं। फिर विस्फोट के जरिये सुरंगों के निर्माण से भूकंप के झटकों की आवृत्ति भी बढ़ रही है। अब तो दरारों का दायरा ज्योतिर्मठ और शहर के बाजारों तक पहुंच गया है। यह संकेत है कि यह सिलसिला थमने वाला नहीं और भीषण आपदा को आमंत्रण दे रहा है।
अब तो नैनीताल, कमजोर पत्थरों पर टिका चंपावत और चूने की पहाड़ियों पर टिका उत्तरकाशी इससे अछूता नहीं हैं। चंपावत के सूखीडांग के पहाड़ तो सबसे कमजोर हैं। कुमांऊं विश्व विद्यालय के भूगर्भ विज्ञानी बीएस कोटालिया की मानें तो नैनीताल के मुहाने पर स्थित बनियानाला के समूचे पहाड़ का इलाका हर साल एक मीटर की दर से दरक रहा है जो खतरे का संकेत है।
यह इलाका भी भूस्खलन और भूधंसाव के लिहाज से काफी गंभीर है। दुख तो इस बात का है कि सरकार ने 2013 की केदारनाथ आपदा और 2021 की ऋषिगंगा की बाढ़ से भी कोई सबक नहीं सीखा। यह समझ नहीं आता कि सरकार उत्तराखंड को खत्म करने पर क्यों तुली है।
इस बर्बादी के लिए कौन जिम्मेदार है। सरकार और प्रशासन तो इसके लिए जिम्मेदार हैं ही, वहां के लोग भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं, जिन्होंने जानते-बूझते जहां चाहा, वहीं मकान बनाए। स्थानीय प्रशासन को भी यह देखना चाहिए था कि आखिर इस संवेदनशील क्षेत्र में इस तरह के भवन निर्माण क्यों हो रहे हैं और यदि हो रहे हैं तो उन्हें रोका जाना था।