कुंभ क्षेत्र में पहले आग लगी, टेंट जले, सिलेंडर फटे और मौनी अमावस्या के दिन हुई भगदड़ से कुचलकर 30 श्रद्धालुओं की असमय मौत? ये सब बदइंतजामी, सिस्टम का कु-प्रबंधन, वीवीआईपी कल्चर की आधुनिक डरावनी तस्वीर, अव्यवस्थाओं और तमाम पूर्ववर्ती दुखद घटनाओं से कुछ न सीखने का नतीजा मात्र है। मौनी अमावस्या के दिन ‘अमृत स्नान’ क्यों ‘अमृत मुत्यू’ में तब्दील हुआ, इसकी जवाबदेह जिनकी है, उन्हें आगे आकर सभी आरोपों को सहस्र स्वीकारना होगा। राज्य सरकार ने हादसे के बाद एक न्यायिक कमेटी गठित की है। जो अगले 15 दिनों में अपनी रिपोर्ट शासन को देगी। सवाल उठता क्या वो रिपोर्ट वर्ष-1954 के पहले कुंभ के दौरान हुए हादसे जैसी निष्पक्ष और असरदार रहेगी? आजादी के बाद पहले कुंभ के आयोजन में बड़ा हादसा हुआ था जिसमें सैकड़ों लोगों की जानें गर्इं थीं। केंद्र में हूकुमत तब पंडित जवारहर लाल नेहरू की थी। सरकार ने, कमल कांत वर्मा की अगुआई में एक जांच कमेटी बनाई थी, जिसने सीधे केंद्र सरकार को घटना को कसूरवार माना था और वीआईपी व्यवस्था को हादसे का मुख्य कारण बताया था। उसके बाद केंद्र सरकार ने कुंभ मेले से वीआईपी व्यवस्था खत्म कर सभी कुंभ आयोजन सामान्य तरीके से संपन्न करवाए थे। पर, बीते दो दशकों से ये प्रक्रिया फिर से आरंभ हुई और तेजी से हुई। महाकुंभ में एक साथ 10 करोड़ लोगों की भीड़ को संभालना निश्चित रूप में अपने-आप में किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है? 144 वर्षों बाद लगने वाले महाकुंभ के मेले में अप्रत्याशित भीढ़ बढ़ेगी जिसे नियंत्रित करने में शासन-प्रशासन को मुकम्मल मशक्कत करने के बाद भी घटनाओं के घटने की आशंका पहले से थी। बावजूद इसके प्रशासन ने कमर नहीं कसी, उनका पूरा जोर वीवीआईपी की सेवाओं में लगा रहा। रोज कोई न कोई बड़ा मंत्री-नेता कुंभ में डुबकी लगाने पहुंच रहा है। सुरक्षा में लगे लोग उन्हीं में व्यस्त रहते थे और भोलीभाली जनता रामभरोसे? हास्यास्पद बात तो ये है प्रशासन द्वारा जो अपील घटना के बाद की गई, वो पहले क्यों नहीं? जैसे कि अमृत स्नान श्रद्धालु जहां हैं वहीं कर लें, संगम नोज जाने की जगह जो घाट नजदीक हैं वहीं डुबकी लगा लें? ये अनाउंस पुलिस अधिकारियों ने तब किया जब भगदड़ में तकरीबन 30 लोग मारे जा चुके थे। वीवीआईपी कल्चर के बाद ये दूसरी बड़ी खामी है जो सामने निकलकर आई। 47 दिनी कुंभ का शेष आधा भाग अभी बचा है जिसमें दो शाही स्नान भी शेष हैं? जिसके लिए प्रशासन ने अब वीआईपी कल्चर खत्म किया है। जबकि, इसे लागू ही नहीं किया जाना था।
बहरहाल, घटना की जांच मुआवजा, अफसोस, आंसू टपकाने, एकाध अधिकारियों के सस्पेंशन और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों तक न सीमित रहे? संपूर्ण निष्पक्ष जांच के अलावा भविष्य में ऐसी गलतियां न हो, उसके लिए शासन-प्रशासन को संकल्पित होना होगा। ताज्जुब वाली बात एक ये भी है कि मौजूदा कुंभ मेले में सुरक्षा की दृष्टि से हर वो कोशिश की जा रही है जिसे क्या जाना चाहिए। जैसे, भीड़ प्रबंधन नियंत्रण में आधुनिक लेटेस्ट टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल, हजारों-लाखों कैमरे का जाल बिछाना, हैलीकॉप्टर से डृन कैमरों से निगरानी करना, पार्किंग व्यवस्थाओं में रूट डाईवर्जन मैप, पुलिस बैरिकेडिंग व उत्तर प्रदेश की तकरीबन जिलों की पुलिस का मेला क्षेत्र में जमावड़ा होने के बाद भी पूर्व की तय व्यवस्थाएं चरमरा गर्इं। हालांकि, 2013 में इसी प्रयागराज में, 2010 में हरिद्वार, 1992 में उज्जैन और वहीं 2003 में नासिक कुंभ में भी हुई भगदड़ की घटनाएं घटी थी। इस तरह के आयोजनों में ये सिलसिला दशकों से बदस्तूर जारी है। यहां एक सवाल ये भी उठता है कि हम पुराने हादसों से सबक क्यों नहीं लेते?
कुंभ के प्रचार-प्रसार में राज्य सरकार से लेकर केंद्रीय स्तर पर कोई कमी नहीं छोड़ी गई। पैसा पानी की तरह बहाया गया। सरकार के मंत्री पिछले माह भर से घूम घूम कर गणमान्यों को कुंभ में आने का न्यौता बांट रहे थे। लेकिन अब अव्यवस्थाओं और बदइंतजामी को लेकर निमंत्रण बांटने वाले भी कुछ नहीं बोलेंगे? खुदा-न-खास्ता अगर इनके बुलाए लोग भी हादसे का शिकार हो जाते तो? प्रयागराज के पूरे 35 किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले मेले में नेताओं के बड़े-बड़े फोटो लगे हैं। जबकि, इस तरह के प्रचार-प्रसारों से राजनेताओं को परहेज करना चाहिए। आयोजन पहले भी हुए, तब ऐसा नहीं होता था। शंकराचार्यों से लेकर तमाम संत भी इस बात को लेकर बेहद नाराज हैं। जारी मौजूदा महाकुंभ के आयोजन में जितना पैसा खर्च किया जा रहा है, उतने में भारत के 100 गरीब गांवों की गरीबी खत्म की जा सकती थी। आयोजन हो, इसके पक्षधर सभी हैं। पर, आयोजनों की आड़ में दिखावा और आडंबर न हो?
घटना के बाद बदइंतजामी को लेकर तीखे सवालों का सामना जिम्मेदारों को करना ही होगा? इतने बड़े हादसे के बाद सिस्टम सवालों से भाग नहीं सकता। जवाब तो देना ही पड़ेगा? घटना के बाद एक मंत्री का ये कहना कि ऐसे आयोजनों में छोटी-मोटी घटनाएं होती ही हैं, को भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। वहीं, बाबा बागेश्वर धाम वाले धीरेंद्र शास्त्री कहते हैं कि भारत का जो व्यक्ति कुंभ नहाने नहीं जाएगा, वो देशद्रोही कहलाएगा? कोई उनसे पूछे बॉर्डर पर तैनात वह सैनिक क्या सोचते होंगे जो हमारी सुरक्षा में दुश्मनों पर चौबीस घंटे आंख गड़ाए बैठे हैं। क्या उन्हें भी बॉर्डर की सुरक्षा छोड़कर कुंभ नहाने जाना चाहिए? कुंभ जैसी आस्था को राजनीतिक स्वार्थ से पिरो देनी वाली हरकतें मन विचलित करती हैं। कह सकते हैं, आयोजन से लोग ‘पुण्य’ कम ‘पाप’ ज्यादा कमा रहे हैं।