सुधांशु गुप्त |
अजीब लगता है। मगर सच है। कहानी, उपन्यास, नाटक, कविता, संस्मरण, विचार, वैचारिक लेख, और साहित्य की अन्य विधाओं से सरकारें डरती हैं। सरकार के भीतर का यह डर नया नहीं है। सदियों पुराना है। शायद यही कारण है कि देश के भीतर और बाहर सरकारें शब्द की सत्ता पर आज भी पहरे बिठाती हैं, बिठाना चाहती हैं, बावजूद इसके कि इंटरनेट के इस युग में किसी भी रचना के फैलाव को रोकना संभव नहीं है। विचार का सरकार विरोध करे, यह बात तो एकबारगी समझ आती है, लेकिन कथा-कहानी (फिक्शन) या कविता का विरोध यह दिखाता है कि इन विधाओं में भी विचार कितना ताकतवर हो सकता है। विचार की इस ताकत को समझने के लिए इतिहास की तरफ लौटना होगा। वह इतिहास जब ब्रिटिश सरकार भारतीय नागरिकों, क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों, साहित्यकारों और पत्रकारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के लिए हर तरह का कानूनी और गैर कानूनी प्रयास कर रही थी। यह दिलचस्प बात है कि 1857 से लेकर 1947 यानी देश के आजाद होने से एक दिन पहले तब देश में लिखा जा रहा बहुत-सा साहित्य ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त किया गया। जाहिर है इस जब्ती की वजह वह डर ही रहा होगा, जो सरकारों को अपनी सत्ता के छिन जाने को लेकर होता है। इस जब्त साहित्य का कोई सिलसिलेवार विवरण हमारे पास उपलब्ध नहीं है। सब कुछ बेतरतीब और बिखरा हुआ है। इस बिखरे हुए को सिला देने का काम किया है उत्तर प्रदेश के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा 48 वर्षों से निकल रही पत्रिका ‘उत्तर प्रदेश’ ने- ‘जब्तशुदा साहित्य विशेषांक’ निकालकर। इस पत्रिका के अतिथि सम्पादक हैं-विजय राय। वह लमही जैसी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका निकालते हैं। पत्रिका की नियमित सम्पादक हैं कुमकुम शर्मा (उप निदेशक, सूचना)। इस महा-आयोजन से और भी अनेक सरकारी अधिकारी जुड़े हैं-जुड़े होंगे।
इस महत्वपूर्ण अंक में यूं तो जब्त बहुत-सी सामग्री पर लेख हैं, लेकिन यहां सिर्फ कहानियों, कविताओं, जब्त पुस्तकों, जब्त उपन्यास, जब्त आत्मकथा और जब्त आत्मकथा पर बात होगी। 338 पेज के इस अंक में 8 कहानियां हैं। प्रेमचंद की दो कहानियां-यही मेरा वतन, शेख मखमूर, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की दो कहानियां-उसकी मां, जल्लाद, सज्जाद जहीर की नींद नहीं आती, आचार्य चतुसेन शास्त्री की फंदा और अहमद अली की महावटों की रात। पत्रिका में आशुतोष पार्थेश्वर का एक लेख है: यही मेरा वतन: राजद्रोह के ख्याल से सबसे नजदीक। इसमें वह लिखते है: यही मेरे वतन को ‘सोजे-वतन’ संग्रह की तुलना में राजद्रोह के विचार के सबसे नजदीक माना गया। अपने ‘जीवन-सार’ में प्रेमचंद ने लिखा है कि जिलाधिकारी के सामने उनकी पेशी हुई और उन्हें लिखित सफाई देनी पड़ी। मामला लेफ्टिनेंट गवर्नर तक पहुंचा, प्रेमचंद को ‘सोजे-वतन’ की अनबिकी प्रतियां जमा करानी पड़ीं और यह लिखकर देना पड़ा कि बिना सेंसर हुए वे कुछ भी प्रकाशित नहीं करायेंगे। प्रेमचंद की शेख मखमूर कहानी भी इस अंक में है। उग्र की दो यादगार कहानियां-उसकी माँ और जल्लाद आप एक बार फिर पढ़ सकते हैं। ‘उसकी मां’ कहानी को पढ़कर अनायास मैक्सिम गोर्की के उपन्यास मां की याद आ जाती है। उग्र ने अपनी इस कहानी में दिखाया है कि एक मां अपने किशोर बेटे और उसके दोस्तों के साथ हंसती बोलती है। वह नहीं जानती कि ये किशोर अंग्रेजों के विरुद्ध षडयंत्र कर रहे हैं। मां यही सोचती है कि ये मासूम से बच्चे भला क्या षड्यंत्र करेंगे। बाद में पुलिस इन सब बच्चों को गिरफ्तार कर लेती है और उन्हें फांसी की सजा हो जाती है। कहानी में एक तरफ जहां किशोरों के भीतर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने का जज्बा दिखाई देता है, वहीं मांएं भी बच्चों के साथ दिखाई देती हैं। उग्र की ही कहानी है ‘जल्लाद’। इस कहानी में दिखाया है कि किस तरह जल्लाद के मन में भी ब्रिटिश सरकार के प्रति द्रोह की भावना भड़क रही है। वह मशहूर डाकू को भगाने वाले छोकरे को फांसी पर लटकाने की बजाय खुद फांसी पर लटक जाता है। आचार्य चतुसेन शास्त्री की कहानी ‘फंदा’ एक ऐसी स्त्री के त्याग की कहानी है जिसे अंग्रेजों ने फांसी सजा दी है। पत्नी पति के वियोग में कोई समझौता नहीं करती और स्वयं मृत्यु का चुनाव करती है। अन्य कहानियों में भी राजद्रोह की भावना शिद्दत से दिखाई देती है।
पत्रिका में शरत चन्द्र के बांग्ला उपन्यास ‘पाथेर दाबी’ की जब्ती की कथा (विष्णु प्रभाकर)है तो फाँसि की कोठरी से अमर शहीद बिस्मिल के स्मरणीय उदगार हैं। भारतीय साहित्य के इतिहास में दीनबंधु मित्र द्वारा लिखित नाटक ‘नील दर्पण’ का प्रकाशन 1860 में ढाका से हुआ था। माइकेल मधुसूदन दत्त ने जेम्स लांग की सहायता से इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करवाया, जिसे इंग्लैंड की पार्लियामेंट में भिजवाया गया। वहीं इस नाटक को राजद्रोह की संझा दी गई। पत्रिका में यह नाटक तो है ही, विजय पण्डित ने अपने लेख में नील दर्पण में प्रतिबन्ध की पूरी कथा लिखी है। उन्होंने लिखा कि कालांतर में बंगाल में इतने राष्ट्र-भक्तिपूर्ण नाटक लिखे गए कि सरकार को घबराकर नाटक-नियंत्रण कानून बनाना पड़ा। विजय पण्डित यह भी लिखते हैं कि यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि नील दर्पण नाटक बंगाल के बहाने पूरे भारत के पुनर्जागरण का कारक बना। जाहिर है इस नाटक को पढ़ना बेहद सुख है।
जब्तशुदा साहित्य विशेषांक में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर, इकबाल से लेकर सरदार अली जाफरी, सोहनलाल द्वीदी, जोश मलीहाबादी, साहिर लुधियानवी जां निसार ‘अख्तर’ जैसे अनेक शायरों और कवियों की वे कविताएं दर्ज हैं। इकबाल लिख रहे थे: चिश्ती ने जिस जमी से पैगामे हक सुनाया, नानक ने जिस चमन में वहदत का गीत गाया, तातारियो ने जिस को अपना वतन बनाया, जिसने हेजाजियों से दश्ते अरब छुड़ाया, मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है। जां निसार अख्तर ने लिखा: मैं उनके गीत गाता हूं! जो शाने पर बगावत का अलम लेकर निकलते हैं, किसी जालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं, मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं। शायरी और कविता के सुर राष्ट्रप्रेम और क्रांति में डूबे हुए थे और सबका मकसद एक ही था-आजादी। उन दिनों के प्रसिद्ध शायर अली सरदार जाफरी का यह गीत उस समय काफी लोकप्रिय हुआ:
वो बिजली-सी चमकी, वो टूटा सितारा,
वो शोला सा लपका, वो तड़पा शरारा,
जुनूने बगावत ने दिल को उभारा,
बढ़ेंगे अभी और आगे बढ़ेंगे।
जब्तशुदा साहित्य विशेषांक में साहित्यिक सामग्री के साथ-साथ उस दौर में जब्त की गई पत्रिकाएं, पुस्तकें, व्यंग्य, भ्रमण-वृतांत, स्वतंत्रता आंदोलन में कला की भूमिका और कई अन्य महत्वपूर्ण और जरूरी लेख हैं, जो उस दौर की राजनीति को उजागर करते हैं। निश्तित रूप से यह एक महत्वपूर्ण विशेषांक है, जिसे आजादी के उस कालखण्ड का झरोखा भी कहा जा सकता है। इसके लिए विजय राय जी और उत्तरप्रदेश का सूचना एवं जन संपर्क विभाग बधाई के पात्र हैं।