अगले दो महीने के भीतर तय हो जाएगा कि कांग्रेस में गांधियों, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के पास कोई पावर बचेगी या नहीं बचेगी। लेकिन एक बात और तय है कि यदि गांधियों के पास पावर नहीं बचेगी तो शायद गांधियों के बिना पार्टी भी नहीं बचेगी। इसलिए कांग्रेस का भले ही कोई गैर गांधी अध्यक्ष हो, यदि गांधी परिवार की सक्रिय भागीदारी बनी रही और ऊपर से परिवार का सार्थक हस्तक्षेप बना रहा तो पार्टी फिर से उसी तरह से उठ खड़ी होगी जैसी कि वर्ष 2004 के चुनावों में उसकी सत्ता में वापसी हुई थी और सत्ता से हटने में 10 साल लग गए थे। देश की 137 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी के सामने संकट पैदा हो गया है और वो है पार्टी को संभालने का संकट, इसके अध्यक्ष पद का संकट। सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों ही अब कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं बनना चाहते। सोनिया गांधी ने अपने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर फिर से पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी संभालने से फिलहाल इनकार किया है। सोनिया गांधी समेत कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं के मुताबिक 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए राहुल गांधी को अध्यक्ष पद संभाल लेना चाहिए, लेकिन राहुल गांधी हैं कि अपनी पार्टी को ना बोलकर निराश करते जा रहे हैं।
दरअसल कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी का पहला कार्यकाल पार्टी के मठाधीश नेताओं के आंतरिक असहयोग के कारण सफल नहीं रहा था। एक बार फिर यह असंतोष ग्रुप 23 के रूप में सामने आया है और अब तक तीन बड़े नेताओं, कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आजाद और आनन्द शर्मा पार्टी से बाहर चले गए हैं। कांग्रेस में जी-23 समूह हो या पुराने कांग्रेसी, एक धड़ा हमेशा से राहुल गांधी के नेतृत्व और उनकी कार्यशैली को लेकर सवाल खड़े करता रहा है। गुलाम नबी आजाद ने भी राहुल गांधी पर अपरिपक्व और बचकाना व्यवहार करने का आरोप लगाया था। कांग्रेस को छोड़कर जाने वाले नेता चाहे वो कपिल सिब्बल हों या जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह हों या जाखड़, लगभग सभी नेताओं ने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठाए हैं। उन लोगों का कहना है कि कांग्रेस अब परिवार की पार्टी हो गई है। राहुल पर यह आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने अध्यक्ष बनने के बाद से पुराने कांग्रेसियों को साइड लाइन करना शुरू कर दिया। इसके साथ ही उन्होंने अपनी टीम में गैर राजनीतिक बैकग्राउंड वाले लोगों को प्राथमिकता दी।
इन सभी स्थितियों को देखते हुए और पार्टी में सभी का विश्वास बहाल करने के लिए अध्यक्ष पद पर निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से चुनाव कराना बड़ी चुनौती है।
जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के बाद जब सिंडिकेट और इन्डिकेट के बीच टकराव में इंदिरा गांधी को देश ने स्वीकार कर लिया और सिंडिकेट को बुरी तरह नकार दिया तब से इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और अब प्रियंका गांधी, यानि पूरी की पूरी कांग्रेस इन नामों के इर्द गिर्द घूम रही है। राजनीतिक गलियारों में माना जाता है कि कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती है। हालांकि नए जमाने का गांधी परिवार यानी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी, ये मानते हैं कि अब कांग्रेस की कमान किसी ऐसे व्यक्ति को मिलनी चाहिए जो ‘गैर-गांधी’ हो। हालांकि गैर नेहरू-गांधी परिवार के कांग्रेस अध्यक्षों के नेतृत्व में पार्टी का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है। गैर नेहरू-गांधी अध्यक्षों ने 7 लोकसभा चुनावों में पार्टी का नेतृत्व किया, जिनमें से 4 में पार्टी को जीत मिली थी। लेकिन इसमें भी ऊपर से गांधी परिवार का वरदहस्त पार्टी पर बना रहा। इस बार भी पार्टी यदि किसी ह्यगैर-गांधीह्ण के हाथों में जाती है तो भी गाँधी परिवार का यदि सार्थक हस्तक्षेप बना रहा तो कांग्रेस खत्म नहीं होगी।
कांग्रेस का इतिहास कहता है कि ये पार्टी अपनी स्थापना के बाद कई बार टूटी है। लेकिन, हर बार उतनी ही मजबूती से खड़ी भी हुई है। वर्ष 1967 तक कांग्रेस के सामने कोई नहीं था।1967 में लोकसभा की कुल सीटें 494 से बढ़ाकर 520 कर दी गई थीं। इस चुनाव में 15 करोड़ 27 लाख लोगों ने मतदान किया था, मतदान का प्रतिशत करीब 61 रहा था। चुनाव नतीजे चौंकाने वाले रहे। कांग्रेस को करारा झटका लगा। उसे स्पष्ट बहुमत तो मिल गया लेकिन पिछले चुनाव के मुकाबले लोकसभा में उसकी संख्या काफी कम हो गई। इससे पहले पिछले तीनों आम चुनावों में कांग्रेस को करीब तीन चौथाई सीटें मिलती रहीं लेकिन इस बार उसके खाते में मात्र 283 सीटें ही आईं यानी बहुमत से मात्र 22 सीटें ज्यादा। कांग्रेस के वोट प्रतिशत में पांच फीसदी की गिरावट आई।
कांग्रेस को 1952 में 45 प्रतिश, 1957 में 47.78 प्रतिशत और 1962 में 44.72 प्रतिशत वोट मिले थे पर 1967 में उसका वोट प्रतिशत घटकर 40.78 प्रतिशत रह गया। इस चुनाव में कांग्रेस के 7 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। गुजरात, राजस्थान और ओडिशा में स्वतंत्र पार्टी ने कांग्रेस को तगड़ा झटका दिया तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली में जनसंघ ने कांग्रेस को चौंकाया। कांग्रेस को बंगाल और केरल में कम्युनिस्टों से भी कड़ी चुनौती मिली। इन चुनावों के दो साल बाद ही 1969 में कांग्रेस में पहली बार एक बड़ा विभाजन हुआ। मोरारजी देसाई, के. कामराज, एस. निजलिंगप्पा, अतुल्य घोष, सदोबा पाटिल, नीलम संजीव रेड्डी जैसे कांग्रेसी दिग्गजों ने बगावत का झंडा बुलंद किया और महज दो साल में ही इंदिरा सरकार अल्पमत में आ गई। आजादी के बाद कांग्रेस से निकल कर करीब 70 नई पार्टियां बनी हैं। कुछ अब भी हैं और कुछ का अस्तित्व मिट चुका है।
आजादी के बाद 1952 में देश के पहले चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आई। 1977 तक देश पर केवल कांग्रेस का शासन था। 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस की कुर्सी छीन ली। हालांकि तीन साल के अंदर ही 1980 में कांग्रेस ने वापसी कर सत्ता अपने नाम की। 1989 में कांग्रेस को फिर हार का सामना करना पड़ा। लेकिन 1991, 2004, 2009 में कांग्रेस ने दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर केंद्र की सत्ता हासिल की। आजादी के बाद से लेकर 2019 तक 17 आम चुनावों में से कांग्रेस ने 6 में पूर्ण बहुमत हासिल किया, जबकि 4 बार सत्तारुढ़ गठबंधन का नेतृत्व किया। कांग्रेस, भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सर्वाधिक समय तक सत्ता में रही है। पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 364 सीटें मिली थीं। देश की आजादी के संघर्ष से जुड़े सबसे मशहूर और जाने-माने लोग इसी कांग्रेस का हिस्सा थे। गांधी-नेहरू से लेकर सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसे नेता कांग्रेस के ही सदस्य थे।
1885 में बनी कांग्रेस पार्टी के अब तक 88 अध्यक्ष रह चुके हैं। इनमें से 18 अध्यक्ष आजादी के बाद बने हैं। आजादी के बाद 75 में से 40 साल नेहरू-गांधी परिवार से ही पार्टी अध्यक्ष रहे जबकि 35 साल गैर नेहरू-गांधी परिवार ने कमान संभाली है।