राहुल गांधी की सांसदी छिनना कोई अप्रत्याशित फैसला नहीं है। सूरत कोर्ट के फैसले के बाद यह होना ही था। अब एक दो दिन में उनका सरकारी बंगला भी खाली करा लिया जाएगा। ऊपरी अदालतोंं में भी लगभग यह माना जा रहा है कि शायद ही राहुल के हिस्से में सुकून आए। सूरत कोर्ट ने उन्हें अपील के लिए 30 दिन का समय दिया है। खैर सवाल अब ये अहम कि राहुल इन बेहद विकट स्थितियों में करेंगे क्या। उन्होंने अपने मिजाज के विपरीत जाकर भारत जोड़ो यात्रा करके ये तो दिखा दिया है कि उनमें माद्दा है गिर कर संभलने का। बस देखना ये है कि मुश्किलों के इस झंझावात में वो बिखरेंगे या और निखरेंगे। राहुल को अतिप्रतिक्रियावादी होने का खामियाजा भुगतना पड़ा है या फिर मर्यादा की रेखाएं लांघने का, इस पर अहर्निश बहस के सिलसिले चल सकते हैं लेकिन क्या इस सच से कोई भाग सकता है कि जिस तरह केंद्र में बेहद ताकतवर सरकार और नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे सियासत के मंझे हुए महारथियों के खिलाफ बिखरे, निस्पंद से विपक्ष के बीच अकेले राहुल गांंधी वो शख्स रहे हैं जिन्होंने लगातार घेराबंदी के बावजूद मुखर आवाज उठाई। विजय माल्या, मेहुल चोकसी, नीरव मोदी के मामले हो या हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद गौतम अडाणी मुद्दे पर जो प्रखरता राहुल ने दिखाई, वो कोई दूसरा विपक्षी नेता दिखाने में नाकाम रहा।
” सत्ताहीन होना और फिर मोदी-शाह की दमदार जोड़ी के वार झेलना, उसके ऊपर उन्हें पप्पू जैसी उपहासवादी संज्ञा से नवाजा गया। संसद के अंदर उन्होंने लगातार शिकायत की कि उन्हें बोलने नहीं दिया जाता। आज हालत ये कि वह सांसद ही नहीं रहे। अमेठी से स्मृति ईरानी ने उन्हें पराजय की राह पर चलने को विवश कर दिया तो वह वायनाड से जीत गए लेकिन अब वह वायनाड भी गंवा बैठे हैं। यही नहीं, हालात तो ये आए हैं कि अगर उनकी अपील भी उनके खिलाफ जाती है तो अगले अगले आठ वर्षों तक चुनाव ही नहीं लड़ सकेंगे। ”