Monday, July 7, 2025
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इन सीटों पर जो जीता वही बना सिकंदर! पढ़िए पूरी खबर

जनवाणी संवाददाता |

नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों की 86 आरक्षित सीटों पर जिसने जीत का झंडा फहरा दिया उत्तर प्रदेश में सरकार उसी की बनती है। बीते कुछ विधानसभा चुनावों का ट्रेंड तो यही कहता है। चुनावी जानकारों के मुताबिक दरअसल जातिगत समीकरणों को साधते हुए जीती गई राजनीतिक पार्टी की यह रिजर्व सीटें ही उसको सत्तासीन करती है। क्या इस विधानसभा चुनाव में भी यही 86 सीटें सत्ता तक पहुंचाएंगीं।

पिछले कुछ चुनावों को अगर देखें तो समझ में आता है कि आरक्षित सीटों पर जिन राजनीतिक पार्टियों का कब्जा हुआ उन्हीं राजनीतिक दलों की उत्तर प्रदेश में सरकार बनी। 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 86 आरक्षित सीटों में से 62 सीटों पर चुनाव जीता था और उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। इसी चुनाव में समाजवादी पार्टी के खाते में 12 सीटें और भारतीय जनता पार्टी के खाते में 7 तथा कांग्रेस ने 5 रिजर्व सीटें जीती थीं।

2007 के बाद में जब चुनाव 2012 में हुए। तो इन्हीं आरक्षित सीटों में सबसे ज्यादा समाजवादी पार्टी ने 58 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 15 सीटें मिली थी जबकि 3 सीटें भारतीय जनता पार्टी के खाते में आई थी। 2007 और 2012 के चुनावों में आरक्षित सीटों पर सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी के सरकार बनाने का सिलसिला 2017 में भी नहीं थमा। 2017 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 78 आरक्षित सीटों पर कब्जा कर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। जबकि भाजपा की सहयोगी सुभाषपा ने तीन और अपना दल ने 2 सीटों पर कब्जा किया था।

राजनैतिक जानकार अखिलेश गौतम की मानें तो उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरणों को साधते हुए ही चुनाव होते आ रहे हैं। ऐसे में सिर्फ यह 86 आरक्षित सीटें इस बात का संदेश देती है कि दलितों का वोट सबसे ज्यादा किस और गया है। चूंकि विधानसभा सीटों के परिसीमन के दौरान जातिगत वोटरों की संख्या को देखते हुए उनको आरक्षित किया जाता है, लेकिन उसी जाति समुदाय के लोग इन 86 आरक्षित सीटों के अलावा भी सभी विधानसभाओं में होते ही हैं।

86 सीटों पर सबसे ज्यादा कब्जा करने वाली राजनीतिक पार्टी यह संदेश देती है कि उस विशेष जाति समुदाय ने इस चुनाव में उसको वोट देकर स्वीकार किया है। ऐसे में इस बात को बखूबी समझना चाहिए दलित वोटर की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है। यही वजह है कि चुनावी दौर में अगर आप देखें तो बड़े से बड़े राजनीतिक दल के बड़े-बड़े नेता दलितों के साथ भोजन करते हैं। दलितों के घर जाते हैं और उनकी तस्वीरें मीडिया में छपती है और उसका एक राजनैतिक संदेश होता है।

अनुमान के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में 22 फीसदी दलितों की कुल आबादी है। इसमें 55 फीसदी आबादी जाटव की है जबकि 45 फ़ीसदी गैर जाटव दलित आते हैं। उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा दलितों के प्रभाव वाले जिलों में आगरा, गाजीपुर, सहारनपुर, गोरखपुर, जौनपुर, आजमगढ़, बिजनौर, हरदोई, प्रयागराज, रायबरेली, सुल्तानपुर, बरेली और गाजियाबाद प्रमुख है। इन जिलों में जाटव और गैर जाटव ज्यादा है।

एक अन्य चुनावी पंडित संतोष कुमार पाण्डेय ने बताया कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछड़ों और दलितों का वोट बैंक के तौर पर कॉन्बिनेशन सबसे जिताऊ कॉन्बिनेशन माना जाता है। वो कहते हैं कि बीते कुछ समय से दलित राजनीति पर हिंदुत्व के समीकरण भारी पड़ रहे हैं। हालांकि उनका कहना है कि इसी समीकरणों में आरक्षित सीटों पर भी राजनीतिक खेल बनता बिगड़ता है। उत्तर प्रदेश के जिन आरक्षित सीटों पर सबसे ज्यादा वोट पाकर पार्टी सत्तासीन होती है उसको दलितों के साथ साथ पिछड़ों का अच्छा वोट बैंक भी जुड़ा होता है। वो कहते हैं कि जिन राजनीतिक पार्टियों ने उत्तर प्रदेश या देश में सबसे ज्यादा समय तक शासन किया उन सभी दलों के कोर वोट बैंक में यही जाति विशेष समुदाय शामिल रहे।

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