अपने देश में बड़े-बड़े मंदिरों में दो तरह के भक्त पूजा-अर्चना के लिए जाते हैं। एक तो वे जो बिना कतार में लगे सैंकड़ों व हजारों रुपये देकर दर्शन पाते हैं और दूसरे वे जो पांच-छह घंटे तक कतार में खड़े रहने के बाद नंबर आने पर अपने प्रभु के दर्शन पाते हैं।
तो जो हजारों रुपयों की भेंट चढ़ाते हैं, वे सच्चे भक्त हैं या फिर घंटों कतार में खड़े रहने वाले? कुछ भक्तजन भगवान को धन और हुंडी चढ़ाते हैं। वे सोचते हैं कि इससे भगवान प्रसन्न हो जाएंगे।
अरे भाई, जो सारी सृष्टि के मालिक हैं उन्हें भला तुम्हारे नश्वर धन-दौलत से क्या वास्ता? अच्छा होता वह धन किसी गरीब कन्या के विवाह में खर्च किया जाता या कुछ भूखे लोगों को एक वक्त का भोजन ही उपलब्ध करा दिया जाता।
धन की जरूरत किसे है? जरूरत उन गरीब-असहाय मरीजों को है जो बिना इलाज के मौत का निवाला बन जाते हैं। भगवान को नहीं है तुम्हारे धन की जरूरत। भगवान स्वयं गीता में कह रहे हैं, जो मुझे जिस भावना से भजता है, मैं भी उसे उस भाव से भजता हूं।
यदि भाव में धन का अहंकार है और कर रहे हैं पूजा तो भगवान उसमें से क्या लेंगे? देश के कुछ प्रसिद्ध मंदिरों में टनों सोना जमा है और ट्रस्टी उस संपदा पर सांप की भांति कुंडली मार कर बैठे हैं। अगर मंदिरों में जमा धन व संपदा को दीन-दुखियों के कल्याण के लिए प्रयोग में लाया जाएगा तो सचमुच भगवान प्रसन्न होंगे।
उसे तिजोरी में बंद रखने से भगवान को क्यों खुशी होगी। इस तरह तो उनके लिए वह धरती के गर्भ में भी सुरक्षित ही है। इसलिए भगवान के चरणों में यदि कुछ अर्पित करना है तो अपने प्रेम और श्रद्धा का अर्पण करना चाहिए।
आरडी अग्रवाल ‘प्रेमी’
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