लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मिली हार की समीक्षा से उपजे कई प्रश्न अभी भी जस के तस बने हुए हैं। भाजपा के भीतर का अंतर्कलह जब-तब फूटने लगा है। इसकी सबसे ताजा नजीर योगी आदित्यनाथ सरकार के द्वारा नजूल भूमि विधेयक 2024 को पारित कराने के दौरान देखने को मिली, जब विधानसभा में ध्वनिमत से पारित कराने के दो दिन बाद ही विधान परिषद में जब इस विधेयक को पारित होने के लिए पेश किया गया तो भाजपा के सदस्यों के द्वारा इसका पुरजोर विरोध देखने को मिला। अंतत:, इस विधेयक को अब सेलेक्ट कमेटी के पास भेजकर संभवत: हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।
इसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की करारी शिकस्त के तौर पर देखा जा रहा है, क्योंकि ऊपरी सदन में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी ने ही सबसे पहले आगे आकर इस बिल को प्रवर समिति के पास भेजने का प्रस्ताव किया था, जिसके बाद अन्य सदस्यों ने भी आपत्ति दर्ज कर योगी आदित्यनाथ की योजनाओं पर पानी फेर दिया। हालांकि विधान परिषद में बिल को पेश करने वाले स्वंय उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य थे। लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि भाजपा के भीतर ही इस बिल को लेकर आम सहमति नहीं बन पाई थी, या कह सकते हैं कि इस बिल को ऊपरी सदन में ठेंगा दिखाना था।
हालांकि, विधानसभा में भी भाजपा के प्रयागराज से विधायक और वरिष्ठ नेता सिद्धार्थनाथ सिंह और और हर्ष वाजपेई ने अपने भाषण में विधेयक पर बहस के दौरान कई बातों पर आपत्तियां जताकर बता दिया था कि भाजपा के भीतर भी इस मुद्दे पर एकराय नहीं है। लेकिन पहले इस बिल को लेकर प्रचारित किया जा रहा था कि इसके पारित हो जाने से सबसे अधिक विपक्षी दलों के नेताओं को परेशानी हो रही है, विशेषकर समाजवादी पार्टी के द्वारा मुखर विरोध को इसी नजरिये से देखा जा रहा था।
लेकिन अब तो भाजपा सहित सहयोगी दलों की ओर से भी साफ-साफ विरोध के स्वर सुनाई देने लगे हैं। केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने दो दिन पहले, 1 अगस्त के अपने सोशल मीडिया हैंडल पर पोस्ट करते हुए लिखा था, ‘नजूल भूमि संबंधी विधेयक को विमर्श के लिए विधान परिषद की प्रवर समिति को आज भेज दिया गया है। व्यापक विमर्श के बिना लाये गये नजूल भूमि संबंधी विधेयक के बारे में मेरा स्पष्ट मानना है कि यह विधेयक न सिर्फ़ गैरजरूरी है बल्कि आम जन मानस की भावनाओं के विपरीत भी है।
उत्तर प्रदेश सरकार को इस विधेयक को तत्काल वापस लेना चाहिए और इस मामले में जिन अधिकारियों ने गुमराह किया है उनके खिलाफ सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए।’ उधर निषाद पार्टी के अध्यक्ष, संजय निषाद ने तो साफ शब्दों में कह दिया है कि यदि इस विधेयक को पारित किया गया तो यह स्वत: रूप से 2027 में विपक्ष को सत्ता में लाने जैसा कदम साबित हो सकता है। उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार की यह दिग्भ्रमित दशा है, या इसके पीछे 2024 आम चुनाव के बाद बदले समीकरण और प्रदेश में सरकार की कमान से योगी आदित्यनाथ को अपदस्थ करने की कवायद का ही एक नमूना है, इसको लेकर चचार्ओं का बाजार गर्म है।
बता दें कि विधेयक पेश करने से पहले ही भाजपा की राज्य सरकार इस वर्ष 7 मार्च 2024 को उत्तर प्रदेश नजू़ल संपत्ति (सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए प्रबंधन और उपयोग) अध्यादेश 2024 को अधिसूचित कर चुकी थी, जिसके अनुसार अध्यादेश के लागू होने के बाद किसी भी नजूल भूमि को किसी भी निजी व्यक्ति या निजी संस्था के पक्ष में फ्रीहोल्ड में परिवर्तित नहीं किये जाने का आदेश लागू हो चुका था। नजूल भूमि नीति के संबंध में उत्तर प्रदेश सरकार के अध्यादेश को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाइकोर्ट में याचिका भी दायर की गई थी।
अब सवाल उठ रहे हैं कि जब मार्च 2024 में इस संबंध में राज्य सरकार अध्यादेश लेकर आई थी, तब तो भाजपा के भीतर और सहयोगी दलों ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं की थी। फिर जुलाई में आखिर ऐसा क्या हो गया जो एक-एक कर तमाम वरिष्ठ पदाधिकारियों के साथ-साथ सहयोगी दलों को इस बिल में खामियां ही खामियां नजर आने लगी हैं?
अक्सर यह सवाल उठता है, क्योंकि आये दिन खबरों में पढ़ने को मिलता है कि विभिन्न राज्यों की सरकार नजू़ल भूमि से अवैध कब्जे को हटाने के लिए बड़े पैमाने बस्तियों को उजाड़ रही है, जिन पर सैकड़ों की संख्या में परिवार दशकों और कई बार तो सौ वर्ष से भी अधिक समय से कच्चे-पक्के मकान बनाकर रहते आ रहे हैं। इन बस्तियों में अक्सर हाउस टैक्स, बिजली कनेक्शन, वोटर लिस्ट में नाम, आधार सहित वे सभी सहूलियत और टैक्स वसूली की जाती रही है, जिसे पक्की रजिस्ट्री पर सरकार वसूला करती है। पिछले दिनों हल्द्वानी के वनभूलपूरा इलाके में भी इसी तरह की नजूल जमीन का मुद्दा उठा था, जिसमें उत्तराखंड सरकार की बर्बरता अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ सामने आई थी।
नजूल भूमि किसे कहते हैं, के बारे में जो जानकारी मिलती है, उसके अनुसार, ब्रिटिश शासन के दौरान, अंग्रेजों का विरोध करने वाले राजा और नवाबों के द्वारा अक्सर उनके खिलाफ विद्रोह के स्वर उठते थे, जिसमें 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम सर्वप्रमुख रहा है। इनके और ब्रिटिश सेना के बीच हुए युद्ध में आखिरकार मिली पराजय के बाद उनकी जमीनों को अंग्रेजों ने उनसे छीन लिया था। आजादी मिलने के बाद अंग्रेजों ने ये जमीनें खाली कर दीं। लेकिन राजाओं और राजघरानों के पास अक्सर पूर्व स्वामित्व साबित करने के लिए उचित दस्तावेजों की कमी के कारण, इन जमीनों को नजूल भूमि के रूप में चिह्नित किया गया, जिसका स्वामित्व संबंधित राज्य सरकारों के पास आ गया था।
राज्य सरकारों के द्वारा 15 वर्ष से लेकर 99 वर्ष की लीज पर इन जमीनों के पट्टे जनसाधारण के उपयोग के लिए, आवास, शिक्षण संस्थान, धर्मशाला, अस्पताल इत्यादि कार्यों के लिए दिए जाने की व्यवस्था है। बड़ी मात्रा में इन जमीनों पर बड़े भूमाफिया, राजनीतिक कनेक्शन वाले लोगों का भी कब्जा है। इनमें से कई जमीनें आज के दिन प्राइम लैंड के तौर पर चिन्हित की जा सकती हैं। उत्तर प्रदेश सरकार को तो पहले ही बुलडोजर सरकार के तौर पर प्रसिद्धि हासिल है।
सर्वविदित है कि नजूल जैसी भूमि पर गरीब की यदि झोपड़ी होगी तो बड़े-बड़े मगरमच्छों के पास कई एकड़ भूमि पर लाखों-करोड़ों के व्यवसाय चल रहे होंगे। यह बात सिर्फ उत्तर प्रदेश पर ही लागू नहीं होती। लेकिन इस कानून को अमल में लाने पर किस वर्ग और समुदाय को सीधे तौर पर निशाने पर लिया जाना था, यह बात दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है।
लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार, विशेषकर अयोध्या और बनारस में सैकड़ों गरीबों को उजाड़ने की कवायद का जो सिला भाजपा को मिला है, उसने भाजपा की चूलें हिला रखी हैं। निश्चित रूप से इस विधेयक के अमल में आने के बाद एक खास समुदाय के लोगों के इसके सीधे चपेट में आने की आशंका थी, लेकिन जरूरी नहीं कि सामान्य गरीब हिंदू परिवार भी इससे अछूते रहते।