एक वक्त था जब पूरी दुनिया वैश्वीकरण के फायदों को ले कर उत्साहित हुआ करती थी। हालांकि फायदे तो आज भी नहीं बदले है और वैश्विक जरूरत भी है लेकिन अब दुनिया के अत्यधिक शक्तिशाली देश वैश्वीकरण को ताक पर रख कर संरक्षणवादी नीतियों से गलबहियां करने लगे हैं। पूरे इतिहास में, युद्धों और आर्थिक मंदी ने संरक्षणवाद में वृद्धि की है, जबकि शांति और समृद्धि ने मुक्त व्यापार को प्रोत्साहित किया है। यूक्रेन-रूस युद्ध के साथ, संयुक्त राष्ट्र जैसे विभिन्न बहुपक्षीय संस्थानों की स्थिति पर प्रश्नचिह्न लग गया है। विश्व में आज लगातार संरक्षणवाद में वृद्धि देखी जा रही है। कोविड काल ने तो मानो इस आग में घी का काम किया है। महामारी और इसके कारण हुए व्यावधानों ने एक स्थिर वैश्विक व्यवस्था को और खराब कर दिया है। जहाँ से विश्व स्तर पर सुपर पॉवर देशों पर गहरा प्रभाव पड़ा है।
वैश्वीकरण एकीकरण और राष्ट्रीय सीमाओं से परे लोगों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू के आदान-प्रदान की प्रक्रिया है। वैश्वीकरण युग में, देशों की अर्थव्यवस्थाएं एक-दूसरे पर निर्भर हैं। एक देश की अर्थव्यवस्था खतरे में आती है, तो अन्य देशों को भी दर्द महसूस होता है। वैश्वीकरण की शुरुआत के साथ देशों के आपसी तालमेल और व्यापार में अत्यधिक बढ़ोतरी हुई। इसका एक फायदा यह भी हुआ कि वैश्विक मुद्दों पर वार्ता के मंच बढ़े। लेकिन वर्तमान दौर में छोटे या बड़े देश सिर्फ अपनी हितों की बात कर रहे है और संरक्षणवादी नीतियों को अमल में लाने से गुरेज नहीं कर रहे हैं।
संरक्षणवाद सरकार के कार्यों और नीतियों को संदर्भित करता है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रतिबंधित करता है। ऐसी नीतियों को अक्सर स्थानीय व्यवसायों और नौकरियों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाने के उद्देश्य से अपनाया जाता है। इसका प्राथमिक उद्देश्य वस्तुओं या सेवाओं की कीमत बढ़ाकर या देश में आयात की मात्रा को सीमित या प्रतिबंधित करके स्थानीय व्यवसायों या उद्योगों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाना और प्रोत्साहन देना है। संरक्षणवादी नीतियां आम तौर पर आयात पर ध्यान केंद्रित करती हैं, लेकिन इसमें अंतरराष्ट्रीय व्यापार के अन्य पहलुओं जैसे उत्पाद मानकों और सरकारी सब्सिडी भी शामिल हो सकती हैं।
कोविड के दौर में विश्व के कुछ अमीर देशों ने एक-दूसरे की कीमत पर अपने लोगों के लिए दवाएं, आपूर्ति और टीके हासिल करने के लिए आक्रामक प्रयास किए। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को रीसेट करने और व्यापार बाधाओं को बढ़ाने के लिए एक भीड़ थी। अधिक संरक्षणवाद और ‘आत्मनिर्भरता’ की मांग उठी। इसने दुनिया को और अधिक असुरक्षित बना दिया। जिसके बाद अन्य देशों में भी खुद की सुरक्षा का डर समा गया।
हाल में चल रहे रूस-यूक्रेन संघर्ष ने भी राज्य की संप्रभुता की सीमाओं का डर फैला दिया है। इसने संयुक्त राष्ट्र चार्टर की विश्वसनीयता को कमजोर किया। छोटे देश बड़े देशों से डरने लगे हैं। सुपर पॉवर अमेरिका का हश्र अफगानिस्तान के बाद रूस- यूक्रेन युद्ध में भी दिख ही रहा है। अमेरिका भी विश्व शांति के लिए कुछ नहीं कर पा रहा है। वैश्विक संस्थाएं भी लचर होती जा रही हैं। वैश्विक शासन प्रभावी ढंग से काम नहीं कर रहा है। यूक्रेन युद्ध को यूएनओ खत्म करने में असफल रहा और कोरोना को समय पर पहचानने में डब्लूएचओ असफल रहा था। ऐसे भी वैश्विक संस्थाएं असफल होती जा रही है और इन सबने वैश्वीकरण में दीमक लगाने का काम किया है।
विश्व के कुछ नेताओं ने वैश्वीकरण के खिलाफ दोनों तरह की प्रतिक्रिया का इस्तेमाल किया। ट्रम्प ने ‘अमेरिका फर्स्ट’ और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के नारों पर संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति पद के लिए उठे, अर्थात संरक्षणवाद को ही चुनाव का मुद्दा बना कर भुनाने की कोशिश की गई। हालांकि ट्रम्प हार गए लेकिन इसके बाद भी अमेरिका संरक्षणवाद से दूरी नहीं बना सका है। यह सनक यहीं तक सीमित नहीं है, ब्राजील के जायर बोल्सोनारो और तुर्की में रेसेप तैयब एर्दोआन से लेकर हंगरी के विक्टर ओरबान जैसे अन्य लोगों ने अपने मतदाताओं को सफलतापूर्वक समझा दिया कि वे अपने राष्ट्रों का बेहतर प्रतिनिधित्व करते हैं ना कि विपक्ष में बैठे जड़हीन धर्मनिरपेक्ष महानगरीय नेता।
भारत ने भी आत्मनिर्भर भारत जैसे योजनाओं द्वारा संरक्षणवाद को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। नेताओं ने राष्ट्रवादी मानसिकता को लोकप्रिय पूर्वाग्रहों के साथ जोड़ा और राष्ट्रवाद को राष्ट्रीय आत्म-परिभाषा का डिफॉल्ट मॉडल बना दिया, जिससे अंतर्राष्ट्रीयता कमजोर हो गई। देश की ‘जनता’ ने भी उदार राजनीति, व्यापार समझौतों, आप्रवास, बहुसंस्कृतिवाद और धर्मनिरपेक्षता को खारिज कर दिया और सांस्कृतिक जड़ता, धार्मिक या जातीय पहचान और राष्ट्रवादी प्रामाणिकता को प्राथमिकता दी। भारत जैसे विकासशील देश में उभरते उद्योगों के लिए संरक्षणवाद मददगार हो सकता है। यह रक्षा उद्योगों में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के साधन के रूप में भी काम कर सकता है। आयात कोटा संरक्षणवाद का एक और साधन प्रदान करता है। ये कोटा कुछ वस्तुओं की मात्रा पर एक पूर्ण सीमा निर्धारित करते हैं जिन्हें किसी देश में आयात किया जा सकता है और सुरक्षात्मक टैरिफ की तुलना में अधिक प्रभावी होते हैं, जो उन उपभोक्ताओं को हमेशा विचलित नहीं करते हैं जो आयातित अच्छी गुणवत्ता की वस्तुओं के लिए उच्च कीमत चुकाने के इच्छुक हैं।
हमें चाहिए कि संरक्षणवादी नीतियों को सीमित ही रखा जाए और देश को वैश्विक स्तर का बनाने के लिए कुछ कार्य किया जाए। इसके लिए देश में नवाचार, अनुसंधान एवं विकास और उद्यमिता को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। इससे स्वदेशी कंपनियां भविष्य के क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार होंगी। निजी निवेश को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, इससे विकास, रोजगार के अवसर, निर्यात और मांग को बढ़ावा मिलेगा।
वैश्विक स्तर पर बात करें तो बहुपक्षीय संस्थानों में सुधार किया जाना चाहिए, ताकि उन्हें वर्तमान वास्तविकता के अनुरूप अधिक प्रतिनिधित्व दिया जा सके। इसके अलावा जो छोटे देश बड़े देशों से भय में हैं, उसे दूर करने की जरूरत है। कोशिश हो कि बाहरी ताकतों को खतरों के रूप में नहीं देखा जाए बल्कि उन अवसरों के रूप में देखा जाना चाहिए जिन्हें दूरदर्शी नेताओं को समझना चाहिए। इसके लिए विश्व को भारत से सीखना चाहिए कि कैसे वैक्सीन कूटनीति के द्वारा, भारत ने अन्य देशों को अपने नागरिको की सुरक्षा के लिए समर्थन देकर बहुपक्षवाद के सिद्धांतों को बरकरार रखा।