पात-पात को सींचिबो, बरी-बरी को लोन। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने चुनावों में कालेधन के इस्तेमाल पर रोक और चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता के नाम पर विधि मंत्रालय को जो पत्र लिखा है, वह बरबस रहीम के एक दोहे की इस बहुचर्चित पंक्ति की याद दिला देता है। मुख्य चुनाव आयुक्त ने इस पत्र में राजनीतिक पार्टियों को एक व्यक्ति से एक बार में मिलने वाले नकद चंदे की सीमा 20,000 से घटाकर 2000 रुपये करने और कुल चंदे में नकद को 20 प्रतिशत या अधिकतम 20 करोड़ रुपये तक सीमित रखने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन का प्रस्ताव किया है। सोचिये जरा कि जब चुनाव प्रक्रिया की पवित्रता ही नहीं, इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों, यहां तक कि खुद चुनाव आयोग की निष्पक्षता तक को लेकर घने हो चुके संदेह चीख-चीख कर व्यापक चुनाव सुधारों की मांग कर रहे हैं, मुख्य चुनाव आयुक्त को लगता है कि कुछ पैबंदनुमा उपायों से ही चुनाव प्रक्रिया ‘आदर्श’ हो जाएगी। इस सिलसिले में वे इतना भी याद रखने की जरूरत नहीं समझते कि अरसा पहले सर्वोच्च न्यायालय ने दागियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने के लिए कानून बनाने का सुझाव दिया तो देश की सारी राजनीतिक पार्टियों ने मिलकर उसके सुझाव का क्या हश्र कर डाला था? उसी हश्र के कारण दागी नेता आज भी, अपने आपराधिक अतीत की जानकारी सार्वजनिक कर देने की जरा-सी शर्त पर चुनाव लड़कर विधायी सदनों में पहुंचते जा रहे हैं।
आश्चर्य नहीं कि कई हलकों में सवाल उठाये जा रहे हैं कि पार्टियों में चुनाव सुधारों की राह रोकने को लेकर ऐसी आम सहमति के बावजूद, उनके मतभेद भी जिसके आड़े नहीं आते, मुख्य चुनाव आयुक्त को उम्मीद है कि विधि मंत्रालय उनके प्रस्ताव हो हाथोंहाथ लेकर आगे बढ़ा देगा तो कहीं इसके पीछे उनका निगाहें कहीं पर रखकर निशाना कहीं और लगाने लग जाना तो नहीं है?
अभी राजनीतिक पार्टियों को 20 हजार रुपये से ज्यादा के सभी चंदों का खुलासा कर उनकी बाबत चुनाव आयोग को रिपोर्ट देनी होती है। आयोग ने पिछले दिनों इस नियम का उल्लंघन करने वाली 284 पार्टियों का पंजीकरण रद्द कर दिया तो आयकर विभाग ने कर चोरी के आरोप में उनमें से कई के ठिकानों पर छापे भी मारे। कहते हैं कि मुख्य चुनाव आयुक्त का विधि मंत्रालय को लिखा गया पत्र इन्हीं पार्टियों से संदर्भित है, लेकिन विडम्बना यह कि मुख्य चुनाव आयुक्त को पारदर्शिता के लिए यह तो जरूरी लगता है कि पार्टियां किसी व्यक्ति से एक बार में 2000 रुपये से अधिक नकद चंदा न लें (इसका अर्थ यह है कि इससे ज्यादा चंदे की रकम चेक से दी जाए ताकि देने वाले का नाम ज्ञात रहे।) और इसकी व्यवस्था के लिए वे विधि मंत्रालय को पत्र भी लिख डालते हैं, लेकिन इलेक्टोरल बांडों की मार्फत किए जा रहे बडेÞ खेल की ओर से आंख मूंद लेते हैं।
उन्हें यह जानना जरूरी नहीं लगता कि करोड़ों रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड कौन खरीदकर किस पार्टी को दे रहा है, लेकिन दो हजार से ज्यादा नकद चंदा देने वालों के नाम जानना उन्हें जरूरी लगता है। ऐसे में उनके प्रस्ताव पर अमल पारदर्शिता की ओर कदम होगा या सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों से समान व्यवहार के सिद्धांत की कब्र खोदना? क्या इससे बेहतर यह नहीं होता कि वे विधि मंत्रालय से बड़ी व छोेटी सभी पार्टियों के सारे चंदे आॅनलाइन माध्यमों से लेना अनिवार्य करने का प्रस्ताव करते?
नहीं करते तो क्या आश्चर्य कि कई प्रेक्षकों को लगता है कि उनका प्रस्ताव विपक्ष, खासकर छोटे दलों के आर्थिक स्रोत खत्म करने की कवायद है, जो सत्तापक्ष व विपक्ष के दलों के बीच आर्थिक असंतुलन और बढ़ाएगी और ऐसी व्यवस्था पहले होती तो कांशीराम जैसे नेता गरीबों व समर्थकों से चंदा लेकर राजनीतिक दल खड़ा ही नहीं कर पाते। उनकी मानें तो इस कवायद की मार्फत मुख्य चुनाव आयुक्त चुनाव सुधारों से जुड़े बड़े सवालों की ओर से ध्यान हटाने की कोशिश कर रहे हैं-खासकर उन नये स्रोतों की ओर से, जिनके जरिए पार्टियां थोक में बिगमनी खर्च करती हैं।
ज्ञातव्य है कि एक समय चुनावों में बिग मनी के इस्तेमाल की समस्या के खात्मे के लिए सरकारी खर्चे पर सारे उम्मीदवारों के साझा प्रचार की व्यवस्था की बात चली थी। कहा गया था कि उम्मीदवारों को जितनी भी जनसेवा या प्रचार करना हो, वे चुनाव से पहले कर लें और चुनाव के दौरान सिर्फ अम्पायर यानी चुनाव आयोग ही उनकी उम्मीदवारी से जुड़ी जानकारियां लेकर मतदाताओं के पास जाए और उनसे फैसला करने को कहे। इससे चुनाव प्रक्रिया की शुचिता भी बरकरार रहेगी और धनबल व बाहुबल से जनादेश के ‘अपहरण’ की आशंकाएं भी नहीं होंगी। लेकिन तब न संसद को इसके लिए कानूनी प्रावधान करना गवारा हुआ और न चुनाव आयोग ने ही इस सम्बन्धी प्रस्ताव को आगे बढ़ाने में रुचि ली।
इसके उलट विभिन्न तर्कों से उम्मीदवारों द्वारा चुनावों में खर्च की सीमा बढ़ाई जाती रही-इस सहूलियत के साथ कि उनकी पार्टियों द्वारा किया गया खर्च उनके खाते में नहीं जोड़ा जायेगा। 2013 में भारतीय जनता पार्टी के नेता गोपीनाथ मुंडे ने तो डंके की चोट पर कह दिया था कि 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने खर्च की अधिकतम सीमा तोड़कर आठ करोड रुपये खर्च किए थे। फिर भी उनका कुछ नहीं बिगड़ा था।
हद तो यह कि कई महानुभाव अभी भी एक ओर चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने की वकालत करते हैं और दूसरी ओर चुनावों में काले धन की घुसपैठ की बिना पर हो रहे भारी खर्च की समस्या के विकराल होते जाने को लेकर चिंता जताते हैं। वैसे ही जैसे कोई हंसने के साथ ही गाल फुलाने की कोशिश में न ठीक से हंस पाए और न गाल ही फुला पाए।
निस्संदेह, मुख्य चुनाव आयुक्त की चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने और कालेधन का इस्तेमाल रोकने के लिए राजनीतिक पार्टियोें के नकद चंदे की सीमा घटाने का प्रस्ताव भी ऐसा ही है। क्योंकि अब पार्टियां अपने भारी भरकम खर्च के लिए नकद चंदे पर ही निर्भर नहीं रहतीं। उनके पास और भी कई तरह के ‘आय के स्रोत’ होते हैं। जिस धनबल से वे मतदाताओं को खरीदने की कोशिश करती हैं, वह इन्हीं नए स्रोतों से आता है। काले धन को भी अब पार्टियों के चंदे में तब्दील करके ही सफेद नहीं किया जाता।
चुनावों के दौरान बंटने वाली नकदी, शराब, अनाज या अन्य उपहारों में भी उसका इस्तेमाल होता है और चुनाव आयोग अब तक इस इस्तेमाल को रोकने की कोशिशों में नाकाम ही रहा है। काश, मुख्य चुनाव आयुक्त समझते कि देश उनसे चुनाव सुधारों की समस्या को व्यापक परिप्रेक्ष्य में लेने और तदनुरूप व्यवहार करने की अपेक्षा करता है। इसकी नहीं कि वे अधिकारों का रोना रोकर हेटस्पीच तक को रोकने में असमर्थता जता दें, फिर पार्टियों के चंदे में पारदर्शिता की अनुकूलित चिंता में मगन हो जाए।