बावजूद इसके कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक सेवक संघ स्वयं को एक गैर राजनैतिक संगठन बताता है और इसे सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन के रूप में प्रचारित करता है। परंतु वास्तव में यह सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का मुख्य संरक्षक संगठन है। लिहाजा देश की वर्तमान राजनीति की दिशा एवं दशा में आरएसएस की अति महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। पिछले दिनों संघ से जुड़ी दो गतिविधियों ने देश के राजनैतिक विश्लेषकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। एक तो देश की पांच प्रमुख मुस्लिम हस्तियों का संघ प्रमुख मोहन भागवत से मुलाकात करना और दूसरी संघ प्रमुख का दिल्ली की एक मस्जिद में जाकर मस्जिद प्रबंधकों से मुलाकात करना। राजनैतिक हल्कों में यह कयास लगाये जाने लगे हैं कि देश में सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने की गरज से दोनों पक्षों की ओर से ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं। विश्लेषकों के एक वर्ग का यह भी मानना है कि चूंकि भारतीय जनता पार्टी व संघ के नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को मिल रही अपार सफलता को देखकर काफी चिंतित हैं कि कहीं कांग्रेस अपने खोए हुये जनाधार को वापस हासिल न कर ले और अल्पसंख्यकों में पुन: अपनी पैठ न बना ले इसलिये संघ व भाजपा देश के मुस्लिम समाज के साथ मधुर संबंध स्थापित करने की दिशा में काम कर रहे हैं।
परंतु इन प्रयासों के बीच कुछ अहम व बुनियादी सवाल ऐसे भी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पहला सवाल तो मुस्लिम पक्ष से ही जुड़ा हुआ है। वैश्विक स्तर पर मुसलमानों के विभिन्न वर्गों व समुदायों में नफरत, मतभेद व दुर्भावना का वातावरण व्याप्त है। इस संदर्भ में सैकड़ों उदाहरण पेश किए जा सकते हैं। सवाल यह है कि जिस मुस्लिम समाज के विशिष्ट लोग संघ के साथ मुसलमानों के बेहतर संबंध बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं क्या उन्हें इससे पहले ‘इत्तेहाद-ए-बैनुल-मुसलमीन’ की दिशा में काम नहीं करना चाहिए? क्या ईरानी इस्लामिक क्रांति के नेता आयतुल्लाह खुमैनी, अब्दुल्लाह बुखारी, मौलाना कल्ब-ए-सादिक जैसे दूरदर्शी मुस्लिम रहनुमाओं के उन प्रयासों को अमली जमा पहनाये जाने की जरुरत नहीं है, जिसके अंतर्गत ये लोग एक ही मस्जिद में सभी मुसलमानों के नमाज अदा करने के पक्षधर थे? विश्व शांति की दिशा में सबसे अहम भूमिका अदा करने वाले यह कदम आखिर सांकेतिक प्रयास तक ही क्यों सीमित रह गए?
खबर है कि मुस्लिम-संघ सद्भाव हेतु प्रयासरत मुस्लिम प्रतिनिधियों से संघ प्रमुख भागवत ने जिहाद, काफिर और गऊ जैसे विषयों पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने को कहा। जिहाद और काफिर जैसे विषय तो शाब्दिक व्याख्या और अर्थों की गलतफहमी,समझ या नासमझी की वजह से विवादों का कोई मुद्दा नहीं। परंतु गाय को लेकर केवल मुसलमानों को कठघरे में खड़ा करना तो निश्चित रूप से भारतीय मुसलमानों के विरुद्ध देश के हिंदुओं में नफरत पैदा करने का ही यह एक सुनियोजित प्रयास है? इस बात का क्या जवाब है कि मई 2015 में जब तत्कालीन केंद्रीय राज्य मंत्री मुख़्तार अब्बास नकवी ने कहा था, ‘भारत में जो लोग गोमांस खाये बिना नहीं रह सकते वे पाकिस्तान चले जाएं।’ उसी समय नकवी के इस बयान को गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने अवांछनीय व आपत्तिजनक बयान बताया था। रिजिजू ने कहा था, गोहत्या कानून को पूर्वोत्तर राज्यों पर थोपा नहीं जा सकता। यहां बहुसंख्य लोग गोमांस खाते हैं। उन्होंने यहां तक कहा था, मैं अरुणाचल प्रदेश से हूं, मैं गोमांस खाता हूं, क्या कोई मुझे ऐसा करने से रोक सकता है? इसलिए इस मुद्दे को लेकर ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत नहीं है। हमें एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था, देश में सभी लोगों की संस्कृति, परंपराओं, आदतों और भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए। भाजपा में सैकड़ों गोभक्षक मंत्री,सांसद व विधायक हैं। चुनावों के दौरान तो भाजपा नेताओं द्वारा बीफ पार्टियां भी की जा चुकी हैं। क्या इन लोगों से भी कभी गऊ हत्या को लेकर स्थिति स्पष्ट करने को कहा गया? गोवा, मेघालय, त्रिपुरा अरुणाचल, असम जैसे अनेक राज्यों में आम लोग इसका सेवन करते हैं।
अब रहा सवाल धार्मिक सद्भाव का, तो यहां भी स्थिति कमोबेश मुसलमानों जैसी ही है। वर्ण व्यवस्था पर आधारित हिंदू समाज का एक बड़ा वर्ग अपनी मनुवादी परंपराओं का अनुसरण करता हुआ जाति आधारित वर्गों में इस इतना बंटा हुआ है कि कथित स्वर्ण व कथित निम्न जाति के मंदिर अलग-अलग हैं। सवर्णों द्वारा दलितों पर अत्याचार करने के तमाम किस्से रोज सुनाई देते हैं। 14 अक्टूबर 1956 की उस घटना को इतिहास के पन्नों से आखिर हम कैसे मिटा सकते हैं, जो हमें यह बताते हैं कि वर्ण व्यवस्था की इसी अपमानजनक व्यवस्था से क्षुब्ध होकर डॉ. भीमराव आंबेडकर ने नागपुर में अपने लगभग पांच लाख से अधिक अनुयायिओं के साथ वर्ण व्यवस्था आधारित हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म स्वीकार किया था? यहां भी किसी अन्य धर्म या देश को जिम्मेदार ठहराये जाने के बजाये पूरी ईमानदारी से आत्मावलोकन करने की जरूरत है। भीमा कोरे गांव के इतिहास को आखिर कैसे मिटाया जा सकता है?
फिर भी सांप्रदायिक सद्भाव के प्रयास कहीं भी और किसी ओर से भी किए जा रहे हों, उनका स्वागत जरूर किया जाना चाहिए। परंतु इस मार्ग में प्रयत्नशील सभी समुदायों के रहबरों द्वारा सांप्रदायिक वैमनस्य की खाई पाटने से पहले अपने व अपने समाज में आत्मावलोकन करना भी बेहद जरूरी है। परस्पर सद्भाव की दिशा में यह कदम सबसे महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।