कभी किताबें हमें चुनती हैं और कभी हम किताबों को चुनते हैं। चुनने की इस प्रक्रिया में संयोगों का भी बड़ा महत्व है। यह संयोग हो सकता है कि आपका परिवेश साहित्यिक हो…किशोरावस्था से ही आपको ऐसे मित्र मिलें, जिनकी साहित्यिक रुचियां हों। एक संयोग यह भी हो सकता है कि आपके घर में ही पुस्तकालय हो, जिसमें आप बच्चों से लेकर बड़ों तक की किताबें देख और पढ़ सकें। किशोरावस्था में शब्द और किताबों से बनने वाला रिश्ता धीरे-धीरे परिपक्व होता रहता है। इस बीच आपके लिए बहुत-सी नई खिड़कियां-दुनियाएं- खुलती हैं- सिनेमा की दुनिया…विश्व साहित्य की दुनिया…मनुष्य के व्यवहार की दुनिया…प्रकृति और परिवेश की दुनिया…बादलों और बारिश की दुनिया…।
किताबें आपको बेहतर और तार्किक मनुष्य बनाती हैं। किताबें ही हैं जो आपको दर्शन और जीवन का एक नजरिया देती हैं। आप चीजों को ‘सिन्क्रोनाइज’ करके देखना सीख जाते हैं। यानी आप किताबों को फिल्मों से और फिल्मों को जीवन से जोड़ना सीखते हैं।
शब्दों से आप स्मृतियाँ बनाने लगते हैं और स्मृतियाँ आपको संवाद की ओर ले जाती हैं-ये संवाद बाहर की दुनिया के लोगों से भी हो सकता है और अपने अवचेतन से भी। शब्द, स्मृतियाँ और संवाद आपको अपने अंतर्मन को समझने की ताकत देते हैं और शेल्फ में लगी किताबें आपको फरिश्ते-सी जान पड़ती हैं।
गथेतर गद्य की एक पुस्तक पिछले दिनों पढ़ी। दिनेश श्रीनेत की यह पुस्तक ‘शेल्फ में फरिश्ते’ (भावना प्रकाशन) पढ़ने के बाद यह एहसास हुआ कि पुस्तकें किस तरह बेहतर मनुष्य बनाती हैं और मनुष्यता के पक्ष में खड़ी दिखाई देती हैं। दिनेश की सिनेमा और साहित्य में गहरी रुचि है।
उनकी लिखी ‘पश्चिम और सिनेमा’ पुस्तक कई विश्वविद्यालयों में सहायक अध्ययन सामग्री के रूप में अनुमोदित है। सिनेमा गीतों पर उनकी एक संस्मरणात्मक पुस्तक ‘नींद कम, ख़्वाब ज्यादा’ भी प्रकाशित हो चुकी है।
दिनेश श्रीनेत की पुस्तक ‘शेल्फ में फरिश्ते’ न केवल पढ़ने का सलीका सिखाती है, बल्कि यह भी सिखाती है कि पढ़ी गई पुस्तकों को जीवन से कैसे जोड़कर देखें। पुस्तक को चार हिस्सों में बाँटा गया है-शब्द, स्मृति, संवाद और अंतर्मन।
यह विभाजन भी महज तकनीकी ही है। अन्यथा पूरी पुस्तक में शब्द से पाठक के रिश्ते, स्मृतियाँ और संवाद ही हैं। दिनेश खुद कहते हैं, शब्दों की तरह गुजरा हुआ समय भी मुझे जादुई लगता है। स्मृतियों को शब्दों के सहारे पकड़ने की कोशिश करता हूं, ताकि जो नहीं है, वह दोबारा जीवित हो जाए।
सचमुच इस पुस्तक को पढ़कर आप भी जो नहीं रहा, जो नहीं है, उसे जीवित कर सकते हैं। किताब के पहले हिस्से के एक लेख में उन्होंने बताया कि दस वर्ष की उम्र में उन्होंने पहला गम्भीर उपन्यास जो पढ़ा वह मैक्सिम गोर्की का ‘माँ’ था।
इसकी स्मृतियाँ अब तक उनके जेहन में हैं। कुछ वर्ष बाद उन्होंने गोर्की की आत्मकथा के दो खंड-मेरा बचपन और जीवन की राहों पर-पढ़े। जाहिर है इसने उन्हें आगे के रास्ते दिखाए। माँ से शुरू हुआ पुस्तक प्रेम विश्व साहित्य और विश्व सिनेमा तक पहुँचा।
दिनेश श्रीनेत ने विलियम गोल्डिंग, थामस हार्डी, डीएच लॉरेंस, काफ्का, मार्खेज, जेम्स जॉयस, स्टेनबैक और अर्नेस्ट हेंमिंग्वे जैसे दर्जनों लेखकों को पढ़ा। इस अध्ययन से उन्होंने बहुत कुछ सीखा। वह जासूसी उपन्यास और अनेक बाल पत्रिकाएं भी पढ़ते रहे। जिसने उनकी सोच को बहुआयामी बनाया।
एक जगह वह लिखते हैं, अंग्रेजी साहित्य आपको ‘कंप्लीट मैन’ बनाता है। उनकी लेखनी में अधिक पढ़ पाने का कोई अहंकार नहीं है। वह लिखते है-कभी-कभी अफसोस होता है कि अगर थोड़ी सुनियोजित और अकेडिमक पढ़ाई हुई होती तो मैं भी ‘द कंप्लीट मैन’ होता। यह विनम्रता भी किताबों से ही आती है।
एक अन्य जगह वह लियो तोलस्तोय के उपन्यास ‘पुनरुत्थान’ का जिक्र करते हैं। यह वह उपन्यास है, जिसने मोहन दास को महात्मा गाँधी बनने की राह दिखाई। इस उपन्यास से उन्होंने यह सीखा कि उपन्यास आपको मुक्त करता है।
ज्यादा मानवीय और उदार बनाता है और यह सब कुछ मन के भीतर अंत में आई बाइबिल की प्रार्थनाओं से नहीं जागता बल्कि पाप मुक्ति की तलाश में भटकते दो मनुष्यों की कहानी से जागता है, जो आपस में न तो प्रेमी थे, न शत्रु और न ही एक-दूसरे का जीवन निर्धारित करने वाले। अभिशप्त आत्माओं की तरह भटकते हुए वे अंत में जीवन को किसी उजाले की तरफ ले जाने में सफल होते हैं।
शेल्फ में लगे फरिश्तों से लेखक ने अपने और दूसरों के लिए उजाले खोजन की ही कोशिश की है। दिनेश श्रीनेत की सोच, नजरिया और दर्शन पुस्तक में दिखाई देता है। वह लिखते हैं, साहित्य का अपना ग्लैमर होता है मगर साहित्य ग्लैमर नहीं है।
वह युवाओं को ‘बेस्टसेलर’ समझकर किताबें न पढ़ने की सलाह देते हैं और साथ ही यह भी कहते हैं कि हर जगह पहुंच जाने वाले, फरमाइशी प्रोग्राम पेश करने वाले लेखकों से युवा लेखकों को बचना चाहिए। पुस्तक में एक और गम्भीर बात वह यह कहते हैं, बाजार में तत्काल बिकाऊ चीजें ध्यान खींचती हैं, आत्मीय स्पर्श वाला लेखन नहीं।
उसके तत्काल फायदे नहीं हैं, तो शायद वह उस तरह नहीं बिकेगा जैसा तुमसे औसत लिखने वाले बेच पाएंगे। यानी दिनेश श्रीनेत की नजर बाजार और बाजार में बिकने वाले लेखकों पर भी बनी रहती है। और इन विषयों पर वह पूरी संजीदगी से अपनी बात कहते हैं।
दिनेश श्रीनेत लेखक की ईमानादारी पर भी एक अध्याय में बात करते हैं। वह लिखते हैं, लेखक जो लिखता है, उसे वह अपने जीवन में लागू करे यह आवश्यक नहीं है। हर लेखक अपने लिखे में एक समानांतर दुनिया को रचता है।
हर लेखक एक जीवन में अपनी किताबों, कहानियों और किरदारों के माध्यम से कई जीवन जीता है। किताबों में जो उसने जिया, बहुधा वह उसके निजी जीवन के सर्वथा विपरीत हो सकता है। तो किसी भी लेखक को उसके निजी जीवन के आधार पर जज नहीं किया जाना चाहिए।
लेखक सामाजिक नैतिकताओं का पालन करता हो, तभी बेहतर लेखक हो यह आवश्यक नहीं। वह जुआरी, शराब में डूबा रहने वाला, झूठ बोलने वाला, उधार लेकर न लौटाने वाला, कई स्त्रियों से प्रेम करने वाला धोखेबाज इंसान भी हो सकता है।
‘डिलीट बटन’ अध्याय में वह एक महत्वपूर्ण और जरूरी बात कहते हैं। जिस तरह आप कंप्यूटर या लैपटॉप पर काम करते हैं तो बहुत सी टेम्परेरी फाइल्स, कुकीज और कैश ममोरी इकट्ठी हो जाती हैं। आप इन अस्थायी फाइल्स, कुकीज और कैश ममोरी को डिलीट कर देते हैं। जीवन में भी ऐसी अस्थायी फाइल्स को डिलीट करते रहना चाहिए।
शानदार गद्य पढ़ने वालों के लिए, युवा लेखकों के लिए ‘शेल्फ में फरिश्ते’ एक बेहद जरूरी किताब है, जिसे पढ़कर आप बहुत कुछ सीख और जान सकते हैं। आप जान सकते हैं कि बिना पढ़े और समझे अपनी शेल्फ में लगी किताबों को फरिश्ते में तब्दील नहीं कर सकते।
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