Sunday, June 1, 2025
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पर्यावरण अनुकूल जीवन शैली पर हो जोर

RAVIWANI


arun tiwariकि जैसे-जैसे जीवन और आजीविका के साधन घटते जाएंगे, रार बढ़ती जाएगी। आज, महंगाई पर रार है; कल को भूमि, पानी, बिजली जैसे संसाधनों से लेकर अस्पताल में इलाज व रोजगार को लेकर रार बढ़ेगी। अमीर-गरीब, किसान-उद्योगपति, किसान-व्यापारी, सरकार-समाज के वर्ग संघर्ष बढ़ेंगे। रोजगार में आरक्षण के कारण जाति संघर्ष बढ़ेंगे। जलवायु परिवर्तन का यह दौर, भारत में भी छीना-झपटी, वैमनस्य, हिंसा और अपराध का नया दौर लाने वाला साबित होगा। दुखद है कि तापमान वृद्धि रोकने जैसे जीवन रक्षा कार्य में भी दुनिया, मसलों में बंट गई है। भारत, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ने भी ‘बेसिक’ नाम से अपना एक अलग मंच बना लिया है।

तर्क है कि जिसने जितना ज्यादा कार्बन उत्सर्जन किया, उत्सर्जन रोकने का उसका लक्ष्य उतना अधिक होना चाहिए। दंड स्वरूप, उसे उतनी अधिक धनराशि कम उत्सर्जन करने वाले और गरीब देशों को उनके नुकसान की भरपाई में देनी चाहिए।

रियो डि जिनेरियो में हुए प्रथम पृथ्वी सम्मेलन, 1992 से लेकर अब तक यही चल रहा है। ‘बीट द प्लास्टिक‘ – पर्यावरण दिवस 2023 का आह्वान है। अभी बीते दिनों 29 मई से 02 जून तक पेरिस में हुई मैराथन बैठक में देशों की सरकारों के बीच भी यही रवैया हावी रहा। इस रार का आधार, ‘प्रदूषण करो, दण्ड भरो’ का सिद्धांत है।

रार का अनुचित आधार

आर्थिक-सामाजिक न्याय की दृष्टि से आप इसे सही मानने को स्वतंत्र हैं, किंतु यह सही है नहीं। क्या पैसे पाकर आप, ओजोन परत के नुकसानदेह खुले छेदों को बंद कर सकते हैं? मूंगा भित्तियां (कोरल रीफ), कार्बन अवशोषित करने का प्रकृति प्रदत अत्यंत कारगर माध्यम हैं।

हमारी पृथ्वी पर जीवन का संचार, सबसे पहले मूंगा भित्तियों में ही हुआ। इस नाते ये जीवन की नर्सरी हैं। समुद्र तापमान बढ़ने के कारण दुनिया, मूंगा भित्तियों का कई लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल खो चुकी हैं। धरती पर जीवन की नर्सरी कहे जाने वाली मूंगा भित्तियां पूरी तरह नष्ट हो जाएंगी, तब जीवन बचेगा; क्या दुनिया की बङÞी से बङÞी अर्थव्यवस्था इसकी गारंटी दे सकती है?

संकट में साझे का वक्त

जो अंग जितना अधिकतम यत्न कर सकता है, उसे उतनी क्षमता और पूरी ईमानदारी से अधिकतम उतना साझा करना चाहिए। संकट में साझे का सामाजिक सिद्धांत यही है। इसी के आकलन पर पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता होना चाहिए। हम याद करें कि योजनाएं और अर्थव्यवस्थाएं, उपलब्ध अर्थ के आधार पर चल सकती हैं, पर ‘अर्थ’ यानी पृथ्वी और इसकी जलवायु नहीं।

जलवायु परिवर्तन का वर्तमान संकट, अर्थ संतुलन साधने से ज्यादा, जीवन संतुलन साधने का विषय है। स्वयं को एक अर्थव्यवस्था मानकर, यह हो नहीं सकता। हमें पृथ्वी को शरीर और स्वयं को पृथ्वी का एक शारीरिक अंग मानना होगा। प्राण बचाने के लिए अंग एक-दूसरे की प्रतीक्षा नहीं करते।

प्राकृतिक संरक्षण का सिद्धांत है। भारत को भी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए कि दुनिया के दूसरे देश क्या करते हैं ? हां, उन पर नजर रखनी चाहिए; उचित करने का दबाव बनाना चाहिए। किंतु हम यह तभी कर सकते हैं, जब पहले हमने खुद उचित कर लिया हो।

महात्मा गांधी ने दूसरों से वही अपेक्षा की, जो पहले खुद कर लिया। भारत के पास प्रतीक्षा करने का विकल्प इसलिए भी शेष नहीं है, चूंकि भारत की सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियां अन्य देशों से बहुत भिन्न, विविध व जटिल हैं।

भारतीय परिस्थितियां व संकेत

भारत की प्रति वर्ष प्रजनन दर, 1.6 प्रतिशत है। इस दर से वर्ष 2050 तक भारत की आबादी, दुनिया में सबसे ज्यादा 162 करोड़ हो जाएगी। आबादी घनत्व के मामले में भारत, दुनिया के सर्वाधिक आबादी घनत्व वाले पहले 10 देशों में है। भारत में कुपोषितों की जनसंख्या, दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है।

दुनिया की 15 प्रतिशत आबादी विकलांग है, भारत की 20.6 प्रतिशत। आज भारत में विकलांगों की संख्या, 2.63 करोड़ है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा तय विकास मानक, कितने समग्र हैं, कितने एकांगी.. यह एक अलग बहस का विषय है; किंतु इस पर कोई बहस नहीं है कि विकास मानकों के पैमाने पर भारत, 191 देशों के वैश्विक समूह में 132 वें स्थान का देश है।

आर्थिक विषमता का नमूना यह है कि एक ओर, भारत सबसे तेजी से बढ़ते अरब डॉलर पतियों की संख्या वाला देश है, तो दूसरी ओर सबसे तेजी से बढ़ती गरीबों की संख्या वाला देश। आर्थिक उदारवाद ने भारत में अपने 25 वर्ष पूरे कर लिए हैं। संकेत हैं कि आर्थिक उदारवाद के परिणामस्वरूप, यह खाई पूरी दुनिया में बढ़ रही है; भारत में भी बढ़ेगी।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून के बावजूद, भारत में बेरोजगारी दर बढ़ी है। भारत के 65 प्रतिशत उद्योग आज पानी की कमी महसूस कर रहे हैं। रोजगार का उम्मीद भरा क्षेत्र यह भी नहीं रहा। उत्तर प्रदेश में चपरासी पद की नौकरी हेतु लिए लाखों तक जा पहुंची आवेदकों संबंधी खबर और उनकी शिक्षा के स्तर की चर्चा आप तक पहुंची ही होगी।

भारत के सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़ जरूर रहा है, किंतु भारत में तकनीकी शिक्षा और कुशलता की हालत यह है कि इंजीनियरिंग शिक्षा प्राप्त मात्र एक प्रतिशत स्नातक ही इंजीनियरिंग कर्मचारी के तौर पर नौकरी पा सके हैं।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक, स्कूलों में व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त उत्तीर्ण महज 18 प्रतिशत युवाओं को संबंधित क्षेत्र में नौकरियां मिल पाईं। इन 18 में से भी मात्र 40 प्रतिशत के पास औपचारिक शर्तों पर नौकरी है। यह हालत तब है कि जब भारत में कुशल मजदूर और व्यावसायिक प्रशिक्षण स्कूल… दोनों की कमी है।

हिंसक भविष्य और समाधान

यह स्पष्ट है कि जैसे-जैसे जीवन और आजीविका के साधन घटते जाएंगे, रार बढ़ती जाएगी। आज, महंगाई पर रार है; कल को भूमि, पानी, बिजली जैसे संसाधनों से लेकर अस्पताल में इलाज व रोजगार को लेकर रार बढ़ेगी। अमीर-गरीब, किसान-उद्योगपति, किसान-व्यापारी, सरकार-समाज के वर्ग संघर्ष बढ़ेंगे।

रोजगार में आरक्षण के कारण जाति संघर्ष बढ़ेंगे। जलवायु परिवर्तन का यह दौर, भारत में भी छीना-झपटी, वैमनस्य, हिंसा और अपराध का नया दौर लाने वाला साबित होगा। आप फिर सवाल कर सकते हैं कि दुनिया दस अरब मीट्रिक टन कार्बन वायुमंडल में छोङती है। भारत, मात्र 54 मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जित करता है।

अमीर देश इतना खाना बर्बाद करते हैं कि उससे पूरे उप सहारा अफ्रीका की जरूरत की पूर्ति हो जाए। भारत में खाद्य सुरक्षा के लिए हमें कानून बनाना पड़ा है। अमेरिका वातानुकूलन में इतनी बिजली उपभोग करता है, जितने से पूरे अफ्रीका के एक अरब लोगों के घरेलु विद्युत जरूरतें पूरी की जा सकें। भारत में प्रति व्यक्ति खपत, अमेरिकियों की एक चौथाई है।

भारत की 25 से 28 प्रतिशत आबादी अंधेरे में रहती है। और क्या करें? खाना छोड़ दें या खनन करना बंद कर दें? बिजली बनाना-जलाना बंद कर दें? रासायनिक खाद को छोड़कर, सिर्फ जैविक खाद के भरोसे बैठ जाएं ? जीवाश्म र्इंधन का उपयोग शून्य कर दें अथवा साइकिल व बैलगाड़ी से दफ्तर जाएं?

दृष्टि बदलने की जरूरत

शहरों के बसने का आधार, हमेशा से सुविधा होता है। शहरी संस्कृति ने सभ्यता को भी सुविधा की पर्याय मान लिया। भारत में जितनी सुविधा आई, उतना कचरा बढ़ा। भारत में हर रोज करीब 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरा होता है। हर भारतीय, एक साल में पॉलिथीन झिल्ली के रूप में औसतन आधा किलोग्राम कचरा बढाता है।

ई बाजार जल्द ही हमारे खुदरा व्यापार को जोर से हिलायेगा, कोरियर सेवा और पैकेजिंग इंडस्ट्री और पैकिंग कचरे को बढायेगा। जो छूट पर मिले.. खरीद लेने की भारतीय उपभोक्ता की आदत, घर में अतिरिक्त उपभोग और सामान की भीड़ बढ़ायेगी और जाहिर है कि बाद में कचरा।

सोचिए! क्या हमारी नई जीवन शैली के कारण पेट्रोल, गैस व बिजली की खपत बढी नहीं है? जब हमारे जीवन के सारे रास्ते बाजार ही तय करेगा, तो उपभोग बढ़ेगा ही। उपभोग बढ़ाने वाले रास्ते पर चलकर क्या हम कार्बन उत्सर्जन घटा सकते हैं?


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