Monday, December 30, 2024
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लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति की पहचान

Samvad 46

56आज महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती है। पूरा देश दोनों महापुरुषों को श्रद्धांजलि दे रहा है। दिल्ली में राजघाट और विजय घाट पर दोनों महापुरुषों को श्रद्धांजलि देने नामी हस्तियां पहुंच रही हैं। आज कई सरकारी व निजी कार्यक्रम होंगे। कई राज्यों में आज स्कूल खुले रहेंगे। 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म हुआ था। दक्षिण अफ्रीका से 1915 में भारत लौटे गांधी ने स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व किया। गांधी के जन्मदिन को देश अब राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाता है। वहीं, सादगी और ईमानदारी की मिसाल कहे जाने वाले शास्त्री जी का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को बिहार के मुगलसराय में हुआ। वह जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के दूसरे प्रधानमंत्री बने।

जहां आज गांधी जी के जीवन चरित्र के साथ अनेक किस्से जुड़ें रहते है वहीं लाल बहादुर शास्त्री के जीवन को केवल सादगी और भारतीय संस्कृति की ‘श्रेष्ठ पहचान’ के रूप में जाना जाता है । आज के दिन गांधी जी को लेकर समाचार पत्र गाँधी जी को लेकर भरे रहते है और लाल बहादुर शास्त्री जी का जीवन चरित्र नाम नाम मात्र के लिए अखबार के एक कोने में रहता है इसलिए हम आज ज्यादा बात करेंगे श्री लाल बहादुर शास्त्री के बारे व जानेंगे कि उन्हें सादगी व भारतीय संस्कृति की ‘श्रेष्ठ पहचान’ के रूप में क्यों जाना जाता है। महात्मा गांधी के साथ अपने जन्मदिन साझा करने वाले शास्त्री पक्के गांधीवादी थे और जीवन भर उन्ही के सिद्धांतों पर चलते रहे। यहां तक भारत के प्रधानमंत्री जैसा पद हासिल करने के बाद भी उन्होंने कभी भी अपने सादगी और विनम्रता नहीं छोड़ी। उनके जीवन में ऐसे बहुत से किस्से सुनने को मिलते हैं जब उन्होंने साबित किया कि वे एक सच्चे देशभक्त और गांधीवादी थे। शास्त्री जी महात्मा गांधी से अत्यधिक प्रभावित थे। गांधी जी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आंदोलन में शमिल होने के लिए देशवासियों से आह्वान किया, इस समय इनकी आयु मात्र 16 थी। उन्होंने गांधी जी के आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय किया और आंदोलन में हिस्सा लिया। जिसके चलते उन्हें 1921 में जेल भी जाना पड़ा। देश को स्वतंत्र कराने के क्रम में उन्हें अपने जीवन के 7 वर्ष कारावास (जेल) में गुजारने पड़े। आजादी के इन संघर्षों ने इन्हें पूर्णत: परिपक्व बना दिया।

शास्त्री जी ने राजनीति में प्रेवश के माध्यम से देश की दिशा एवं दशा को बदलने का प्रयास किया। वस्तुत: वर्ष 1937 में प्रांतीय विधानसभाओं के चुनावों में उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा की सदस्यता प्राप्त की। इसी क्रम में आजादी के पश्चात सत्ता में आई कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के नेता लाल बहादुर शास्त्री का महत्व समझ लिया। परिणामस्वरूप वर्ष 1947 में उन्हें उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में मंत्री के रूप में शमिल कर लिया गया। वर्ष 1951 में वह पार्टी महासचिव बनें। तद्पश्चात शास्त्री जी को रेलवे एवं यातायात के केंद्रीय मंत्री के रूप में चुना गया। किंतु, इसी समय वर्ष 1955 में दक्षिण भारत के ह्यअरियलह्ण के समीप रेल दुर्घटना में कई लोग हताहत हुए जिसके लिए स्वयंम को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। शास्त्री जी ने समाज के वंचित वर्गों के लिए भी उल्लेखनीय कार्य किया। वे लालालाजपतराय द्वारा स्थापित ‘सर्वेन्ट्स आॅफ इंडिया सोसायटी’ (लोक सेवा मंडल) के आजीवन सदस्य बने। जहां उन्होंने पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए कार्य करना शुरू किया और बाद में वे उस सोसायटी के अध्यक्ष भी बने। इसी तरह उन्होंने किसान एवं युवा वर्ग को देश की आर्थिक एवं सैनिक शक्ति के तौर पर देखा। लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा भी दिया, जो आगे चलकर देशभक्ति का प्रतीक बन गया। शास्त्री जी के इस नारे का मुख्य उद्देश्य एक ओर जहां देश की सैनिक शक्ति में वृद्धि करने का था वही दूसरी ओर देश की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने का रहा। शास्त्री जी, भारत के पड़ोसी देशों के साथ अपने संबंधो में हमेशा शांति एवं संतुलन बनाए रखने का प्रयास करते थे। इसी क्रम में भारत-पकिस्तान युद्ध (1965) के संबंध में ताश्कंद (तत्कालीन सोवियत संघ) में सोवियत राष्टÑपति की मध्यस्थता से भारत तथा पाकिस्तान में सुलह हुई। जिसके तहत 10 जनवरी, 1966 पाकिस्तान के राष्टÑपति मोहम्मद अयूब खान के साथ युद्ध को समाप्त करने हेतु ‘ताशकंद घोषणापत्र’ पर हस्ताक्षर किए गए। 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में ही उनका निधन हो गया।

शास्त्री जी अपने वेतन का काफी हिस्सा गांधीवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने और सामाजिक भलाई में खर्च किया करते थे। यही वजह थी कि उन्हें घर की जरूरतों के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। शास्त्रीजी अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक समिति बनाई थी। भ्रष्टाचार से जुड़े सवाल पर उन्होंने अपने बेटेके मामले में भी भेदभाव नहीं किया। जब उन्हें पता चला कि उनके बेटे को गलत तरीके से प्रमोशन मिल रहा है। उन्होंने अपने बेटे की ही प्रमोशन रुकवा दी।

प्रधानमंत्री बनने तक उनके पास घर और कार दोनों नहीं थे। घरवालों के कहने पर उन्होंने कार खरीदने के लिए जब अपने बैंक खाते की जानकारी गंवाई तो उन्होंने पता चला कि खाते में केवल 7 हजार हैं जबकि कार 12 हजार की है। वे 5 हजार का बंदोबस्त कर सकते थे, फिर भी उन्होंने लोन लेने का फैसला किया। लोन चुकाने से पहले ही शास्त्रीजी इस दुनिया से विदा हो गए। उनका लोन माफ करने की पेशकश को उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ने ठुकरा दिया और वे चार साल तक कार की किस्तें चुकाती रहीं।

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