1966 में न्यूयार्क टाइम्स को दिए एक साक्षात्कार में गुरु गोलवलकर ने संघ-जनसंघ (वर्तमान भाजपा) संबंधों के बारे में बोलते हुए बतलाया था कि ‘संघ और जनसंघ भिन्न संगठन हैं और संघ के कार्यकर्ता किसी भी राजनैतिक दल के लिए कार्य करने में स्वतंत्र हैं।’ इसी में वे आगे कहते हैं कि ‘जनसंघ की स्थापना करने वाले (डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी) और संघ की स्थापना करने वाले (डॉ हेडगेवार) मूल रूप से कांग्रेसी ही थे, किंतु चूंकि कांग्रेस ने संघ के कार्यकर्ताओं के लिए अपने दरवाजे बंद कर रखे हैं, जबकि संघ ने कांग्रेस के लिए अपने दरवाजे बंद नहीं किए हैं और हिन्दू महासभा क्षीण हो गई है, इसीलिए संघ के कुछ लोग जनसंघ में जाकर काम करने लगे हैं।’ गुरूजी स्पष्ट करते हैं कि ‘संघ किसी भी दल से बंध कर या उसके अधीन रहकर कार्य नहीं करता है।’ (श्री गुरूजी समग्र-खंड 9)
वर्तमान में जब हर तरफ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के बीच बढ़ती कथित दूरियों की चर्चा चल रही है उस दौरान गुरु गोलवलकर के उक्त विचार महत्वपूर्ण हो जाते हैं और भाजपा के कार्यवाहक अध्यक्ष जेपी नड्डा के लोकसभा चुनावों के ठीक मध्य में भाजपा में संघ की अपरिहार्यता को खारिज करने वाले वक्तव्य को भी इन्हीं विचारों की रोशनी में देखे जाने की जरूरत है।
भारतीय जनता पार्टी 2014 से पहले तक सत्ता में रहने या नहीं रहने के दौरान संघ से ही मार्गदर्शन एवं जमीनी सहयोग लेती रही है। पार्टी में संघ से प्रतिनियुक्ति पर आने वाले राष्ट्रीय संगठन महासचिव की प्रमुख भूमिका संसद-विधानसभा उम्मीदवार और मुख्यमंत्री चयन में रहती थी। हालांकि सरकार चलाने में उसका न्यूनतम हस्तक्षेप रहता था। अटल बिहारी वाजपेई के प्रधानमंत्री काल में बाला साहेब देवरस के बाद से एक दौर ऐसा भी आया जब वाजपेयी अपनी वरिष्ठता के चलते संघ पर हावी होने लगे थे, किंतु 2004 के लोकसभा चुनावों में संघ कार्यकर्ताओं ने उदासीन रहकर अपनी शक्ति भी दिखा दी थी। इसी शक्ति के कारण लालकृष्ण आडवाणी जैसे ताकतवर नेता को जिन्ना प्रकरण के बाद संघ के दबाव में इस्तीफा देना पड़ गया था और इसमें संघ ने वाजपेयी की भी नहीं सुनी थी।
अब बात की जाये 2014 के बाद के नरेंद्र मोदी काल की तो यह हकीकत है कि संघ की योजना अनुसार ही तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने गोवा बैठक में लोकसभा चुनावों का नेतृत्व करने के लिए आडवाणी की जगह नरेंद्र मोदी के नाम का प्रस्ताव किया था और उसके कार्यकर्ताओं ने संपूर्ण देश में मनमोहन सरकार के विरुद्ध नरेटिव बनाने का कार्य किया था। प्रारंभ में नरेंद्र मोदी और संघ के मध्य सब कुछ ठीक ठीक और संतुलित चल रहा था, किंतु एक बार जब पार्टी संगठन की बागडोर राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाते अमित शाह के पास आ गई तो फिर मोदी और शाह की जोड़ी ने बड़ी निपुणता से किंतु धीरे-धीरे संघ से अलग रहकर कार्य करना प्रारंभ किया, किंतु इसमें भी उन्होंने यह ध्यान रखा कि काडर को कोई गलत संदेश नहीं जाए। इस कारण से उन्होंने संघ के मूल एजेंडे धारा 370, तीन तलाक, राममंदिर, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर आदि को लागू भी करवाया और वक्फ बोर्ड, समान नागरिक संहिता आदि को अपने भविष्य के एजेंडे में सैट किया। यह सोच-समझकर किया जाने वाला कार्य था जिसके कारण संघ की महत्वाकांक्षा भी पूरी हो रही थी और वृहद हिंदू मतदाता समूह में भाजपा ओर मोदी की लोकप्रियता भी बढ़ रही थी।
यह सब तो हो रहा था, किंतु मोदी शाह के सम्मुख अहम सवाल था कि पार्टी और सरकार में संघ के लोगों का अनुपात कैसे कम किया जाए। इसके लिए भाजपा के गैरसंघीकरण की एक अघोषित योजना बनाई गई, जिसके तहत दूसरे राजनैतिक दलों से प्रभावशाली नेताओं, विधायकों और सांसदों को तोड़ कर या सामूहिक दलबदल करवाकर भाजपा में लाया जाए और सही वक्त पर उन्हें सरकार में बड़े पदों पर बैठाया जाए। इसके साथ ही चुनावों में टिकट बांटते समय बाहरी लोगों को अधिकायत में टिकट दिए गए। यह योजना कारगर हुई और इन दस वर्षों में लगभग 35 प्रतिशत वे विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री भाजपा की तरफ से बनाए गए, जिनका इतिहास मूल भाजपा या संघ से जुड़े रहने का नहीं था। इससे नरेंद्र मोदी को अपने स्वयं का एक वफादार काडर बनाने का सुअवसर मिल गया।
यही वह बिंदु था, जहां से संघ और भाजपा में खटास होनी शुरू हो गई। संघ चाहता था कि हमेशा की तरह अभी भी मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, सांसद और पार्टी पदाधिकारी चुनने में उससे परामर्श किया जाए और बाहरी लोगों तथा कथित रूप से भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं को पार्टी में शामिल नहीं किया जाए। किंतु अब उसकी सुनने वाला कोई नहीं था। संघनिष्ठ राजनाथ सिंह और शिवराज सिंह पूर्णत: नरेंद्र मोदी के साथ खड़े थे तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा केवल मोहर लगाने तक सीमित थे। पार्टी की वास्तविक कमान अमित शाह ने पहले से ही अपने पास ले रखी थी। संघ के अतिप्रिय कहे जाने वाले गडकरी अपने मंत्रालय तक सीमित कर दिए गए थे और उन्हें संसदीय बोर्ड तथा राष्ट्रीय चयन समिति में भी नहीं रखा गया था।
संघ की विशेषता है कि वो लंबे समय के लिए सोचता है और योजना बनाता है। वह जल्दीबाजी में कोई निर्णय नहीं करता। इस बार भी उसने प्रतीक्षा की और फिर जब 2024 के लोकसभा चुनावों का परिणाम आया और भाजपा को बहुमत नहीं मिला तो संघ ने यह उपयुक्त अवसर समझा अपनी पकड़ मजबूत करने का। इस क्रम में उसने पहले देश के प्रत्येक कोने में अपने कार्यकर्ताओं के लिए अभ्यास वर्ग आयोजित किए जिनमें सरसंघचालक या अन्य वरिष्ठ संघ कार्यवाहक उपस्थित रहकर कार्यकर्ताओं से सीधे संवाद करते थे। इसके बाद इसने केरल में संघ से जुड़े समस्त अनुषांगिक संगठनों की बैठक बुलाई जिसमें भाजपा अध्यक्ष नड्डा को भी जाना पड़ा और संघ की बात सुननी पड़ी। इसी बैठक में नड्डा के माध्यम से भाजपा शीर्ष नेतृत्व को संकेत दे दिया गया कि इस बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर कोई संघनिष्ठ व्यक्ति ही बैठेगा और उसका चयन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करेगा।
एक बात जो निर्विवाद सत्य है कि भारतीय जनता पार्टी का आज भी मूलाधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही है। यह भी वास्तविकता है कि संघ कथित मतभेद को एक सीमा से आगे नहीं ले जाएगा क्योंकि उसकी प्राथमिकता है कि भाजपा सरकार 2029 तक निर्बाध रूप से चले। संघ यह जानता है कि उसके भौतिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं धार्मिक उद्देश्य तभी पूरे होंगे जब भाजपा सत्ता में रहेगी। अभी तक भी संघ ने भाजपा के सत्तारूढ़ होने पर ही अपने संगठन और अपनी शाखाओं का अपेक्षाकृत अधिक विस्तार किया है।