
लोभ और लालच को मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों में गिना जाता है-षडविकारों में। इनका भेद बताते हुए कहा जाता है कि जो है, उसे हर हाल में छाती से चिपकाये रखना लोभ है, जबकि जो है ही नहीं या दूसरे का है, उस पर गिद्धदृष्टि डालते रहना लालच। ज्ञानीजन इन दोनों ही विकारों को दुर्निवार बताते आये हैं, लेकिन ताजा हालात में पूछने का मन होता है कि क्या ये इतने दुर्निवार हैं कि भीषण त्रासदियों के बीच भी घटने के बजाय बढ़ते और नये-नये गुल खिलाते चले जाएं? ज्ञानीजन कुछ भी कहें, हमारी जिंदगी दूभर कर रही कोरोना की महामारी के बीच ये जिस तरह खुले खेल रहे हैं, उसके मद्देनजर इस सवाल का एक ही जवाब है : हां।
तभी तो महामारी से पीड़ित लोग सरकारों की अकर्मण्यता के बाद सबसे ज्यादा इनके विकराल होते जा रहे मुंहों से ही त्रस्त हैं, जिनमें और बहुत कुछ के साथ, इंसानियत के प्राय: सारे मूल्य समाते जा रहे हैं। इस कदर कि लोभ व लालच को सिर्फ मानवीय विकार कहना उस सरकारी व्यवस्था को बख्श देना हो गया है, जो न सिर्फ इनके प्रति अति की हद तक सहनशील बनी हुई है, बल्कि अपना खुद का तकिया भी इन्हीं के कंधों पर रखे है। उसका गैरबराबरी और शोषण पर आधारित होना तो खैर जितना इन दिनों सता रहा है, पहले शायद ही ऐसे किसी त्रास के वक्त सताता रहा हो।
साफ कहें तो हमारे बीच के लोभियों व लालचियों की सरकारों से साठगांठ न होती तो यह संभव ही नहीं था कि एक ओर लोग जीवनरक्षक दवाओं व चिकित्सीय उपकरणों की अनुपलब्धता से जानें गंवाने को अभिशप्त हों और दूसरी ओर इनके जमाखोर व कालाबाजारिये पीछे मुड़कर देखने को भी तैयार न हों। एक ओर आक्सीजन के सिलेंडरों के लिए हाहाकार मचा हो, न्यायालय उनकी कमी से होने वाली मौतों को ‘नरसंहार से कम नहीं’ बता रहे हों और दूसरी ओर उन्हें कालाबाजार में पचास साठ हजार रुपये में बेचा जा रहा हो। इसी तरह बेहद जरूरी रेमडेसिविर इंजेक्शन के लिए लोगों को कई-कई गुना कीमत देनी पड़ रही हो-आक्सीमीटरों और पीपीई वगैरह के लिए भी।
आप इस सबको परम्परागत रूप से चली आ रही अनैतिकता, मूल्यहीनता व भ्रष्टाचार का चरम कहें या कोई और शब्द तलाश लें, सच यही है कि आज की तारीख में महामारी हमें इस हद तक सता पा रही है तो इसीलिए कि सत्ताधीशों व धंधेबाजों की जुगलबन्दी इस महासंकट के वक्त भी अपनी वित्तेषणा की पूर्ति में ही लगी हुई है। क्यों है ऐसा? इस सवाल का पीछा करें तो याद आता है बीती शताब्दी के आखिरी दशक में सत्ताधीशों व धंधेबाजों की दुनिया मुट्ठी में करने को आतुर हसरतों ने पुरानी बाड़-बंदियों से निजात पाकर ‘ग्लोबल विलेज’ के ताल से ताल मिलाया तो अनैतिक प्रतिस्पर्घा पर आधारित खरीद-बिक्री के ऐसे मणिकांचन संयोग की ओर बढ़ चलीं कि देखने वालों की आंखें फटी की फटी रह जायें!
याद कीजिए, 1991 में पीवी नरसिंहराव की सरकार में नई आर्थिक नीतियां तेजी से आगे बढ़ाई जाने लगीं तो देश में ऐसा मानने वाले भी थे ही कि उनका उद्देश्य सत्तावर्ग द्वारा आजादी की लड़ाई के दौरान अर्जित मूल्यों की बिक्री से देश-विदेश में जमा किए गए काले धन को खुलकर कलाबाजियां दिखाने का अवसर प्रदान करना है। पर तब सारे विरोधों की अनसुनी करके सत्ताधीशों की वर्गीय एकता के बूते उन नीतियों को थोप दिया गया, जो अब देश के रंध्र-रंध्र से उसके मान व ईमान दोनों का लहू टपकाने पर आमादा है! मनुष्य को मनुष्य, राजनीति को परिवर्तन का साधन, खेलों को खेल, मनोरंजन को मनोरंजन और महामारी को महामारी नहीं रहने दे रहीं।
सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयंते की तो उन्होंने ऐसी पुनर्प्रतिष्ठा कर दी है कि ‘पैसा गुरु और सब चेला’ जैसी पुरानी कहावत ‘पूंजी ब्रह्म और मुनाफा मोक्ष’ को युगसत्य बनाकर मोद मना रही है। बड़ी पूंजी व राज्य के लगातार मजबूत होते गठजोड़ के बीच न इनको समता पर आधारित समाजवादी समाज के निर्माण का संवैधानिक संकल्प याद आता है न राष्ट्रपिता की बात कि यह धरती जरूरतें तो सबकी पूरी कर सकती है पर किसी एक व्यक्ति की भी हवस के लिए कम है।
राजनेताओं की हवस तो खैर कोई सीमा नहीं ही मान रही, डॉक्टरों, फिल्मस्टारों, सेलीब्रिटियों व क्रिकेटरों जैसे दूसरे भगवान व जंटिलमैन भी उसे काबू नहीं कर पा रहे। कारण इस तथ्य में छिपा हुआ है कि पिछले दशकों में जितने भी बड़े घपले, घोटाले या भ्रष्टाचार हुए हैं, उनका दूसरा पक्ष नेता, पत्रकार, क्रिकेटर, सेलीब्रिटी या सेनाधिकारी कोई भी हो, पहला पक्ष बड़ी या बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही हैं। कहते हैं कि इनमें से अनेक में हमारे लोकतंत्र पर सवारी गांठ रहे सत्ताधीशों या उनके अपनों का कालाधन लगा हुआ है, तो कई के कर्ताधर्ता सीइओ व वकील सब उसी वर्ग से आते हैं, जो अपने लोभ को तो जानते ही हैं, हमारे लालच से भी वाकिफ हैं!
सच पूछिए तो वे एक ही काम करते हैं-हमारी कुंठाओं व लोभों को प्रायोजित करने का। आकांक्षा व प्रतीक्षा के द्वंद्व की वह फांस तो इसमें लगातार उनकी मदद करती ही है, जिससे एक विज्ञापन के शब्द उधार लेकर कहें तो कोई बच नहीं पाएगा। अमीरों के लिए उनका संदेश है कि वे अभी और अमीर हो सकते हैं जबकि गरीबों के लिए यह कि उन्हें अपने जिल्लत या बदहाली के दिन खत्म करने हैं तो फौरन से पेश्तर लूटो-खाओ की ग्लोबल आंधी का हिस्सा बन जाना और ऐश्वर्य का कोई न कोई कोना अपने नाम आरक्षित करा लेना चाहिए। चूंकि समतल पर रहकर देश व समाज के बारे में सोचते और नीति व नैतिकताओं का पालन करते हुए बूंद-बूंद भरने व खुश रहने का वक्त पीछे छूट गया है, इसलिए देश की सारी प्रतिभाओं के लिए उनका संदेश यह है कि उनको बिना कुछ सोचे बिचारे, मनुष्य को संसाधन के तौर पर गढ़ने व संवेदनहीन बनाकर छोड़ देने वाले संस्थानों की शरण गहनी और लुटेरी कंपनियों के बड़े-बड़े पैकेजों में अपनी सार्थकता तलाशनी चाहिए।
उनके इन संदेशों के चलते हम इस महामारी से पहले से ही ऐसी शक्तियों के चंगुल में फंसे हुए हैं, जो अपने लाभों के लिए लगातार हमारे लोभों व लालचों को बेकाबू करने में न दिन देख रही हैं, न रात। ऐसे में यह महामारी आई है तो हमारी निरुपायता का आलम यह है कि हम उनके चंगुल से बाहर निकलने की कौन कहे, उन्हें इंगित करने का सत्साहस भी खो बैठे हैं। काश, हम समझते कि हमने इस ओढ़ी हुई लाचारी को उतारने में ज्यादा देर की, तो यह हमें महामारी के साथ ही नहीं, उसके बाद भी सताती रहेगी।