कर्नाटक में शैक्षिक संस्थाओं में हिजाब के मुद्दे पर चल रहे विवाद के बीच जब तमाम उदारवादी, शिक्षक, नारीवादी और प्रगतिशील समाज के समर्थक मुस्लिम छात्राओं के समर्थन में बोल रहे हैं तो सवाल उठता है कि ये शिक्षक, उदारवादी, प्रगतिशील समाज और फेमिनिज्म के समर्थक अचानक से कॉलेज परिसर में हिजाब पहने लड़की के समर्थन में भला कैसे उतर रहे हैं?? क्या इन सबके द्वारा हिजाब पहने हुई मुस्लिम लड़कियों के समर्थन के पीछे रुढ़िवादी परम्पराओं और जेंडर असमानताओं को बढ़ावा देने वाली सोच ही है या फिर इस मुद्दे में विमर्श का केन्द्र कहीं और है? इन सवालों के बीच हम जैसे प्रगतिशील समाज के समर्थकों का रवैया क्या होना चाहिये, इस पर चर्चा होना लाजिमी ही है। क्या हम जैसे लोग भी यही चाहते हैं कि स्त्रियों को पर्दे में रखा जाए, उनको एक वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जाए, सौंदर्य के प्रदर्शन को उनकी नैसर्गिक आवश्यकता माना जाए और उनकी जीवनशैली पितृसत्तात्मक सत्ता के अधीन हो? तो जवाब है नहीं, हम ऐसा बिल्कुल नहीं चाहते, तो हम क्या चाहते हैं वो समझा जाना भी जरूरी है।
दरअसल हम चाहते हैं कि सिर्फ मुस्लिम ही नहीं, बल्कि किसी भी दूसरे धर्म की स्त्रियां पर्दे में न रहें, लेकिन पहले एक ऐसा समाज तैयार किया जाए जहां पुरुषों के बीच बेपर्दा स्त्रियों की स्वीकार्यता हो। जहां स्त्रियों को स्वयं भी अपने पहनावे के कारण पुरुषों के बीच असहजता महसूस न हो, जहां बेपर्दा स्त्रियों को देखकर पुरुष असहज स्थिति में न पहुंचें।
हम चाहते हैं कि ऐसे तमाम धर्म और पुरूष प्रधान समाज पहले इस स्थिति के लिए प्रशिक्षित हों कि महिलाएं पुरुषों के बराबर हैं, महिलाएं पुरुषों के समान ही उन सभी पंचायतों, सार्वजनिक मंचों, सामाजिक-राजनीतिक विमर्शों में शामिल होने की बराबर की हकदार हैं जिन पर पुरुष प्रधान समाज अपना एकाधिकार समझता है। शहर-गांवों के तमाम नुक्कड़, पान की दुकानें, असंगठित पंचायतें, औपचारिक-अनौपचारिक सामाजिक-राजनीतिक विचार गोष्ठियों जैसे तमाम ऐसे मंच हैं, जिन पर महिलाओं की बराबरी की स्वीकार्यता के लिये कम से कम भारतीय समाज तो फिलहाल तैयार नहीं हैं।
यदि आप दुनिया के सबसे प्रगतिशील माने जाने वाले धर्म समेत जितने भी धर्मों और समाजों को देखेंगे और उनकी सामाजिक संरचना का विश्लेषण करेंगे, तो यही पाएंंगे कि उन सभी धर्मों में महिलाओं को पुरुषों के अधीन रखने की कूटरचित नीतियों को संस्कृति का जामा पहनाने के प्रयास किए गए हैं, इसलिए हम जैसे प्रगतिवादी चाहते हैं कि दुनिया के ऐसे सभी धर्म पहले अपनी संरचना से संस्कृति रूपी उस जामे को उतार फेकें, जो उनको जेंडर असमानता को सहजता के साथ स्वीकृत करने हेतु प्रेरित करती है।
एक शिक्षक के तौर पर हम निश्चित तौर पर चाहते हैं कि हमारे शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले विद्यार्थी किसी भी ऐसे विशेष परिधान या पहचान से दूर रहें, जो उनको किसी विशिष्ट धर्म या समुदाय के सदस्य के रूप में प्रस्तुत करने का कार्य करता हो, हम ये भी चाहते हैं कि हम अपने विद्यार्थियों को उनके जाति-धर्म और जेंडर के आधार पर नहीं, बल्कि उनकी नैसर्गिक क्षमताओं और सीखने के प्रति उनके लगाव के आधार पर उन्हें पहचानें।
लेकिन पहले हम चाहते हैं कि दुनिया के सभी समाजों के नीति-निर्माता, शिक्षण संस्थानों में शिक्षण व्यवसाय से जुड़े शैक्षिक प्रशासकों और शिक्षकों समेत सभी शिक्षणेत्तर कर्मचारियों को एक ऐसे समावेशी समाज की स्वीकार्यता हेतु पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित किया जाए, जहां विद्यार्थियों और उनकी नैसर्गिक क्षमताओं का आंकलन उनके जाति-धर्म, रंग, वर्ग, उनकी अक्षमताओं, उनके वर्ग के आधार पर नहीं किया जाए, बल्कि विद्यार्थियों को इन सब कारकों से परे सिर्फ एक शिक्षार्थी के तौर पर स्वीकार किया जाए।
यदि आज ये सवाल किया जाए कि क्या हमारा समाज और हमारी शैक्षणिक संस्थाओं के प्रशासक, शिक्षक और शिक्षणेत्तर कर्मचारी विद्यार्थियों को असमानताओं का आधार बनने वाले इन सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर देख पा रहे हैं? तो दुर्भाग्यवश आज 21वीं सदी में भी हम और हमारा समाज इस सवाल का जबाव ‘हां’ में देने की स्थिति में नहीं पहुंच सके हैं। तब बड़ा सवाल एक बार फिर से यही है कि आखिर क्यों प्रगतिवादी समाज कर्नाटक मुद्दे में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने के समर्थन में हैं?
दरअसल कर्नाटक के शैक्षणिक संस्थानों में जिस प्रकार से मुस्लिम लड़कियों के द्वारा हिजाब पहनने का विरोध किया जा रहा है और इस सबके लिये जिस तरह से हिंदू धर्म के तथाकथित समर्थक लामबंद हो रहे हैं, उनका उद्देश्य किसी प्रगतिशील समाज का गठन, जेंडर समानता का समर्थन, पर्दा प्रथा का विरोध या स्त्रियों को समानता के प्रति जागरूक करना नहीं, वरन मुस्लिम लड़कियों द्वारा शैक्षणिक संस्थाओं में इस प्रकार के किसी भी पहनावे का विरोध करना भर है|
जिससे उनकी धार्मिक पहचान प्रदर्शित होती हो। इस मुद्दे की बात करें तो हिंदू धर्म के तथाकथित समर्थकों का उद्देश्य सिर्फ यही है कि शैक्षणिक संस्थाओं में अल्पसंख्यकों द्वारा किसी भी प्रकार उनके धर्म और धार्मिक आस्था का प्रदर्शन न किया जाए, जबकि मुस्लिम छात्राओं के द्वारा शैक्षिक संस्थाओं में हिजाब पहनने का विरोध करने वाले यही लोग समावेशी समाज और असमानता से जुड़े अन्य सवालों पर लोगों को जागरूक करते नजर नहीं आते।
ऐसे में यह प्रगतिशील समाज, उदारवादियों और शिक्षक समाज का ही नैतिक दायित्व है कि इन धार्मिक अतिवादियों का विरोध किया जाए और लोगों को जागरूक किया जाए कि किसी भी धर्म की महिलाओं द्वारा पर्दा या हिजाब का प्रयोग बंद कराने के प्रयास धार्मिक कट्टरता के आधार पर किया जाना न तो संवैधानिक दृष्टि से ही उचित है और न ही किसी भी सभ्य धर्मनिरपेक्ष समाज के दृष्टिकोण से। उचित मार्ग यह है कि शिक्षा और जागरूकता का स्तर इतना बढ़ाया जाए कि समाज के सभी धर्मों-समुदायों के लोग अपनी सामाजिक संरचना में इस स्तर के आमूल-चूल परिवर्तन के लिये तैयार हों जाएं कि हम हमारे समाज की महिलाओं के पहनावे के आधार पर उनको असहज महसूस न करा पाएं।
हालांकि नारीवादियों के लंबे संघर्ष के फलस्वरूप सामाजिक संरचना में बड़े बदलाव हुए हैं, लेकिन आज कर्नाटक में पैदा हुई अराजकता की स्थितियों को दूर करने के लिए नारीवादी चिंतन और जेंडर संवेदनशीलता की जरूरत न सिर्फ स्त्रियों को है, वरन पुरुषों को भी है, न सिर्फ मुस्लिम समुदाय को है, वरन समाज के सभी धर्मों और उनके अनुयायियों को है। हम एक सभ्य समाज के तौर पर कब धार्मिक-साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जेंडर संवेदनशील बन पाएंगे और जेंडर समानता को स्वीकार कर पाएंगे? यह फिलहाल हम सबके लिए एक यक्ष प्रश्न ही है।
पंकज यादव