सद्बुद्धि से मन-मस्तिष्क पर अनुकूल असर पड़ता है। मनुष्य के विचारों में संतुलन और स्थिरता आती है। इसके साथ ही उसके धैर्य, चिंतन-मनन और संकल्प की शक्ति बढ़ती है। जिसकी बुद्धि दोष रहित है वह मनुष्य सदा ही पवित्र और शुभ करता हुआ जीवन में महान आनंद प्राप्त करता है।ईश्वर की ओर से मनुष्य को मिली एक अद्भुत और अनोखी देन बुद्धि है। जिस व्यक्ति में सद्बुद्धि है, वह अपनी और दूसरों की सभी समस्याओं का सहज समाधान निकाल लेता है।गीता में कहा गया है कि इस संसार में ज्ञान के समान और कुछ पवित्र नहीं है। जिस व्यक्ति में सद्बुद्धि है, वह अपनी और दूसरों की सभी समस्याओं का सहज समाधान निकाल लेता है, लेकिन दुर्बुद्धि से घिरे इंसान का और उसके करीबियों के जीवन का सर्वनाश निश्चित है।
किसी व्यक्ति के पास धन का अधिक मात्रा में संग्रह होने पर उसे सौभाग्यशाली नहीं कहा जा सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सद्बुद्धि के अभाव में यही पैसा नशे का काम करता है। सद्बुद्धि न होने पर अनावश्यक संपत्ति मनुष्य के किसी काम नहीं आती। दूसरी तरफ कम पैसा होने के बावजूद सद्बुद्धि वाला इंसान अपना जीवन आनंद से बिताता है। मनुष्य के जीवन में तमाम समस्याएं दुर्बुद्धि के कारण ही आती हैं।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण: किं करिष्यति।। (चाणक्य नीति 10/9)
जिस व्यक्ति के पास बुद्धि न हो ऐसे बुद्धिहीन मूर्ख का वेद शास्त्र क्या भला कर सकते हैं जैसे अंधे व्यक्ति के लिए दर्पण का कोई उपयोग नहीं।बिल्कुल सही बताया गया है कि, दोनों आंखों से रहित व्यक्ति के लिए दर्पण क्या करेगा अर्थात जो अंधा है उसके लिए शीशा दर्पण का क्या लाभ या दीखता तो आंखों से है शीशे से नहीं। अत: देखने के लिए आंख चाहिए न कि शीशा।
अर्थात आचार्य चाणक्य ने बहुत ही सटीक बात कही है। यूं तो बल कई प्रकार के होते हैं पर ‘बुद्धिबल’ सबसे बड़ा होता है। ‘बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेश्च कुतो बलं’। आचार्य चाणक्य के अनुसार जिसके पास बुद्धि है उसी के पास बल है, बुद्धिहीन के पास बल कहां?
बोधनात बुद्धि के अनुसार जो किसी भी पदार्थ या विषय का बोध कराये उसे बुद्धि कहते हैं। अब अपने लिए क्या भला है क्या बुरा, यह बोध कराना बुद्धि का काम है। जिसके पास ऐसा बोध करने की योग्यता न हो वह बुद्धिहीन है।
अपने शरीर, स्वास्थ्य और जीवन के लिए क्या करना अच्छा है और क्या करना बुरा, यह न समझने वाला व्यक्ति बुद्धिहीन या मूर्ख है और जो बुरा-भला समझता है फिर भी जानबूझकर बुरे काम करके अपने शरीर और स्वास्थ्य को हानि पहुँचाता है ऐसा व्यक्ति मूर्ख ही नहीं बल्कि प्रज्ञापराधी भी है क्योंकि जानबूझकर कुकर्म करना प्रज्ञापराध है।
सद्बुद्धि से बढ़कर इस संसार में और कुछ नहीं है। सद्बुद्धि से मन-मस्तिष्क पर अनुकूल असर पड़ता है। मनुष्य के विचारों में संतुलन और स्थिरता आती है। इसके साथ ही उसके धैर्य, चिंतन-मनन और संकल्प की शक्ति बढ़ती है। जिसकी बुद्धि दोष रहित है वह मनुष्य सदा ही पवित्र और शुभ करता हुआ जीवन में महान आनंद प्राप्त करता है। सद्बुद्धि वाला इंसान कठिन परिस्थितियों से भी बाहर निकल जाता है।
सम्राट अशोक ने कहा कि भले ही युद्ध लड़ने मैदान में जाते हैं, लेकिन जीते दिमाग से जाते हैं। किसी भी इंसान में सद्बुद्धि उसके द्वारा चीजों को देखने और उन्हें समझने से विकसित होती है। जो व्यक्ति दूसरों में सिर्फ दोष देखता है या फिर दूसरों की निंदा करता रहता है, तो धीरे-धीरे ये बातें उसके अंदर ही प्रवेश कर जाती हैं। तब व्यक्ति स्वयं में दोष खोजने लगता है और अपनी ही निंदा करने लगता है।
उसके भीतर नकारात्मकता इस तरह घर कर जाती है कि उसे अपने जीवन में और अपने आसपास कुछ भी अच्छा होता दिखाई नहीं देता है। स्वर्ग-नर्क कहीं और नहीं, बल्कि इसी धरती पर हैं, लेकिन फर्क बस इतना-सा है कि सद्बुद्धि मनुष्य को स्वर्ग का अहसास कराती है और दुर्बुद्धि नर्क का।
मनुष्य विवेक के आलोक में रहे तो बुद्धि सही निर्णय लेने में सफल हुआ करती है। लौकिक जगत की सांसारिक-भौतिक जरूरतें और आविष्कार जो मानवीय बुद्धि से लोगों तक पहुंचकर उपयोगी साबित हुए हैं।सुमति या सद्बुद्धि सात्विक प्रवृत्ति की है। इसके विपरीत यह बुद्धि कुप्रेरणा और कुसंग के कारण दूषित हुई। इसी संसार में अनेक अच्छाइयों और बुराइयों के उदाहरण शामिल हैं। मनुष्य अपनी ग्रहणशीलता से कितनी अच्छाइयों को आत्मसात करता हुआ विवेकशील हो, यह उस पर निर्भर है। मनुष्य की श्रेष्ठता व सार्थकता विवेकपूर्ण जीवन जीने में है।
विवेकशीलता के अभाव में मनुष्य सच्चा सुख और शांति से दूर होता जा रहा है। सत्कर्म का कारण बुद्धि की प्रेरक शक्ति विवेक ही है। जो सत्प्रेरणा के साथ उचित निर्णय करने में सहायक है। इसीलिए विवेकपूर्ण कृत्य के दोष रहित होने की संभावना बलवती बनी रहती है। वस्तुस्थिति का सही मूल्यांकन कर सकना, कर्म के प्रतिफल का गंभीरतापूर्वक निष्कर्ष निकालकर श्रेयस्कर दिशा देने की क्षमता केवल विवेक में होती है।
उचित-अनुचित के सम्मिश्रण में से श्रेयस्कर को अपना लेना विवेक बुद्धि का कार्य है। विवेक के अभाव में सही दिशा का चयन नहीं हो सकता। मनुष्य विवेक द्वारा ही भावनाओं के प्रवाह और अति श्रद्धा या अंध श्रद्धा से बच सकता है। विश्वास का प्रयोग अपने से कहां तक और कितना किया जाता है, इसका निश्चय विवेक बुद्धि ही कराती है। विवेक जागरूकता की कुंजी है। विवेकशीलता को ही सत्य की प्राप्ति का साधन कहा जा सकता है।